Monday, August 3, 2015

नकारत्मकता का बोझ

हृदय पर
नकारत्मकता का बोझ बढ़ते ही,
शरीर भी थका-थका, बोझिल-बोझिल हो जाता है,
फिर चाहे 
दो उसे घंटो आराम, रखो निष्काम, मगर
स्फूर्ति का अहसास उसमें जग नहीं पाता है,
जब तक कि ह्रदय पर रखा बोझ उतर नहीं जाता है। 
गीले काले कंबल-सी नकारत्मकता से, उदासी से, 
थक, उचाट, भारी हो चुका शरीर 
हाथी-सा ऐसे एक जगह पड़ जाता है कि भीतर के सभी प्रयासों को असफल करता लाख उठाने पर भी नहीं उठ पाता है। 
आशा की, उम्मीद की किरण या 
समय का महावत ही अब समझा-उठा पायेगा इसको -
कि उठो ! बढ़ो आगे !
ठहरने से नहीं
जीवन में गति करने से ही 
ह्रदय से नकारत्मकता का पहाड़ टूट जाता है। 

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