Wednesday, August 26, 2015

"अंधकार के किले में उजाले की सेंध " भूमिका


"अंधकार के किले में उजाले की सेंध "   
नयी, आज की, अधुनातन,प्रश्नाकुल, दव्न्दात्मक आध्यात्मिकता इन कविताओं की आधारभूमि है।  सतर्क आस्तिकता है।  ऐन आज के व्यक्तित्व के तनावों, अस्तित्व के चहुंओर से घिरे होने के संकटों में वह किस का सहारा ले, किसे पुकारे -  उस की असहायता निःसहायता को दिनोंदिन गहराते जाने वाले वैश्यिक हिंसात्मक क्रम सामने हैं।  व्यक्ति इन के सामने हतप्रभ है।  

एक बिल्कुल नया, उभरता युवा स्वर।  अपनी औघड़ता में भी सुडौल ज्ञानात्मक संवेदना की सघन पहचान करातीं कविताएँ मानवीयता का भरोसा कहीं भी शिथिल नहीं होने देतीं। संबोधात्मक भावावेगी और कहीं विचारशमित गंभीर मुहावरा पाठक को अपने में बाँधने की ताव भी बनाये रखता है। 

अंध-आस्था और विचारान्ध नास्तिकता के मध्य स्वानुभूत तलाशी-आजमायी आस्तिकता बड़ी अश्वस्तकारी है। युगों पुरानी, तही-बनी, परम्परित-हस्तांतरित होती आयी पूजा-पद्ध्त्तियोँ तक को       की वैज्ञानिक तर्कना पर कस कर अपनाती-उपलब्ध करती जागृत विवेकशीलता हमारा-पाठक का विश्वास जीतती प्रतीत होता है :-
 " यूँ न उठो

पूजा से झटपट कि

जैसे साबुन से धोने थे हाथ

सो तुमने धो लिये

और  हो गया बीती रात तक किये गये गुनाहों का प्रायश्चित। 

रोज पूजा में आना

उसे आत्मा की शुद्धि का मन की शान्ति का हिस्सा बनाना 

तुम्हारी सिर्फ देन्दिनी  ही नहीं तुम्हारी आत्मा की जरूरत है,

 ऐसा जाने कि देह का आत्मा  व आत्मा से ईश्वर का चाहे श्रण भर के 

लिये ही सही

आँखों का मिलना या प्रेमालाप या सम्पर्क तुम्हारी पूर्णता के लिये 

जरूरी है

जिससे तुम्हारे देह कलश में स्फूर्ति का ताजगी का पवित्रता का उतर 

जाना महज रस्म नहीं

तुम्हारी आने वाली और आ चुकी संतानों के लिये जरूरी है।"

                                                                       (मुक्ति की राह )
हर प्रकार की जड़ता, काहिली, लापरवाही पर भी बड़ी सूक्ष्म,तेज व्यंग्य प्रहार भी जगह-जगह मिल जायेगा, किंतु अपनापन और हितचिंतक भाव लिए हुए। 
वर्तमान में जीवन-अस्तित्व को भीतर तक प्रभावित करने वाले राजनीति,बाजार,अर्थाचार आदि को ले कर आज प्रचलित सोच-व्यवहार को भी पर्याप्त अवकाश-स्थान प्रस्तुत है।
आज के समांतर जीते हुए हजार उद्वेलनों, द्वन्द्वो, संकटों, संघर्षों में घिरे व्यक्ति के अंतः संवाद सरीखी शैली में तथा स्वयं ही स्वयं की आत्मशक्ति को पुकारती-जगाती मनुष्य की इयत्ता से साक्षात्कार कराती कविताएँ हैं। 
अज्ञात मनोवैज्ञानिक परिसरों के धुंधलकों, भयों, भ्रमों, तहखानों में जहां व्यक्ति बाहरी मारों हारों  में पिट कर पहुंचता है, वहां भी कवि सुरेन्द्र भसीन हार मानकर  पस्त होने के बजाय जीवन की दुर्दुष, दुर्वह आत्मशक्ति के बल पर उबर आने का छोर नहीं छोड़ता। उस की आत्मदृष्टि ही अध्यात्म दृष्टि और भगवत्ता है। 
इन कथनभंगी कविताओं में शब्द-पदों की आवृति अर्थ को खोल कर रखने से गूढ़ार्थ को स्पष्टतर करने की सुविधा जुटाती है। 
कहीं-कहीं किये गये मिथकीय प्रयोग भी आकर्षक हैं। 
अन्य सामाजिक संदर्भों की कविताएं हों या इतर संदर्भों की उन की पृष्ठ भूमि में उक्त चेतना की उजास सतत बनी रहती है।  गहन भारतीय पारिवेशिक आस्थाशीलता हर कहीं स्पंदित है। युवा कवि सुरेन्द्र भसीन मानव-निर्मित वर्तमान विराट अंधकार के किले में उजाले की, आध्यात्मिक विश्वास के बल पर, सेंध लगाने को तत्पर है ! स्वागत है ! 

                                                         बलदेव वंशी 
                                                    बी-684, सैक्टर 49,
                                               सैनिक कॉलोनी, फरीदाबाद 121001                                                       मो० 09810749703













No comments:

Post a Comment