पीड़ायें भी तो
तरह-तरह से सताती हैं हमें।
दैहिक पीड़ा से बड़ी होती है -
मानसिक पीड़ा।
और फिर आती है आत्मिक पीड़ा।
मगर इन सब से भी अधिक हमें वो
सताती है जो हमारे भीतर नहीं
हमारी ओर आती नजर आती है हमें,
हवाओं में दर्द का गुप्त अहसास बनकर।
तब हम समझते हैं कि
पीड़ा से पीड़ा का अहसास बड़ा होता है क्योंकि
वह न होते हुये भी घेरती है हमें
हमारे पापों का अदृश्य परिणाम बनकर।
वह सुखाती-निचोड़ती है हमारे जीवन रस को भीतर से
और धकेलती है हमें हमारे दुखांत की ओर
व हमारे जीवन को नासूर बना जाती हैं।
No comments:
Post a Comment