Sunday, August 9, 2015

भय के पार

वो काली छायायें, 
जिनके भय से, 
मैं आँखे भी बंद नहीं कर पाता हूँ, कई-कई रात। 
अब आँखों के काले घेरे बन- बनकर 
मेरे चेहरे पर ही छाने लगी हैं,
और उनके भय से मैं कितनी रात सोया नहीं हूँ ,
दुनिया को सरे आम ये बताने लगी हैं। 
ये भयानक बेरूप उड़ती छायायें, 
अब मेरे लिये दुःस्वप्न नहीं रहीं, 
सचमुच बन भटकती हैं मेरे इर्द-गिर्द और कभी, 
बेखौफ ईशारों से मुझे अपनी ओर बुलाती हैं, और 
कभी मुझे स्तंभित करते हुये,
मेरे में से होकर दूसरे पार निकल जाती हुइं 
मुझमें अपने जैसा होने का विश्वास फैलाती हैं। 
लगता है, वे मुझसे पहले 
मेरे हौंसले पस्त करेंगी फिर 
मेरे दिमाग को ध्वस्त करेंगी,
फिर बचा-खुचा तो ढह जायेगा 
अपने-आप ही भारी-बोझिल  होकर 
वजूद मेरा। 
और क्या मै देखता रहूँगा, 
ये सब कुछ अपने में, अपने आप होकर,
अपने साथ बीतते हुये। 
क्या न करूँगा विरोध ,उपाय इसका।  
नहीं उतारूँगा अपने भीतर 
रोशनी और विश्वास के भीमकाय बगौले। 
जो इनको देखते ही 
उनपर जा पड़ें, उन्हें जला दें। 
जो मेरे चेहरे की मुर्दनी हटा दें और 
मुझे एक भयमुक्त चैन की नींद दिला दें। 















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