Monday, August 10, 2015

प्रकृति प्रेम-मिलन

निशा गुजर जाती है, 
सलमा सितारों टंकी काली रेशमी चादर लिये-लिये
छम-छम करती.... 
और दिवाकर भी बहता जाता है 
रात की चाह में, इंतजार में हमेशा … 
दोनों ही आते-जाते मिलते- देखते समय संधि पर 
एक दूसरे को - प्यास लिये,चाह लिये। 
महीनों रहते एक दूसरे के वियोग में,विछोह में, 
और भारी होता जाता तन-मन। 
महीनों का विछोह-वियोग फिर जब टूटता है 
तो रात चढ़ जाती है दिन के ऊपर पूरे जोश से,
ढक-काला कर लेती है अपने उत्तेजित शरीर से और 
तब रात के जिस्मों गरूर में दिन कहाँ सफेद होता है। 
तब कड़कती है बिजलियाँ,
बरसने लगता है निर्मल जलधार रूपी प्रकृति का प्यार
बहता -उतरता है शिवत्व अपने चमत्कार में, 
और धरती पर हो जाता -
सब नवल-धवल, खिला-धुला, धुला-खिला। 
पनपति वनस्पति भी उसके बाद ही,
और पृथ्वी भी हल्की-ताजी हो,
कुछ अधिक चमकती तेज, फुर्तीली हो,
घूमने लगती है अपनी धुरी पर।       


















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