तुम हमेशा,
चुप-चुप ही रहते हो,
बहुत पूछने पर ही,
थोड़ा-सा हाँ.… हूँ में कुछ कहते हो,
क्या अंदर बहुत बहते हो या
सदा रिसे नासूर की तरह सिसकते-गलते रहते हो !
किसी को कुछ न कहना,
बार-बार अंदर-अंदर सिसकना,
रोते रहना अच्छा नहीं होता।
इससे तुम, वापिस न लौटने की हालत तक दूर बहुत दूर निकल जाओगे।
अपने से बचने की चेष्टा करते, गैरों के होकर रह जाओगे।
एक बार, सिर्फ एक बार
आत्मिक शक्ति जुटाकर, बहा दो, अपने वजूद के विरुद्ध
बहते अपने ही गिले-शिकवे के गंदे नाले को,
जो तुम्हें आज जीवन से भी अहम लगते हैं और
अपना लो अपने रिश्तोँ को
जो इस जीवन के बाद भी सदा चलते हैं।
समझो कि, रिश्तों में कभी हार-जीत नहीं होती
सिर्फ बराबरी ही होती है,
सम्मान ही होता है क्योंकि
जो मान जाये उसका तो सारा जहान होता है,
और माना हुआ व्यक्ति की सदा महान होता है।
सोचो उस अनर्थ का जब तुम गैरों के हाथ की पुतली होते हो
तो क्या तुम अपनी मिट्टी, अपने माहौल, अपनी फ़िज़ा और जुबान पर बसे स्वाद को कभी भूल पाते हो ?
ऐसा नहीं होता मेरे दोस्त,
सौ-सौ साल हमवतनों से, वतन से, जलावतन रहने वालों को भी
उनके आख़िरी समय में
ये मिट्टी ही है, जो वतन खींच लाती है
और यहीं की मिट्टी में दबकर ही
उनकी आत्मा सकून व चैन पाती है।
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