Tuesday, August 4, 2015

मौन का कहर

मौन रह जाने से 
तुम्हारी जबरन स्वीकृति जाहिर 
हो जाती है मौजूदा विषय पर।   
और चलता हुआ वर्तमान ही 
तुम्हारे गले में लटक जाता है, 
यथार्थ का विषैला साँप बनकर। 
जिसे स्वीकार तुमने किया नहीं 
और न कर नहीं सके मजबूरीवश। 
अब यही विषैला साँप 
घोंटेगा तुम्हारा गला इस कदर 
कि चाहते हुये भी हाँ..न नहीं कह पाओगे 
सिर्फ गों...गों की फंसी-फंसी 
आवाज ही करते रह जाओगे तुम जीवन भर।   
मगर कैसे ?
जिसे तुमने अपनी वर्तमान मजबूरियों व खामोशियों 
से स्वीकारा है मौन रहकर। 
उसे अपने जीवन के किस कोष्ठक या 
अलमारी में सजाओगे ?
या फिर, नाजायज औलाद की तरह 
अपने व अपने समाज से छिपाओगे ?
या फिर, घर भर को परेशान करते,
बू मरते, पिंजरे में पकड़ लिये गये चूहे की तरह 
अपने  जीवन से दूर कहीं दूर छोड़ आओगे ?












No comments:

Post a Comment