गिरते,बढ़ते,बहते
ऐसे स्थानों, विचारोँ,कंदराओं में मैं पहुँचने लगा हूँ
जहाँ मानवीय दखल वर्जित-सा लगता है,
इसलिये अनजाने भय से भरता ही जाता हूँ तभी
हर बार काँप-काँप के अवरुद्ध होती साँसे
संभालता ही बाहर लौट के आता हूँ।
और भीतर फिर न जाने की,
इस रास्ते पर न आने की कसम खाता हूँ।
पर फिर न जाने क्यों? कब? कैसे?
किन अनजान रास्तों से गुजरकर
अपने को वहीं खड़ा पाता हूँ।
वही अनुभव मुझे झिंझोड़ते हैं,
जिनसे मै सदा खौफ खाता हूँ क्योंकि
इतना बड़ा होकर भी उनके आगे
अबोध बच्चे-सा निसहाय हो जाता हूँ।
ऐसे स्थानों, विचारोँ,कंदराओं में मैं पहुँचने लगा हूँ
जहाँ मानवीय दखल वर्जित-सा लगता है,
इसलिये अनजाने भय से भरता ही जाता हूँ तभी
हर बार काँप-काँप के अवरुद्ध होती साँसे
संभालता ही बाहर लौट के आता हूँ।
और भीतर फिर न जाने की,
इस रास्ते पर न आने की कसम खाता हूँ।
पर फिर न जाने क्यों? कब? कैसे?
किन अनजान रास्तों से गुजरकर
अपने को वहीं खड़ा पाता हूँ।
वही अनुभव मुझे झिंझोड़ते हैं,
जिनसे मै सदा खौफ खाता हूँ क्योंकि
इतना बड़ा होकर भी उनके आगे
अबोध बच्चे-सा निसहाय हो जाता हूँ।
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