Wednesday, August 26, 2015

"अंधकार के किले में उजाले की सेंध " भूमिका


"अंधकार के किले में उजाले की सेंध "   
नयी, आज की, अधुनातन,प्रश्नाकुल, दव्न्दात्मक आध्यात्मिकता इन कविताओं की आधारभूमि है।  सतर्क आस्तिकता है।  ऐन आज के व्यक्तित्व के तनावों, अस्तित्व के चहुंओर से घिरे होने के संकटों में वह किस का सहारा ले, किसे पुकारे -  उस की असहायता निःसहायता को दिनोंदिन गहराते जाने वाले वैश्यिक हिंसात्मक क्रम सामने हैं।  व्यक्ति इन के सामने हतप्रभ है।  

एक बिल्कुल नया, उभरता युवा स्वर।  अपनी औघड़ता में भी सुडौल ज्ञानात्मक संवेदना की सघन पहचान करातीं कविताएँ मानवीयता का भरोसा कहीं भी शिथिल नहीं होने देतीं। संबोधात्मक भावावेगी और कहीं विचारशमित गंभीर मुहावरा पाठक को अपने में बाँधने की ताव भी बनाये रखता है। 

अंध-आस्था और विचारान्ध नास्तिकता के मध्य स्वानुभूत तलाशी-आजमायी आस्तिकता बड़ी अश्वस्तकारी है। युगों पुरानी, तही-बनी, परम्परित-हस्तांतरित होती आयी पूजा-पद्ध्त्तियोँ तक को       की वैज्ञानिक तर्कना पर कस कर अपनाती-उपलब्ध करती जागृत विवेकशीलता हमारा-पाठक का विश्वास जीतती प्रतीत होता है :-
 " यूँ न उठो

पूजा से झटपट कि

जैसे साबुन से धोने थे हाथ

सो तुमने धो लिये

और  हो गया बीती रात तक किये गये गुनाहों का प्रायश्चित। 

रोज पूजा में आना

उसे आत्मा की शुद्धि का मन की शान्ति का हिस्सा बनाना 

तुम्हारी सिर्फ देन्दिनी  ही नहीं तुम्हारी आत्मा की जरूरत है,

 ऐसा जाने कि देह का आत्मा  व आत्मा से ईश्वर का चाहे श्रण भर के 

लिये ही सही

आँखों का मिलना या प्रेमालाप या सम्पर्क तुम्हारी पूर्णता के लिये 

जरूरी है

जिससे तुम्हारे देह कलश में स्फूर्ति का ताजगी का पवित्रता का उतर 

जाना महज रस्म नहीं

तुम्हारी आने वाली और आ चुकी संतानों के लिये जरूरी है।"

                                                                       (मुक्ति की राह )
हर प्रकार की जड़ता, काहिली, लापरवाही पर भी बड़ी सूक्ष्म,तेज व्यंग्य प्रहार भी जगह-जगह मिल जायेगा, किंतु अपनापन और हितचिंतक भाव लिए हुए। 
वर्तमान में जीवन-अस्तित्व को भीतर तक प्रभावित करने वाले राजनीति,बाजार,अर्थाचार आदि को ले कर आज प्रचलित सोच-व्यवहार को भी पर्याप्त अवकाश-स्थान प्रस्तुत है।
आज के समांतर जीते हुए हजार उद्वेलनों, द्वन्द्वो, संकटों, संघर्षों में घिरे व्यक्ति के अंतः संवाद सरीखी शैली में तथा स्वयं ही स्वयं की आत्मशक्ति को पुकारती-जगाती मनुष्य की इयत्ता से साक्षात्कार कराती कविताएँ हैं। 
अज्ञात मनोवैज्ञानिक परिसरों के धुंधलकों, भयों, भ्रमों, तहखानों में जहां व्यक्ति बाहरी मारों हारों  में पिट कर पहुंचता है, वहां भी कवि सुरेन्द्र भसीन हार मानकर  पस्त होने के बजाय जीवन की दुर्दुष, दुर्वह आत्मशक्ति के बल पर उबर आने का छोर नहीं छोड़ता। उस की आत्मदृष्टि ही अध्यात्म दृष्टि और भगवत्ता है। 
इन कथनभंगी कविताओं में शब्द-पदों की आवृति अर्थ को खोल कर रखने से गूढ़ार्थ को स्पष्टतर करने की सुविधा जुटाती है। 
कहीं-कहीं किये गये मिथकीय प्रयोग भी आकर्षक हैं। 
अन्य सामाजिक संदर्भों की कविताएं हों या इतर संदर्भों की उन की पृष्ठ भूमि में उक्त चेतना की उजास सतत बनी रहती है।  गहन भारतीय पारिवेशिक आस्थाशीलता हर कहीं स्पंदित है। युवा कवि सुरेन्द्र भसीन मानव-निर्मित वर्तमान विराट अंधकार के किले में उजाले की, आध्यात्मिक विश्वास के बल पर, सेंध लगाने को तत्पर है ! स्वागत है ! 

                                                         बलदेव वंशी 
                                                    बी-684, सैक्टर 49,
                                               सैनिक कॉलोनी, फरीदाबाद 121001                                                       मो० 09810749703













Sunday, August 23, 2015

दोस्त के लिए


माना कि 
एक दूसरे से 
हम रूबरू मिल नहीं पाते लंबे अर्से तक, ऐ मेरे दोस्त !
मगर अच्छी बात तो यह है कि 
हम तहे दिल से मिलना तो चाहते हैं।
और ये, हमारे बीच की दूरियाँ किसी खटास ने नहीं पैदा कीं,
हमारी मजबूरियों से उपजी हैं।  
आज हालातों के दो विपरीत सिरों पर अटके हम 
बस एक दूसरे को लालसा व चाहत से ही निहार सकते हैं,
और अपने-अपने नौकरियों के खम्भों पर चढ़े हम उतर नहीं पाते हैं। 
अपने स्तम्भों से स्तब्ध हुए हम 
बाल कृष्ण की तरह अपनी मुश्किल की भारी औखली को घसीट कर 
एक दूसरे के समीप नहीं ला पाते हैं। 
इस लिए एक दूसरे से मिल नहीं पाते हैं और 
बैगानो-सा जीवन बिताते हैं। 

अब तो 

व्यवस्था की बेड़ियों से बँधी हमारी इस प्रह्लाद देह को 
मजबूरियों के खम्भो से छुड़ाने के लिए 
आत्मारूपी विष्णु ही लेगा नरसिंह अवतार 
जो सामाजिक नियमों को पूरा करता,
राजद्वार के बीच रखकर 
इनको हिरणक्यश्यप की तरह चीर देगा सरेआम 
और फिर हमारा मिलना होता रहेगा बार-बार। 
















शांति और खुशी

शांति और खुशी 
मांगने भर से आ नहीं जाती, पायी नहीं जाती। 
उसके लिए करने होते हैं जरूरी प्रयास,
भेजने होते हैं अपने भीतर व बाहर चाहत के परवाज़ 
जो, खोजें, पायें और वापिसी में उन्हें अपने भीतर समेट लायें। 

किस्मत अच्छी हो तो ये 
अपने आप भी होता चला जाता है,
मगर बिना इनके समूचा व्यक्तित्व 
पानी में डूबता पत्थर हो जाता है,
जो गलता-घुलता नहीं 
पड़ा रहता है मनोमन पानी के नीचे बदहवास 
शिला हुआ गौतम ऋषि के श्राप में,
अहिल्या जमी हो जैसे किसी राम की आत्मिक पुकार में,
जो उसे देगा फिर से अहिल्या होने, नारी होने का वरदान। 
जिससे समाज पुनः देगा सम्मान। 
याफिर समुद्र-आत्मामंथन से निकलेगी  
शांति व खुशी शांत स्वरूपा
एक अप्सरा के अंदाज में ।   















Friday, August 21, 2015

शून्य एक महाकाल

शून्य, 
एक छोटी-सी जीरो या गोल दायरा जब फैलता है
 तो बड़ा होकर पृथ्वी हो जाता है,
और आगे बढ़कर घेर लेता है समूचे ब्रमांड का आकार। 
जब चाहे बड़ी से बड़ी संख्या बना देता है 
किसी एक को, उसके साथ लगते जाने के बाद
और छोटा होकर दशमलव जब बन लगता है तो 
एक से भी लघुतम कर देता है अपने बाद आने वाले हरेक को। 

यानिकि इसके होने से, अधिक होने से,
छोटा होने से, बड़ा होने से या न होने से 
पूरा-पूरा असर होता है हरेक को। 
यूं तो -शून्य ही काल है व काल ही शून्य है, 
और सब शून्य से ही पैदा हुआ है   
तो अंत में
फिर शून्य में ही खो जाना है प्रत्येक को। 

आस्था का चमत्कार

एक किसान 
शहरी बाबू या व्यापारी से 
कहीं ज्यादा आस्थावान-दयावान होता है
जो प्रकृति  से पाए बीजों को 
एक-एक करके अपने हाथों ही ज़मीन में दबाता है,
उनके सौगुना होकर फिर से उपज आने को,
आशा का, आस्था का चमत्कार फिर से घटित हो जाने को। 
फिर, पहले वह पक्षियों को न्यौतता है, 
फसल पक जाने के बाद । 
प्रकृति भाग घट जाने पर ही 
अपना हक घर ले जाता है पसीने का धोया हुआ,
ईश्वर का दिया वरदान मानकर। 


Wednesday, August 19, 2015

उद्दात्त प्रेम

क्रोध में घृणा नहीं है 
तो उद्दात्त प्रेम ही पलता है अक्सर, 
जो तुम्हारे ऐबों को काटता-छांटता है एक माली बनकर या 
तुम्हारे भीतर की मैल पछाडता है एक धोबी बनकर या 
रंगरेज बनकर खौलते रंगो में उबालता है,
तुम्हें नये आकर्षक रंग देकर सजने-सवरने को, 
तो कभी तुम्हें चमकाने- बनाने के लिये पीटता है,
हथौड़े से एक सुनार या लुहार बनकर। 
वो प्रेम ही उतरता है तुम्हारे जीवन में, 
गुरुनाम बनकर जो उधेड़ता है पीठ तुम्हारी 
तुम्हे किसी लायक बनाने के लिये।  
और ये माँ-बाप का प्रेम ही तो है, 
जो गाल पर पड़ता है थप्पड़ बनकर
दुनिया की सीख समझाने के लिये और  
उनके जीवन के बाद भी काम आने  के लिये। 
अगर इस क्रोध में घृणा देखोगे तो कुछ भी बन नहीं पाओगे,
महज झाडी,मैला-बदरंग कपड़ा, धातु का तुच्छ टुकड़ा या कपूत
बनकर ही रह जाओगे। 












प्रेम का भगवान

 होते हैं कुछ लोग ऐसे 
कि छैनी-हथौड़ा लेकर, 
चाहे कितने भी भारी करो वार 
वे सुघड़ मूरत नहीं बनते, 
सख्त व और कड़े होते जाते हैं 
अपने जमते विरोध में,
तुम्हारे हर वार के साथ-साथ। 
मगर प्यार के बहाव में, 
चूरा और रेतीला होकर तुम्हारे संग सहज बहने लग जाते हैं और 
प्रार्थना करने से, अपनी प्रकृति के विरुद्ध,पानी में तैरकर 
कभी बड़े काम आते हैं प्रेम के लिये रामसेतु बनकर।
वैसे कोई  कितनी भी हठ में हो, अवज्ञा में हो,
प्रेम के झरने, प्यार के झोंको संग 
अपना आकार-प्रकार बदलने ही लग जाता है 
रेतीला और बजरीला होकर,
और जो कठोरता नहीं कर पाती 
प्यार का भाव कर जाता है सहला-सहला कर,
जैसेकि हवा करती है, पानी करता है, कठोर पत्थरों के साथ। 
प्यार से तो पत्थर भी  भगवान हो जाता है 
और जो किसी से, कैसे भी मिला नहीं कभी 
वह पत्थर का बुत तुम्हें दे जाता है 
तुम्हारे प्रेम का भगवान होकर। 



Sunday, August 16, 2015

आईने की सीमा

यों जीवन का हर सवाल 
कभी आईने नहीं सुलझाते। 
क्योंकि प्रश्न दिखाने भर से वह सुलट नहीँ जाते,
अगर आईने ही सब कुछ सुलझाते तो 
आईने ही ईश्वर न हो जाते?
फिर मंदिर-मस्जिद, देवालयों-शिवालयों को 
भला कौन पूछता ?
हर गुनाह हो जाने पर लोग आइनों के आगे खड़े हो जाते। 
दरअसल, आईने तुम्हारे जाने या अनजाने में किया  पाप दिखाता है 
और, मंदिर उसको पोंछने वाला, बख्शवाने वाला जाप बताता है। 
अगर आस्था से, मन वचन से  करोगे जाप,
 तो एक दिन शांत होकर छूट जाओगे,
वरना, वक़्त के पानी में 
लकड़ी की भटकती बैचैन, बैतूल की नांव
बनकर ही रह जाओगे। 














     

Friday, August 14, 2015

मुरलीधर की मुरली का सम्मोहन

इच्छायें और चाहतें 
व्यक्ति के भीतर घुटी-बसी होती हैं,
जिन्हें रंग,संगीत,महक या महौल देकर 
भीतर से उभारा जाता है,
उसकी चाहत बनाकर, भूख बनाकर 
बड़ी ही व्यवसायिक चतुराई से 
और वे छूट पड़ती हैं बाड़े की सांकल खुली गौवों के समान 
अपनी चाहत की घास चरने को,
बिफर कर, बिखर कर, असयंमित्त होकर।  
और ताबड़-तोड़ चरने के बाद 
घंटो तक जुगाली भी करती हैं मस्तिष्क में 
घटनाओं का, पाये तजुर्बों का, भोगे आनंद का रस ले लेकर और 
उनको भरती मन में, नयी चाहतों, इच्छाओं के साथ,
इकट्ठा करती, सहेजती, बढ़ाती, भविष्य के लिये अपनी बेड़ियां बनाती। 
मगर शायद ही कोई आत्मा करती हो 
अपनी मुक्ति का प्रयास, उत्थान का प्रयास 
इस बाहरी आकर्षण से निकलने का
इन्द्रियों को,गौवों को अंदर की ओर फिराने का 
कि इनको भीतर ही घुमा लें, अंदर ही चरा लें
और मुरलीधर की मुरली का सम्मोहन भीतर ही जगा लें।   















Thursday, August 13, 2015

तिजारत

व्यक्ति के व्यतिगत 
इतिहास को जानने से हमें 
यही तो पता लगता है न 
कि वह कहाँ से आया है, किसका जाया (पैदा किया) है,
किस नस्ल व अक्ल का है,
कितना जुझारू व अड़ियल है,
वह किस-किस को हरायेगा और कितना कमायेगा,
समाज व देश को फायदा करता हुआ कहाँ तक आगे जायेगा,
कितना बोझा लादें, कितने का दांव लगायें ?
ऐसा करके हम उसके 
मन का, तन का, मस्तिष्क का, आत्मा का 
आकलन-मूल्यांकन ही तो करते हैं -
एक पारखी एक जौहरी की तरह,
बाजार में बिकती कोई धातु की ठोस वस्तु,
दुधारू गाय या बोझा ढोने वाला गधा मानकर।
जैसे,जिसे तपाकर,गलाकर,कुछ खिलाकर या निवेश कर 
कितना कमायेंगे व  इसके साथ रिश्ते बनाकर हम घाटा तो नहीं खायेंगे।यह पहले से जान लेना जरूरी हो हमारे लिये एक लालची व्यापारी की तरह, उससे संबंध बनाने से पहले।
अब खोटा सिक्का भला कौन संभालता है, 
यह ईश्वर का घर नहीं रहा, बाजारू दुनिया है,
यहाँ कौन किसको पालता है,
और बात को कितना भी छुपा-घुमा लो 
आखिर में तो आदमी को पैसा ही पालता है।  



कर्मों उपासना


जैसे ही 
मैं उठता हूँ सुबह, 
हाथ जोड़कर ईश्वर से लेना चाहता हूँ, 
उसके संकेत, दिशा-निर्देश दिन भर के लिये। 
ताकि मैं कर सकूँ आत्मप्रण  से 
पूरा अनुसरण उनके प्रेषित संकेतों का 
और मेरा दिन,शांति,सफलता,उपकार में बीते,
लगे मेरा कण-कण, श्रण-श्रण उसी की कर्मों उपासना में। 
और यों दिन-दिन करके ही 
जीवन बन जायेगा निर्मल-निष्पाप,
बूंद-बूंद से घड़ा भर जायेगा - 
और इस घट का जल ही कभी भवसागर में मिल जायेगा 
उसी की एक पतली सुनहरी लहर बनकर याकि 
नभ में लहरायेगा, सूर्य में मिल जायेगा 
रोशनी की एक लकीर बनकर।  

Wednesday, August 12, 2015

घटती घटनायें

व्यक्ति के साथ 
घटती घटनायें, 
कहीं बाहर नहीं, उसके भीतर ही बनी,दबी होतीं हैं 
पाप-पुण्य की गहरी-गहन परतों में,
धरती की निचली सतहों में,
सांस लेता मैडक बनकर याकि 
उसी के हाथ की हथेली पर उभरी तिरछी भाग्य की लकीरें बनकर। 
अक्सर हमारी शंकायें ही ले लेती हैं 
होनी-अनहोनी का मूर्त-वास्तविक आकार 
समय की पाबंदियों के बाँध गिराकर,
और सदियों से स्पंदन विहीन हो चुका,सूख चुका 
हमारा अंदरुनी सूक्ष्म सूचना तंत्र उन्हें भांपकर नहीं भेज पाता हमें घटनाओं के पूर्ववर्ती भूकंपी संकेत 
हमारे जीवन में आते किसी भी भूचाल के। 
अपने से बहुत अजनबी,नितांत पराये हो चुके,
नित्य एक मदहोश, ग़ाफ़िल भीड़ की तरह दौर करते हम 
अपने की कर्मों आहटें सुन नहीं पाते,
हतप्रद हो जाते हैं और 
कुछ भी बड़ा घटित होने पर उसे 
वक्त,ईश्वर या भाग्य की मार मानकर संतोष कर जाते हैं। 





Monday, August 10, 2015

प्रकृति प्रेम-मिलन

निशा गुजर जाती है, 
सलमा सितारों टंकी काली रेशमी चादर लिये-लिये
छम-छम करती.... 
और दिवाकर भी बहता जाता है 
रात की चाह में, इंतजार में हमेशा … 
दोनों ही आते-जाते मिलते- देखते समय संधि पर 
एक दूसरे को - प्यास लिये,चाह लिये। 
महीनों रहते एक दूसरे के वियोग में,विछोह में, 
और भारी होता जाता तन-मन। 
महीनों का विछोह-वियोग फिर जब टूटता है 
तो रात चढ़ जाती है दिन के ऊपर पूरे जोश से,
ढक-काला कर लेती है अपने उत्तेजित शरीर से और 
तब रात के जिस्मों गरूर में दिन कहाँ सफेद होता है। 
तब कड़कती है बिजलियाँ,
बरसने लगता है निर्मल जलधार रूपी प्रकृति का प्यार
बहता -उतरता है शिवत्व अपने चमत्कार में, 
और धरती पर हो जाता -
सब नवल-धवल, खिला-धुला, धुला-खिला। 
पनपति वनस्पति भी उसके बाद ही,
और पृथ्वी भी हल्की-ताजी हो,
कुछ अधिक चमकती तेज, फुर्तीली हो,
घूमने लगती है अपनी धुरी पर।       


















ये नराजगियाँ


तुम हमेशा,
चुप-चुप ही रहते हो, 
बहुत पूछने पर ही, 
थोड़ा-सा हाँ.… हूँ में कुछ कहते हो, 
क्या अंदर बहुत बहते हो या 
सदा रिसे नासूर की तरह सिसकते-गलते रहते हो !
किसी को कुछ न कहना,
बार-बार अंदर-अंदर सिसकना,
 रोते रहना अच्छा नहीं होता।
इससे तुम, वापिस न लौटने की हालत तक दूर बहुत दूर निकल जाओगे। 
अपने से बचने की चेष्टा करते, गैरों के होकर रह जाओगे। 
एक बार, सिर्फ एक बार 
आत्मिक शक्ति जुटाकर, बहा दो, अपने वजूद के विरुद्ध  
बहते अपने ही गिले-शिकवे के गंदे नाले को,
जो तुम्हें आज जीवन से भी अहम लगते हैं और 
अपना लो अपने रिश्तोँ को 
जो इस जीवन के बाद भी सदा  चलते हैं। 
समझो कि, रिश्तों में कभी हार-जीत नहीं होती 
सिर्फ बराबरी ही होती है, 
सम्मान ही होता है क्योंकि 
जो मान जाये उसका तो सारा जहान होता है,
और माना हुआ व्यक्ति की सदा महान होता है।  
सोचो उस अनर्थ का जब तुम गैरों के हाथ की पुतली होते हो 
तो क्या तुम अपनी मिट्टी, अपने माहौल, अपनी फ़िज़ा और जुबान पर बसे स्वाद को कभी भूल पाते हो ?
ऐसा नहीं होता मेरे दोस्त,
सौ-सौ साल हमवतनों से, वतन से, जलावतन रहने वालों को भी 
उनके आख़िरी समय में 
ये मिट्टी ही है, जो वतन खींच लाती है 
और यहीं की मिट्टी में दबकर ही 
उनकी आत्मा सकून व चैन पाती है। 
























Sunday, August 9, 2015

नजरिया

नजरिये का हिसाब है 
जिससे कुछ के लिये 
दो रातों के बीच में एक दिन आता है। 
और नजरिये का ही हिसाब है जिनके लिये 
दो दिनों में आती है सिर्फ एक रात। 
वैसे तो, जो जिससे 
अधिक सहमता है, भय खाता है,
उसके लिये वही अधिक, बेहिसाब हो जाता है। 
असल में तो,
एक दिन के पीछे आती एक ही रात है। 
सच तो ये भी है कि 
जीवन में, खुशियों-गमों का भी यही हिसाब है,
जो गमों से भय खाता है,गम भी उसे अधिक सताता है। 
नजरिया साध कर 
गमों में मुस्कुराने का उपाय कर लो तो 
खुशियों के बाद और खुशियाँ बेहिसाब हैं वरना 
गम के बाद गम भी गम  ही आता जाता है।    









भय के पार

वो काली छायायें, 
जिनके भय से, 
मैं आँखे भी बंद नहीं कर पाता हूँ, कई-कई रात। 
अब आँखों के काले घेरे बन- बनकर 
मेरे चेहरे पर ही छाने लगी हैं,
और उनके भय से मैं कितनी रात सोया नहीं हूँ ,
दुनिया को सरे आम ये बताने लगी हैं। 
ये भयानक बेरूप उड़ती छायायें, 
अब मेरे लिये दुःस्वप्न नहीं रहीं, 
सचमुच बन भटकती हैं मेरे इर्द-गिर्द और कभी, 
बेखौफ ईशारों से मुझे अपनी ओर बुलाती हैं, और 
कभी मुझे स्तंभित करते हुये,
मेरे में से होकर दूसरे पार निकल जाती हुइं 
मुझमें अपने जैसा होने का विश्वास फैलाती हैं। 
लगता है, वे मुझसे पहले 
मेरे हौंसले पस्त करेंगी फिर 
मेरे दिमाग को ध्वस्त करेंगी,
फिर बचा-खुचा तो ढह जायेगा 
अपने-आप ही भारी-बोझिल  होकर 
वजूद मेरा। 
और क्या मै देखता रहूँगा, 
ये सब कुछ अपने में, अपने आप होकर,
अपने साथ बीतते हुये। 
क्या न करूँगा विरोध ,उपाय इसका।  
नहीं उतारूँगा अपने भीतर 
रोशनी और विश्वास के भीमकाय बगौले। 
जो इनको देखते ही 
उनपर जा पड़ें, उन्हें जला दें। 
जो मेरे चेहरे की मुर्दनी हटा दें और 
मुझे एक भयमुक्त चैन की नींद दिला दें। 















काले अनुभव

गिरते,बढ़ते,बहते  
ऐसे स्थानों, विचारोँ,कंदराओं में मैं पहुँचने लगा हूँ 
जहाँ मानवीय दखल वर्जित-सा लगता है,
इसलिये अनजाने भय से भरता ही जाता हूँ तभी 
हर बार काँप-काँप के अवरुद्ध होती साँसे 
संभालता ही बाहर लौट के आता हूँ। 
और भीतर फिर न जाने की,
इस रास्ते पर न आने की कसम खाता हूँ। 
पर फिर न जाने क्यों? कब? कैसे?
किन अनजान रास्तों से गुजरकर
अपने को वहीं खड़ा पाता हूँ। 
वही अनुभव मुझे झिंझोड़ते हैं,
 जिनसे मै सदा खौफ खाता हूँ क्योंकि 
इतना बड़ा होकर भी उनके आगे
 अबोध बच्चे-सा निसहाय हो जाता हूँ।  

उम्मीद व इंतजार

उम्मीद व इंतजार - 
दोनों में ही ख़ाली हाथ बहता है व्यक्ति 
यथार्थ के बहाव में 
कुछ पाने की आशा में, चाह में,
अपनी स्थितियों से उबर जाने को,
अनिश्चय के काले कुयें से बाहर निकल आने को। 
मगर गुजरता, लगता समय व भाग्य 
उसे कहता है रुकने को, ठिठकने को, 
सय्यम में तनिक ठहर जाने को  
व्यक्ति की गति को साध कर,
प्रकृति की गति में मिल जाने को 
यक्सार हो जाने को। 

Saturday, August 8, 2015

ईश्वर की प्रकृति

ये पल-पल बदलते मौसम,
ये होते दिन-रात,
ये निकलती धूप, ये बहती हवा,
ये घुमड़-घुमड़ कर बरसते बादल 
और ये वनस्पति पनपती धरा पर
ये हमें पालने-पोसने के
सारे प्रयास ही हैं जो प्रकृति करती है ईश्वर के इशारों पर।  
हमें नहलाने, हमें सुखाने,
हमें जगाने, हमें खिलाने-पिलाने 
और हमें वक्त पर रात करके, अंधेरा करके 
सुलाने या उजाला कर जगाने के लिये पल-पल प्रकृति सदा ही है 
हमारे साथ एक फिक्रमयी माँ की तरह।  
ये धूप,ये हवा, ये आग या पानी बरसाते बादल 
नहीं घूमते-फिरते इधर-उधर लापरवाह मनमौजी होकर,
ये सब नपा-तुला ही करते व्यवहार एक-दूसरे से बंधे-बंधे। 
सभी हमारे लिये ही करते हैं मशक्क़त,
आयोजित कदमताल ईश्वर के इशारों पर 
सदा हमें पालने के लिये, संभालने के लिये और 
 एक ऋद्धम्, एक सरगम एक जीवन ही जन्मता है धरती पर इनके आशीर्वाद की तरह धरा पर बरसने के बाद। 













Thursday, August 6, 2015

सुविधायें और संबंध

हाहाकार करते महासमुद्र से 
उफनती लहरों के बीच...... 
आग उगलते दावनलों के 
मुहानों से .... 
या फिर मृत्यु शय्या पर 
अंतिम सांस गिनते-गिनते 
जब सब कुछ रेत-सा छूटा जाता हो हाथों से 
तब भी व्यक्ति को उसके निभाये 
संबंध ही बचा कर लौटा लाते हैं। 
वही हैं, जो ईश्वर की मर्जी के आगे
उसके लिये प्रार्थना बनकर खड़े हो जाते हैं। 
और ये निभाये गये संबंध ही होते ही जिनके सदके
कुछ लोग वर्षों पूजे जाते हैं यहाँ से गुजर जाने के बाद। 
मगर सुविधायें? इनका भला क्या - 
ये सुविधायें ही संबंध बनाती हैं
और न चाहते हुये भी कभी 
संबंध ही सुविधा बन जाते हैं वक्त बदल जाने के बाद। 
ये सुविधायें और संबंध ही व्यक्ति को घेरे रह्तें हैं जीवन भर 
कभी ताकतवर व कभी कमजोर बनाते, 
और कभी उसे बदनामी-गुमनामी की गर्त में डुबाते,
कभी उसे नजरों में ऊँचा उठाते और कभी नीचा गिराते सम्बन्ध बिगड़ जाने के बाद। 





गवाह इतिहास


इतिहास के पन्नों में 
कभी भी साफ और स्पष्ट कुछ भी लिखा नहीं होता। 
तारीखों,क्रांतियों, सत्ताओं 
के बदलते घटनाक्रम दर्ज कर लेने से 
मानव के मानसिक तनाव या आंतरिक दबाव का गवाह इतिहास नहीं होता। 
कितनी मांओं ने अपने लाल खोये,
कितनों ने यातना के पहाड़ ढोये,
कितनों की अस्मत लुटी,
कितनों के अरमान आँसू बनकर रोये,
जब तक इन व्यत्तिगत बातों का हिसाब व सफा इसमें नहीं होता।
तब तक तारीखों,घटनाओं,नामों की फहरिस्त ही है ये किताब,
जब तक इंसानियत व बर्बरता का इसमें हिसाब जमा नहीं होता।
इसको छपवाने,पढ़ने,व अपने बच्चों को रटवाने से
कुछ भी सबब हासिल नहीं होगा,
जब तक कि इससे नसीहत लेकर
आने वाले समाज का भला नहीं होता।  

Tuesday, August 4, 2015

मन-मुटाव का मिटाव

सारे ही वैमनस्य 
बह जाते हैं समय की जलधार में 
और संबंध फिर से चमकने लगते हैं,
चमकीले स्टील के मांजे हुये बर्तनों से,
जो अपनी चमक खो चुके थे, 
व्यवहार में आकर,मैले-जूठे होकर।
व्यवहार की जूठन जो लिपट गयी थी 
इन बर्तनों पर इनके बार-बार इस्तेमाल के बाद,
ह्रदय को अच्छे से वक़्त के पानी में धोने-खंगालने से ही छूटती है,
और लंबे समय से आयी संबंधों में
दो तरफा चुप्पी मिल-बैठने से ही टूटती है।   
गर्त,राख या जूठन 
असल में तो वक़्त का पानी ही छुटाता है,
मगर,बुजुर्गों की सीख का झूना(झाबा) भी 
इसमें बहुत काम आता है। 
जो दिलों को रगड़ता-मलता है सीख की सख्ती से,
उसकी पुरानी से पुरानी कालक/मैल हटाता है और 
बर्तनों को इस कदर चमकाता है कि 
बर्तन हो कि संबंध ताजा होकर पुन काम में आ जाता है। 
















मौन का कहर

मौन रह जाने से 
तुम्हारी जबरन स्वीकृति जाहिर 
हो जाती है मौजूदा विषय पर।   
और चलता हुआ वर्तमान ही 
तुम्हारे गले में लटक जाता है, 
यथार्थ का विषैला साँप बनकर। 
जिसे स्वीकार तुमने किया नहीं 
और न कर नहीं सके मजबूरीवश। 
अब यही विषैला साँप 
घोंटेगा तुम्हारा गला इस कदर 
कि चाहते हुये भी हाँ..न नहीं कह पाओगे 
सिर्फ गों...गों की फंसी-फंसी 
आवाज ही करते रह जाओगे तुम जीवन भर।   
मगर कैसे ?
जिसे तुमने अपनी वर्तमान मजबूरियों व खामोशियों 
से स्वीकारा है मौन रहकर। 
उसे अपने जीवन के किस कोष्ठक या 
अलमारी में सजाओगे ?
या फिर, नाजायज औलाद की तरह 
अपने व अपने समाज से छिपाओगे ?
या फिर, घर भर को परेशान करते,
बू मरते, पिंजरे में पकड़ लिये गये चूहे की तरह 
अपने  जीवन से दूर कहीं दूर छोड़ आओगे ?












Monday, August 3, 2015

चाँद की चिंता

एक रात 
मैं घर से निकला तो 
चाँद आकाश पर नहीं था।  
बाजार पहुँचा तो वहाँ 
चौराहे पर चाँद गिरा पड़ा था औन्धे मुँह 
और लोग बेफ़िक्र..... 
किसी को उसकी परवाह ही नहीं थी। 
मैं चाँद को उठाकर घर ले आया,
फिर झाड़-पोंछकर 
बड़े यत्न,पूजा,प्रयासों से 
उसे आकाश में पहुँचाया। 
अब जब भी रात मैं घर से निकलता हूँ,
और किसी को दिखे न दिखे 
चाँद मुझे जरूर दिखता है,
मेरे घर से बाजार और बाजार से घर तक का
सफर वह मेरे साथ ही करता है,  
मुझे देखकर सदा हँसता है और 
शायद यही मेरा और 
चाँद का रिश्ता है। 

पीड़ायें कैसी-कैसी


पीड़ायें भी तो 
तरह-तरह से सताती हैं हमें। 
दैहिक पीड़ा से बड़ी होती है -
मानसिक पीड़ा। 
और फिर आती है आत्मिक पीड़ा। 
मगर इन सब से भी अधिक हमें वो 
सताती है जो हमारे भीतर नहीं 
हमारी ओर आती नजर आती है हमें,
हवाओं में दर्द का गुप्त अहसास बनकर।
तब हम समझते हैं कि
पीड़ा से पीड़ा का अहसास बड़ा होता है क्योंकि  
वह न होते हुये भी घेरती है हमें  
हमारे पापों का अदृश्य परिणाम बनकर। 
वह सुखाती-निचोड़ती है हमारे जीवन रस को भीतर से 
और धकेलती है हमें हमारे दुखांत की ओर 
व हमारे जीवन को नासूर बना जाती हैं। 









नकारत्मकता का बोझ

हृदय पर
नकारत्मकता का बोझ बढ़ते ही,
शरीर भी थका-थका, बोझिल-बोझिल हो जाता है,
फिर चाहे 
दो उसे घंटो आराम, रखो निष्काम, मगर
स्फूर्ति का अहसास उसमें जग नहीं पाता है,
जब तक कि ह्रदय पर रखा बोझ उतर नहीं जाता है। 
गीले काले कंबल-सी नकारत्मकता से, उदासी से, 
थक, उचाट, भारी हो चुका शरीर 
हाथी-सा ऐसे एक जगह पड़ जाता है कि भीतर के सभी प्रयासों को असफल करता लाख उठाने पर भी नहीं उठ पाता है। 
आशा की, उम्मीद की किरण या 
समय का महावत ही अब समझा-उठा पायेगा इसको -
कि उठो ! बढ़ो आगे !
ठहरने से नहीं
जीवन में गति करने से ही 
ह्रदय से नकारत्मकता का पहाड़ टूट जाता है। 

अनिर्णय का भय

अनिर्णय की अवस्था ही 
जन्मती है अगर-मगर की अनजानी डगर को, 
जो होती है
काली,अंधेरी, अंतहीन।
जिस पर चल तो पड़ता है हर कोई 
उसे सरल मानकर, अपनी राह चुनकर।
पर मंजिल तक तो वो ही पहुँच पाता है 
जो इस, 
अगर-मगर की डगर को लाँघ-निपटाकर, 
निर्णय के गंतव्य तक पहुँच पाता है
वरना बाकियों को तो उसका तारकोल की लिपट जाता है। 
जो छुटाते नहीं छूटता, 
और मुश्किल कर देता है जीवन राह को। 
हर चौराहे पर प्रशन और बड़े होकर 
लेते है जाते हैं - वृहद-दैत्याकार रूप 
भींचते कलेजे को मुट्ठी में, दलते देह को 
करते कदम-कदम पर निर्णय की माँग,
ओर-ओर कठोर, निर्मोही होकर। 














काबलियत


जैसे हर तारा
एक-सा नहीं दमकता आकाश में,
हर फल एक-सा सुगठित नहीं होता,
हर फूल एक-सा सुंदर-खूबसूरत नहीं होता,
हर रचना भी महान नहीं हो सकती और 
हर नवजात एक-सी काबलियत लेकर नहीं पैदा होता
वैसे ही हरेक की तरह तुम्हें भी जन्मा है,भेजा है 
कुछ निष्चित विशेषताओं को लिये हुये ईश्वर ने इस संसार में
और समझो कि
महान आदमी के कोई सींग या पंख नहीं होते उघड़े हुये
मगर अंतर्रात्मा से 
वे एक खिले रूप होते हैं परिपक्व फूल की तरह,
आकाश में होते हैं पूरे अहसास की तरह,
फल होते हैं जीवन रस से लबालब और लबरेज,
और धरती पर पैदा होते-उतरते हैं 
एक धन्यवाद रूपी, प्रेम-प्रार्थना की तरह। 

Sunday, August 2, 2015

पेड़ का महत्व

हवा फुसफुसाती 
पेड़ के कानों में कुछ,
पेड़, हँसने-झूमने लग जाते हैं मस्ती में 
अपनी जिज्ञासा में जलता-सोचता मैं..... 
हवा से पेड़ का जो नाता है,
हमसे क्यों नहीं बन पाता है ?
क्योंकि इन्सान दूषित करता हवा को 
पेड़ प्रदूषण मिटाता है इसलिये 
इन्सान से ज्यादा 
पेड़ महत्व का हो जाता है। 

पागल कहलाने से पहले


अपनी सनक को,  
अपने विचलित-विचारों को 
अपने ही भीतर सिमित-समाहित रखो 
वरना लोग तुम्हें रुग्ण कहेंगे,पागल दे देंगे करार, 
और तब तक तुम्हारा इलाज करायेंगे 
जब तक कि उन्हीं की तरह स्पष्ट दायरानुमा,
परंपरागत,सामाजिक परिपाटी वाला सोचने न लगो 
और उनकी बाँधी सीमाओं को न करने लगो स्वीकार। 
अच्छी तरह मास्टरों,नेताओं व धर्मात्माओं से ठोक-पीटकर
बनाये गये तुम जैसे सामाजिक पुर्जों में खम व गम आ जाने पर 
पहले वह उसका इलाज कराते हैं,
फिर पड़ा रहने देते हैं एक तरफ यार्ड में,
कबाड़ में या पागलों के अस्पताल में निष्काम सालों-साल 
फिर भेज देते हैं रिश्तेदारों में सामाजिक रहमों कर्म पर 
समय के निर्मम हाथों में धीरे-धीरे जिबहा होने के लिये।  
तुम अपने साथ ऐसा निष्ठुर व्यवहार तो नहीं चाहते होंगे न। 
तो भीतर ही पूरी तरह पकाओ-पनपाओ अपने विचारों को 
फिर उन्हें व्यवस्थित रूप देकर सहनीय-सराहनीय बनाकर 
धीरे-धीरे वक्तनुसार ही लोगों को बताओ,
तभी होंगे वे स्वीकार।
वरना,तुम और तुम्हारे विचार 
चाहे कितने उपयोगी व कीमती हों तुम्हारी नजर में,
तुम रहो पागल कहलाने के लिये तैयार।