अपनी सनक को,
अपने विचलित-विचारों को
अपने ही भीतर सिमित-समाहित रखो
वरना लोग तुम्हें रुग्ण कहेंगे,पागल दे देंगे करार,
और तब तक तुम्हारा इलाज करायेंगे
जब तक कि उन्हीं की तरह स्पष्ट दायरानुमा,
परंपरागत,सामाजिक परिपाटी वाला सोचने न लगो
और उनकी बाँधी सीमाओं को न करने लगो स्वीकार।
अच्छी तरह मास्टरों,नेताओं व धर्मात्माओं से ठोक-पीटकर
बनाये गये तुम जैसे सामाजिक पुर्जों में खम व गम आ जाने पर
पहले वह उसका इलाज कराते हैं,
फिर पड़ा रहने देते हैं एक तरफ यार्ड में,
कबाड़ में या पागलों के अस्पताल में निष्काम सालों-साल
फिर भेज देते हैं रिश्तेदारों में सामाजिक रहमों कर्म पर
समय के निर्मम हाथों में धीरे-धीरे जिबहा होने के लिये।
तुम अपने साथ ऐसा निष्ठुर व्यवहार तो नहीं चाहते होंगे न।
तो भीतर ही पूरी तरह पकाओ-पनपाओ अपने विचारों को
फिर उन्हें व्यवस्थित रूप देकर सहनीय-सराहनीय बनाकर
धीरे-धीरे वक्तनुसार ही लोगों को बताओ,
तभी होंगे वे स्वीकार।
वरना,तुम और तुम्हारे विचार
चाहे कितने उपयोगी व कीमती हों तुम्हारी नजर में,
तुम रहो पागल कहलाने के लिये तैयार।
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