Sunday, June 28, 2015

सोच एक गुबार


जीवन तो 
पेड़ और पहाड़ का भी बीत जाता है एक न एक दिन 
यूँ ही एक जगह पर अड़े-खड़े 
क्योंकि जड़त्व में जीवन नहीं होता 
और वक्त किसी को भी 
सकते में नहीं रखता कभी। 

हो सकता है या नहीं,
चलना है या नहीं,
कहना है या नहीं,
मानू या न मानू .... 
सारे संशय, सारे उहापोह 
तो भीतर ही होते हैं इंसान के,
उसे जकड़ते-खेंचते हैं -
उसके घमंड के उपरले-अंतिम सिरे तक 
जहाँ तक कि 
सोच के, भावना के गुबार को
वह वहन करे, सहन करे -
फटने-फटने की  मनस्थिति तक … 
सोच-सोच कर अपना सिर पीटने तक   या 
फिर पागल हो जाने तक।  




प्रायष्चित



तुमने 
तनिक थमकर,
रुककर या ठहरक
अपने में, अपने आपको कभी देखा है?
रुककर नहीं तो जीवन के प्रवाह में बहते हुए,
काम करते हुए,व्यवहार करते हुए 
तो बिल्कुल भी नहीं देखा होगा?
कभी देखा भी होगा तो 
भीतर इतना अंधेरा था कि 
कुछ दिखायी नहीं दिया, हैं न!
और भीतर के अंधेरे 
तुम्हें बहुत डराते भी हैं,
तुम्हारे पापों की अस्थियों से 
तुम्हारा सामना भी कराते हैं। 
इसलिए तुमने जीवन में रुकना और 
अपने अंदर जाने का प्रयास ही छोड़ दिया और 
तुम बाहर-बाहर भागने लगे 
अपने से छिप-छिप कर या फिर 
तुम्हारे बाहर बहुत उजाला है और अंदर-भीतर  घना अँधेरा
जिसे तुम्हें हटाना ही नहीं आता। 
मगर कुछ पल भी 
तुम ऐसा कर लेते तो 
अपने आपको, आ चुकी व आने वाली 
अनेक मुश्किलों से बचा सकते थे,
और रुककर थमकर अँधेरे का सामना करके 
तुम अपनी कालिमा पर विजय पा सकते थे। 

चाहो तो अब भी 
अपने पापों की अस्थियों को प्रायष्चित की 
गंगा में बहा सकते हो और 
अपने भीतर साधना का उजाला ला सकते हो। 



















Wednesday, June 24, 2015

पेड़ की पेंटिग



पहले जब 
पेड़ के पास जाओ 
तो उसके पास  बैठो, 
उससे हाथ मिलाओ, 
और हो सके तो उसके गले लग जाओ 
अपने में उसे खड़ा करो,
टहनी-टहनी बड़ा करो, पत्ते-पत्ते लहराओ .. 
फिर उससे अच्छे से बतियायो 
जैसे मिले हो अरसे बाद अपने बिछुड़े से 
उसे भी अपनी इंसानियत का अहसास कराओ।  
फिर स्नेह-रंग से कैनवास पर उसकी तस्वीर बनाओ और
उसमें अपने जीवन-प्राण दबाओ। 
ऐसे नहीं कि 
निकाले रंग-कूची और शुरू हो गये 
ऐसे तो दीवारें व छतें रंगी जातीं हैं हड़बड़ी में, 
कैनवस पर तो 
पेड़ ऐसे बनाते हैं, जैसे उगाये हों धरती पर कि 
चिड़िया आकर बैठ जाये कि 
बादल थमकर बरस जायें कि  
खुद पेड़ धोखा खा जाये 
और बहार आने पर कैनवास का पेड़ भी बोर्रा जाये। 








क्रोध



बहुत ऊँचे से 
एक भारी पहाड़ी पत्थर की तरह गर्जन करता 
गिरता है क्रोध छपाक से.....  
शांत,कल-कल 
बहती जीवन धारा में 
और सब कुछ दहलाकर,
मोड़ देता है उसे गंत्वय से 
और कभी,अवरूद्ध तक कर देता है समूचे जीवन प्रवाह को।   

आँखों में आग,
नसों में उफनता लावा-तनाव,
उत्तेजना की परकाष्ठा में होश खोना 
और फिर 
सदियों से संजोया प्यार-विश्वास, तहस-नहस 
हो बिखर जाता है एक झटके में 
यूँ जैसे बड़े बवंडर के आने के बाद 
छत उड़ जाती है सबके सिरों से......  

अपनों का अलगाव हो या चाहे सामान का बिखराव 
सालों-साल में आयेगा अब इनमें सुधार, 
जब वक्त की शीतल जल धारायें 
इस पत्थर को
रेत करेंगी और बहा ले जायेंगी 
अपने साथ।  






















Tuesday, June 23, 2015

ईश्वर की खोज



एक संतुलन,एक संगीत,
एक रिध्म, एक तारतम्य 
बहता रहता है इस समूचे ब्रमांड की शिराओं में 
जो अनेकानेक 
अव्यवस्थाओं को बड़ी खूबसूरती और कुशलता से संभालकर 
ऐसी व्यवस्था में ढालता है कि 
सैंकड़ों तारपुंजों के हजारों सूर्यों में,
पल-पल अरबों-खरबों होते परमाणु विस्फोटों में
चक्राती धरती के वजूद को एक-एक अक्षांश,
मौसम के मिजाज को एक-एक डिग्री भी,
इस कदर संभलता है कि 
उसपर जीवित एक-एक कीड़ी का भी जीवन पूरा चले 
ऐसी व्यवस्था निकालता है। 

यहाँ आकर 
असंख्य अगर-मगर, किन्तु-परन्तु भी 
सीधे आकार में लगकर तर्क बन जाते हैं,
और कितने ही अनजाने भय 
अपना आयाम खोकर गर्त में विलीन हो जाते हैं,
तो यह प्रकृति का ईश्वरीय रुप नहीं तो और क्या है ?

रोज हम इस सत्य को 
अपने अंतर्मन में उतारते हैं और 
पूछते भी जाते हैं कि
ईश्वर है कि नहीं ?  और  इसे  हम  कैसे  देख  सकते  हैं?    













Monday, June 22, 2015

मनोकामना



जब से 
मैंने जाना है 
ईश्वर कहीं मेरे भीतर है 
मैं अपने भीतर ही हो जाना चाहता हूँ,
बाहर से नेत्र फेरकर।

भीतर ही कहीं 
शहर,गाँव,सड़कें,मकान बना लेना चाहता हूँ,
भीतर ही अपने 
माँ,बाप,पत्नि,बच्चे व बंधु-बांधव बसाना चाहता हूँ,
और तो और 
अपने मौसम और त्यौहार भी वहीं मनाना चाहता हूँ। 

इन्द्रियों की मोह-माया,विषय-वासना,प्यास-पिपासा की 
सारी सीमाओं-वर्जनाओं को तोड़कर, 
आखेटक से निर्भय पंख फैलाकर - मुक्त 
अपने भीतर ही ईश्वर की खोज में यात्रा पर निकल जाना चाहता हूँ। 
ये यात्रा, 
बनावट और बसावट भीतर हो 
पहले संभव न था, मगर 
जब से 
यह जाना है और अंतर्मन से माना है मैंने कि 
ईश्वर कहीं मेरे भीतर ही है 
मैं अपने भीतर ही हो जाना चाहता हूँ 
बाहर का सब छोड़-छाड़कर।                















Friday, June 19, 2015

सच की इबारत



नहीं... नहीं 
सच यूँ नहीं लेगा आकार कि 
एक झटके से 
समुद्र ले ले विशाल ऊँचे पहाड़ का आकार 
और उसकी चोटियों पर 
सीपियाँ चुनते तुम्हें लगे कि 
यही मेरे झूठ भरे, ठांठें मारते समुद्र की 
मुठ्ठी भर अस्थियाँ हैं  

नहीं 
सच यूँ भी नहीं लेता आकार कि 
वह आये दबे पांव, चुपके से, चोरी से 
और तुम्हारे बगलगीर होकर चलने लगे
खामोश, बेअहसास।

वह तो जब भी आयेगा 
सबको बता कर, आँखों में आँखें डालकर 
हो जायेगा - मेरे,तुम्हारे, उसके 
मन पर सवार,और
सारे  भय व संशय मिटाकर 
विश्वास का अध्याय लिखेगा आत्मा पर 
सदा-सदा के लिये             

















Tuesday, June 16, 2015

क्या अजीब है ?



पत्थर से पूछो 
तो उसे नहीं मालूम कि उसमें क्या अजीब है।  
वह तो चीज़ों से टकराता, तोड़ता-फोड़ता
कुछ और सख्त व पथरीला ही हो जाना चाहता है,
अपने स्वभाव में और कठोर व मजबूत। 

हवा अगर तेजी से बहकर 
सब कुछ उड़ा देती है तो भला 
हवा में हवा के लिये अपने इस कृत्य में, स्वभाव से बाहर क्या है?

अग्नि सब कुछ जलाकर राख कर देती है 
तो उसकी नजर में भी उसमें उसका क्या कसूर ?

पानी भी जब चाहे 
बेकाबू होकर झोंपड़े-मकान, खेत-खलिहान सब बहा देता है 
तो उसमें उसका स्वभाव भी क्या अजीब है ?
सबका स्वभाव तो दूसरों के लिये ही हैरान कर देने वाला होता है सदा,
वैसे तो सब अपने में ही होते हैं और अपने 
किसी विशेष गुण के लिये ही बने होते हैं। 
अब सोचो ज़रा हटकर 
कि पत्थर अगर तनिक हल्का व कच्चा होता,
अग्नि कुछ ठंडी होती या पानी का द्रव्यमान न होता।
तो ये हमारे किसी काम आते ?

वास्तव में प्रकृति नहीं-
हम इस्तेमालकर्ता ही अज़ीब हैं,
जो हड़बड़ी की गड़बड़ी में 
चीजों को उनके स्वभाव में नहीं 
अपनी जरूरतों में चाहते हैं,
और यों स्वार्थी बनकर प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते ही जाते हैं,
यातना व पराकाष्ठा की सीमा तक उसका दोहन करते हम
सजा पाने की अवस्था में तिलमिला कर कहते हैं-
कि ये प्रकृति व चीजों की प्रकृति बड़ी अजीब है। 























अनाम यात्रा



जीवन  है जैसे 
पहाड़ी यात्रा का सफर 
चढ़ते जाना 
ऊँचे-ऊँचे और ऊँचे 
जहां पल प्रति पल 
होते जाते हैं हम अपनों से दूर और दूर..... 
छोटे और बौने होते सब..... 
सभी को ऊपर कोई चोटी पर बुला रहा है.… 
हमसाया ही है कोई ऊपर हमारा
चोटी पर पहुंचना बिल्कुल भी आसान नहीं है पर 
हर कोई दौड़ता-हांफता 
इसी उम्मीद से चढा जा रहा है कि 
उसे ऊपर ही मिलेगा आराम 
जहां करना नहीं होगा कोई काम 
बस निश्चिन्त- निश्चिन्त आराम। 
ऊपर बादलों से छूती हुई चोटी 
मानो चोटी पर पहुंचकर 
एक पांव बढ़ाया 
और आकाश में ग़ुम हो जाना है,
हल्के हो जाना है बादलों की तरह
बादलों का ही हिस्सा होकर 
बादलों की तरह उड़ना भी है छिन्न -भिन्न होकर और 
एक  भी रहना है.… 
टूटना है... जुड़ना है.. जुड़ना है... टूटना है..... 
बरसना है... बादल भी होना है 
फिर फिर धरती पर आने के लिये 
आत्मा भी होना है, देह  भी  धरना है।      

















सूखे हम



जितना बड़ा पूरा 
आकाश व प्रकाश बाहर है 
उससे भी अधिक 
आकाश व प्रकाश का फैलाव
हमारे भीतर भी होता ही रहता है श्रण-श्रण --
ऊर्जा रश्मियों के अनगिनत विस्फोट होते ही जाते हैं--  
लेकिन हम इन्हें महसूस नहीं कर पाते 
क्योंकि हम कभी अपनी भीतरी यात्रा पर नहीं जाते हैं

भीतर भी हमारे एक भरा-पूरा जहान है - खेत व खलियान हैं 
विचारों के बागान हैं। 
जिन्हें हम सीँच नहीं पाते हैं 
बाहरी भाग-दौड़ में लगे हमको 
अपने को जानने-समझने में ही सालों-साल लग जाते हैं,
न ही हम इन्हें इनके मित्र - 
पुस्तकों व कला का संसार ही दे पाते हैं।  
इसलिय हम इन्हें और ये हमें सूखा ही छोड़ जाते हैं।    







मूर्ति /कलाकार





मूर्ति है, 
कि कलाकार है,
न जाने कौन किस को बनाता है ?

मूर्ति में कलाकार 
कि कलाकार में मूर्ति 
न जाने कौन किस में समाता है ?

बन जाये तो मूर्ति कला 
और न बने तो 
कलाकार ही मूर्ति हो जाता है।      


Monday, June 15, 2015

मेरे पाप



वो दिन 
कहाँ से शुरू किये थे तुम जीवन अपना... 
माँ के सूखे टिकलों, मटके का पानी,
व टूटी चारपाई से सजी झोपड़ी-भरी 
सुविधाओं व सकून के अकेले मालिक ... 
धीरे-धीरे करके जब तुम अपना मकान बनाते हो 
तो भीतर से कितने-
पपोले-कच्चे व कमजोर हो जाते हो,
ईंट-ईंट करके इतना झुक जाते हो कि 
अब सीधी कमर खड़े भी नहीं हो पाते हो। 
सपनों के सौदागरों से 
अपनी नींद का अधिकार खर्च कर 
सोने के लिये गद्दे व तकिये लाते हो तो 
कब इनका इस्तेमाल कर पाते हो और 
तिज़ारत का कौनसा कायदा निभाते हो। 
तुम जानते हो 
जब यहाँ टी वी नहीं था 
मगर तुम्हारे पास वक़्त व सकून तो था 
अब समय बेचकर तुम यह ले भी आये हो तो 
इसका क्या करोगे ?
तुम्हें मालूम नहीं कि तुम्हारी सुविधाओं व चैन के बीच का संतुलन 
कहीं खो गया है,
सामान जुटाने की होड़ में तुमने सुविधायें नहीं, आराम नहीं
जरूरत से ज्यादा जो वस्तुएँ जुटा लीं हैं 
जीवन के इस अंतिम दौर में तुम इनका क्या करोगे ?
पड़ोसियों से की गई ईर्ष्या व होड़ का भी नतीजा 
अब तुम्हारे सामने अस्पताल के बैड के रूप में आया है। 
क्या इसी तरह के सकून  व आराम की तुम्हें तलाश थी
बड़ी-बड़ी खुशियाँ जुटाने के लिये छोटी खुशियों को तो कहीं
तुमने पीछे ही छोड़ दिया।

अब डॉक्टर न जाने 
कितने तरीके के mysin (मेरे पाप) के 
इंजेक्शन लगायेगा और 
जीवन भर की गई गल्तियों और पापों 
का प्रायश्चित करायेगा।          

















कविता




जब 
मस्तिष्क के आकाश में 
विचारों के घने बादल टकराते हैं,
तो, तड़ित कर 
मन से होती हुई,
हाथों के रास्ते,
कलम से कागज पर 
जो अर्थ कर जाती है 
वह कविता हो जाती है।  

उलझन





एक मैं-मन,
एक मैं-आत्मा और 
एक मैं-परमात्मा, तीनों ही 
रहते हैं अपने-अपने भाव के साथ इस देह में 
इसे संचालित करने को

मैं-मन 
तो इसे बाहर यहाँ-वहाँ खूब दौड़ाता है,
जहाँ-तहँआ टकराता है 
और वासना की झाड़ियों घायल होने को बार-बार उलझाता है   

मैं-आत्मा, अच्छे-बुरे का ज्ञान रखता पुराना अनुभवी
मैं-मन को भीतर-भीतर सिखाता है,
उसे वस्तु-इस्थिति समझाता उसे 
रोकता-टोकता कि -
रुको-देखो-सही-चुनो और चलो क़ह-क़ह कर 
सही-गलत के द्व्न्द में उलझाता है।  

और मैं-परमात्मा सिर्फ देखता भर है 
कहता कुछ नहीं कभी 
संकेत मात्र में घूरता,आँखें तरेर,कहता-सा 
ऊपर आओगे तो बताऊंगा ?

इन तीनों में 
फँसा-खिंचता-उलझा -उलझा मैं 
डरता क्या करूँ ? क्या न करूँ ?       



















Sunday, June 14, 2015



                         अनुक्रम 
                                                  
1       प्रतिशोध                                   1
2         भय                                        2
3         घर                                         3,4
4         प्रेम                                         5
5        चुप्पी                                       6
6        वह एक                                    7,8,9,
7        छौना                                       10
8        विरह                                        11,12 
9        कैरम                                        13,14 
11     लघु  कविताएँ                               15,16,17,18,19
12    पिता                                            20,21
13    नादानी  की  उम्ह्र                           22
14    लघु  कविताएँ                                 23,24,25
15    जोग                                             26
16    बर्फ -धूप                                        27
17     ढोल                                              28
18     विचार                                          29,30
19     नींद एक जीवन /मृत्यु                     31
20     नींद एक सफर                               32  
21     एक सत्य यह भी                            33
22     खरी-खरी                                       34 
23     महाशून्य                                       35
24    माँ की याद में                                  36,37
25    सामाजिकता                                   38,39 
26    प्रकृति का पेड़                                   40,41
27    परिचय                                            42
28    धरोहर                                             43
29    नाव का सच                                     50
30    अनाम पंछी                                      51,52
31    सीख                                               53
32    बचपन                                            54
33   समन्वय                                          55,56,57 
34   पहचान                                             58
35   मृगमरीचिका                                      59,60  
36   पेड़ का दर्द                                         61,62
37   उजाला                                               63
38   भय  का सच                                        64
39   गोकुल का श्याम                                 65,66,67
40   ईश्वर                                                   68
41   आवाज                                                69   
42   असली डर                                           70,71
43   तीन रंग (लघु कविताएँ )                       72,73
44   संघर्ष                                                  74,75 
45   जीने का तरीका                                    76,77
46   मुक्ति  की  राह                                      78,79
47   उद्देश्य                                                 80,81                        48   फलसफा                                                82
49   मेरा नाम                                               83,84
50   आइना                                                   85
51   व्यवस्था                                                86 
52   काला रंग                                            87 to 91
53   तालमेल                                                 92,93                      54  विचार                                                94 to 98 
55   कविता                                                 99
56   उलझन                                                100,101
57   मेरे पाप                                             102 to 104
58  अनाम यात्रा                                          105,106
59   सूखे हम                                               107,108            
60   मूर्तिकार                                                  109
61   क्या अजीब है                                        110,111

सुरेन्द्र भसीन




         









         नाम                         :  सुरेन्द्र भसीन 
         जन्म स्थान              :   लाजपत नगर, नई दिल्ली। 
         जन्म तिथि               :   सत्रह जून उन्नीसों चौंसठ। 
         परिवार                     :   अनीता(पत्नी),भुवन(सुपुत्र),मोहक(बेटी)
        कार्य क्षेत्र                  :   विभिन्न प्राइवेट कम्पनीज में 
                                           एकाउंट्स के क्षेत्र में सेवा प्रदान की                  निवास                      : के -१/१९ ए, न्यू पालम विहार 
                                          गुड़गांव, हरियाणा में पिछले १५ वर्षों 
                                          से निवास।  
        सम्पर्क                      : मो - 9899034323     
                                         ब्लॉग - surinderbhasin.blogspot.in 
                                        इमेल - surinderb2007@hotmail.com    
               





Saturday, June 13, 2015

विचार



जब तब हम संग्रह करते जाते हैं 
फिर वे चाहे संबंधों का हो या सामान का 
तब-तब मृत्यु का भय बढता ही जाता है, याकि 
त्याग से हम मृत्यु के भय को जीत सकते हैं
                    -------

परिवर्तन से ही वक़्त का पता चलता है। 

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वक़्त  जीवंतता पर अधिक असर करता है। 

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जो कुछ भी तुम्हारे पूर्वजों ने किया है 
वह तुम्हारी देह,आत्मा और  संस्कार में रचा-बसा है
सावधान ! अब जो कुछ भी तुम करने जा रहे हो 
तुम्हारी सन्तानों में आयेगा अवश्य।
            ----------  

काल (वक़्त ) ने सब जाया (जन्मा ) है,
और किसी ने भी नहीं।             
    ----------

जिस तरह पानी में 
बर्फ का टुकड़ा घुल जाता है 
उसी तरह हम वक़्त में 
घुले जाते हैं। 

      -------


हम धरती से  ऐसे जुड़े हैं 
जैसे बालक अपनी माँ से 
फिर भला इसे छोड़कर कहाँ जायेंगे 
इसी धरती में उपजे हैं सब 
एक दिन इसी में समायेंगे।             
       --------  

नयी उंचाईंयों के लिये तो 
नये रास्ते ही खोजने पड़ते हैं। 
             -------   

मानक से अधिक हो चुकी 
उदासियों व थकानों को 
मांसपेशियों से एकत्रित कर 
रक्त जब मस्तिष्क में पहुंचाता है 
तो शरीर नींद में चला जाता है।  
           -----------
काम (श्रम ) की नाभि में 

जो स्वर्णमजूषा है में 
नाम छुपा हुआ है। 
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कोई भी बीज वनस्पति या प्राणी का 
मनोनुकूल परिस्थितियाँ पाकर ही 
फुटन लेता है, और यही उसका भाग्य भी है। 
               -----------  


रोज अपनी धरती को बुहारते हो,
रोज अपनी देह को भी बुहारते हो,
रोज अपने भीतर भी बुहारो 
और फिर उसे जोर से पुकारो। 
           --------   

बताया हुआ, कहा हुआ ही 
अधिक सुख देता है। 
          ----------          


कोई भी विचार 

कभी सम्पूर्ण नहीं होता। 
        -------  

तुम मुझसे आगे चलते हुए ही 
मुझे पुकारना क्योंकि पीछे 
मुड़कर देखने में मुझे तकलीफ होती है। 
           --------   

योग्यता व अधिकार के बिना 
हठपूर्वक पाना ही पाप है। 

           -------- 

जब आप भीड़ में तेजी से बढ़ना चाहेंगे 
तो टकरेंगे तो जरूर ही। 
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अनिर्णय व अकर्मणता ही 
अव्यवस्था का कारण होते हैं। 
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रास्ते साफ कभी नहीं होते 
उनको अपने लिये साफ करना होता है। 
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आपके बनाये रास्तों पर तो 
आपकी संतान तक नहीं चलती। 
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सुविधाएँ व साधन सदैव कम है होते हैं। 






      
        

















Friday, June 12, 2015

समन्वय



कितने भी लगालो पूर्वानुमान 
कितनी भी योजनायें बना लो 
मगर कभी भी 
सब कुछ वैसा नहीं होता 
जिसके लिये रहे हो, किया हो 
एक अरसे से तुमने अपने को तैयार ,
तुम्हारा सही व गल्त भी महत्वहीन हो जाता है वक़्त के आने पर। 
होता वही है
जो वक्त को, प्रकृति भाता है,
अपना तो किनारे पर ही छूट जाता है।  
अगर वक्त ने चाहा तो इसी षण  
प्रकृति हित में जायेंगे तुम्हारे प्राण 
इसलिए अपनी व्यतिगत इच्छाओं को त्यागकर 
इस तथ्य को आत्मा में बैठा लो कि -
प्रकृति बड़ी है, तुम नहीं 
जो हो जाये वही उचित था सब के लिये, तुम्हारे  लिये  भी  
ऐसी भावना और विश्वास पालो और  
अपनी इच्छाऐं व जरूरतों का समन्वय प्रकृति के हिसाब से ढालो। 






Thursday, June 11, 2015

काला रंग



काली अंधेरी रात के बाद 
आया सुबह का उजाला ही हमें बहुत भाता है,
काली लम्बी सड़क की यात्रा करके ही 
यात्री घर आकर सकून पाता है, और 
चाक व खड़िया से लिखे जाते शब्द भी 
हमें तभी समझ आते हैं जब वे 
काली स्लेट  या ब्लैकबोर्ड पर लिखे जाते हैं। 

ब्रमाण्ड की यात्रा के शुरू में भी 
जब कुछ न था - शब्द , ध्वनि  या प्रकाश  
मानो काला अंधकार तो वहाँ तब भी था। 

फिर पता नहीं क्यों?
 अवचेतन में छिपे अंधकार के भय से 
हम छूट नहीं पाते हैं और
अंधकार से, काले रंग से हम इतना घबराते हैं कि 
अँधेरे या काले के नाम से हम 
बड़ा संकुचित हो जाते हैं, वैमनस्य से भर जाते हैं,
उसे हम खुले मस्तिष्क से अपना नहीं पाते
इसलिये ही हम अँधेरे से, काले से भय खाते हैं 
उसे कभी सही नहीं समझते और  
न उसे अपना सहायक रंग समझकर उससे दोस्ती ही निभाते हैं। 

अनजाने में ही 
हमारे बचपन से 
हमारे भीतर अंधेरे का डर भर दिया गया है,
वे सारी नकारत्मक बातें कि 
अँधेरा बुरा है,
अँधेरा अशुभ है,
अँधेरा नींद है,
अँधेरा असुर है,
अँधेरा मृत्यु है,
अँधेरा यम है,
अँधेरा उजाले के विपरीत है....  
इससे डरो,
इससे बचो,
इससे भागो.... 
और जितना हो सके इसे त्यागो। 

मगर क्या यह सब सच है?
कोई ये क्यों नहीं कहता कि काला भी एक रंग है 
जो और रंगों की तरह ही 
अनेक वस्तुओं-पदार्थों में रचा बसा होता है -
अग्नि में,
आँख की पुतली में,
ये ही काला  रंग  जूतों में, कोट में, अचकन में, नकाब में...... 
हमारे बालों में,  सब जगह,
अनेक रंगों के ठीक नीचे, ठीक बीच में भी तो 
कहीं काला ही रखा होता है
काला भी हमारे लिये 
सफेद की तरह आम है,
काला ही हमारे लिये नींद व रात का आराम है। 
रात में भी हम, सपनो में भी हम 
अपने लिये,अपने साथ बहुत कुछ करते हैं -
रात  में  ही हम अपनी थकान को घुलाते हैं और 
दिन भर की परेशानियों की पोटली हम अँधेरे में हीं तो छोड़ आते हैं,
दिन के जख्म भी तो हमारे नींद में, 
अँधेरे में ही भरते हैं
ये अँधेरी रात ही है,
जो हमारे लिये सुबह के उजाले लाती है,
और हमारे गुनाहों को लील जाती है। 
फिर भला 
हम इससे दूरी  रखकर क्योंकर बचना चाहते हैं ?
मिलें काले से भी हम खुले मस्तिष्क से,
अँधेरे में भी घूमें हम ऐसे, जैसे घूमते हैं उजाले में तो 
वहाँ भी हमें काफी कुछ नजर आयेगा,
बिना उजाले के भी 
दिमाग बहुत कुछ देखने-समझने में कामयाब हो जायेगा।
और अवगुण किसमें  नहीं हो सकते,
इसे दूसरे रंगों की तरह सहजता से लेने पर 
तुम्हें इसके गुण ही गुण  नज़र आयेंगे 
और रोशनियों के पीछे अंधाधुंध भागते संसार में 
एक बार फिर श्याम मुस्कुरायँगे।    

















व्यवस्था



नगर के चौराहे पर 
नग्न घुमाने से - निर्लज़्ज़,
तुम्हारी देह से किये जाने वाले 
दुर्व्यवहार से - चरित्रहीन और 
किसी भी तरह के तुम्हारे पर किये 
शारीरिक आघात से तुम - कमजोर व शक्तिहीन 
मत समझो अपने आपको।
वस्तुत वे ही ऐसा होते हैं जो ये जबरन करते हैं,
ये उनके किये पाप हैं तुम्हारे नहीं। 
अपनी आत्मा तक से निर्लेप रहकर ऐसा सदा जानो कि 
जो कुछ हुआ है तुमने किया ही नहीं,
तो इसको सामाजिक मर्यादा से नहीं 
ईशवरीय आँख से पहचानों 
और सब भूल कर 
निर्द्व्न्द रहो...... ।             













Wednesday, June 10, 2015

आइना



तुम
किसी को भी पुकारो 
बोलता तो वह एक ही है 
जो इनके भीतर होता है चालक की अवस्था में 
और तुम्हें कोई अपना सुनाई देता है। 
तुम्हारे क्रोध का व गुर्राहट का भी कोई और नहीं 
वह एक ही होता है शिकार 
जो इन सब के बीच बसा हुआ है। 
सच तो यह है कि तुम में भी 
निराकार रूप लिये वही रहता है कोई तुम नहीं। 
फिर किन उलझनों को हम सुलझाना चाह्ते हैं 
और क्या हम और -और नहीं उलझ जाते हैं क्योंकि 
आईने को जितना भी पोंछे हम,
स्वयं खड़े हैं तो हम ही तो नजर आते हैं।