Sunday, August 2, 2015

पागल कहलाने से पहले


अपनी सनक को,  
अपने विचलित-विचारों को 
अपने ही भीतर सिमित-समाहित रखो 
वरना लोग तुम्हें रुग्ण कहेंगे,पागल दे देंगे करार, 
और तब तक तुम्हारा इलाज करायेंगे 
जब तक कि उन्हीं की तरह स्पष्ट दायरानुमा,
परंपरागत,सामाजिक परिपाटी वाला सोचने न लगो 
और उनकी बाँधी सीमाओं को न करने लगो स्वीकार। 
अच्छी तरह मास्टरों,नेताओं व धर्मात्माओं से ठोक-पीटकर
बनाये गये तुम जैसे सामाजिक पुर्जों में खम व गम आ जाने पर 
पहले वह उसका इलाज कराते हैं,
फिर पड़ा रहने देते हैं एक तरफ यार्ड में,
कबाड़ में या पागलों के अस्पताल में निष्काम सालों-साल 
फिर भेज देते हैं रिश्तेदारों में सामाजिक रहमों कर्म पर 
समय के निर्मम हाथों में धीरे-धीरे जिबहा होने के लिये।  
तुम अपने साथ ऐसा निष्ठुर व्यवहार तो नहीं चाहते होंगे न। 
तो भीतर ही पूरी तरह पकाओ-पनपाओ अपने विचारों को 
फिर उन्हें व्यवस्थित रूप देकर सहनीय-सराहनीय बनाकर 
धीरे-धीरे वक्तनुसार ही लोगों को बताओ,
तभी होंगे वे स्वीकार।
वरना,तुम और तुम्हारे विचार 
चाहे कितने उपयोगी व कीमती हों तुम्हारी नजर में,
तुम रहो पागल कहलाने के लिये तैयार। 


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