Friday, August 14, 2015

मुरलीधर की मुरली का सम्मोहन

इच्छायें और चाहतें 
व्यक्ति के भीतर घुटी-बसी होती हैं,
जिन्हें रंग,संगीत,महक या महौल देकर 
भीतर से उभारा जाता है,
उसकी चाहत बनाकर, भूख बनाकर 
बड़ी ही व्यवसायिक चतुराई से 
और वे छूट पड़ती हैं बाड़े की सांकल खुली गौवों के समान 
अपनी चाहत की घास चरने को,
बिफर कर, बिखर कर, असयंमित्त होकर।  
और ताबड़-तोड़ चरने के बाद 
घंटो तक जुगाली भी करती हैं मस्तिष्क में 
घटनाओं का, पाये तजुर्बों का, भोगे आनंद का रस ले लेकर और 
उनको भरती मन में, नयी चाहतों, इच्छाओं के साथ,
इकट्ठा करती, सहेजती, बढ़ाती, भविष्य के लिये अपनी बेड़ियां बनाती। 
मगर शायद ही कोई आत्मा करती हो 
अपनी मुक्ति का प्रयास, उत्थान का प्रयास 
इस बाहरी आकर्षण से निकलने का
इन्द्रियों को,गौवों को अंदर की ओर फिराने का 
कि इनको भीतर ही घुमा लें, अंदर ही चरा लें
और मुरलीधर की मुरली का सम्मोहन भीतर ही जगा लें।   















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