स्ंात तिरुवल्लुवर
” उदवि वरैŸान्रु उदवि, उदवि
सेयाप्पट्टार साल्विन वरैŸाु।“
यह तमिल कुरल संत तिरुवल्लुवर ने 125 से 150 ई0 वर्ष पूर्व रचा था तो तब से आज तक इसका उपयुक्त भावार्थ तक कोई नहीं कर सका है फिर भी गुजारे लायक भावार्थ सम्त्राट कम्बर ने लगभग् नवीं शताब्दी में अपनी रामायण में राजा बलि की दान की महिमा को लक्ष्मण को बताने के लिए कुछ इस प्रकार किया-
“ पूर्व उपकार को ध्यान में रखकर जो उपकार किया जाता है,
वह पूर्व उपकार को र्निधारित नहीं करेगा।
परंतु वह
पूर्व उपकार करनेवाले की हैसियत को ही प्रकट करेगा।।“
देखा, अभी भी कुरल का भावार्थ डगमगा गया, पूरा नहीं उतरा। तमिल भाषी तो कुरल का मतलब समझते ही हैं मगर दूसरे भाषा भाषी पाठकों को विदित हो कि कुरल तमिल कविता में दो पंक्तियों एक दोहा छंद है, जिसका शब्दिक अर्थ भी है अति ‘संक्षिप्त‘। तिरुवल्लुवर के एक ग्रंथ “ तिरुक्कुरल “ में 1330 कुरल थे जिनसे 133 अध्याय बने थे। संत तिरुवल्लवर 125 से 150 ई0 वर्ष पूर्व मदुरै के राजा उग्रवेलवलुदियार के समकालीन थे। उनके पिता का नाम “भगवन“ तथा माता का नाम “आदि”था मगर उनका पालन-पोषण मलियापुर के एक किसान ने किया। उनकी पत्नि अति साध्वी एवं पतिव्रता थी। तिरुवल्लवर मैलापुर नगर(मयुरों का शहर) में निवास करते रहे जो कि वर्तमान के मद्रास नगर का ही एक भाग था और वहीं तिरुवल्लवर का एक मंदिर आज भी स्थापित है। अगर आज भी उधर कभी जायंे तो उधर नारियल के पŸो ढ़के छत वाले घर हैं यानि कल्पना में लें तो इससे भी घना गहरा वातावरण तब भी वहाँ रहा होगा क्योंकि यह सारा ईलाका समुद्र के बेहद करीब है। तिरुवल्लुवर बचपन से मिलनसार, सहृदय व हंसमुख प्रकृति के व्यक्ति थे। उनमें यात्रियों के प्रति, आगुन्तकों के प्रति, मित्रों के प्रति मैत्री भाव भी अपार था।
साधू-संतों का आतिथ्य भी वह अपनी शारीरिक क्षमता से भी बाहर जाकर कर आत्मा तक से कर दिया करते थे। इसलिए अतिथि के बिछुड़ने का योग उनके लिए अत्यन्त असहनीय था। मित्र विछोह से क्लांत होकर उन्होंने एक अनूठी कामना भरा कुरल लिखा, जिसके भावार्थ कुछ इस प्रकार से हैं-
”मूर्खों की मित्रता अत्यन्त सुखदायक है
क्योंकि उनके विछोह में वेदना कदापि नहीं होती।“
तिरुवल्लुवर ही एक ऐसे संत हुए हैं जिनका मंदिर भी स्थापित हुआ मगर उन्होंने कभी भी अपने जीवन भर में धर्म, ईश्वर, परमात्मा, सगुण-निर्गुण उपासना या पूजा, साधना या पूजा पद्धति के बारे में, पक्ष में या कि विरोध में अपने कुरल में कभी कुछ नहीं कहा, न ही कोई शिक्षा या प्रवचन दिया। है न आश्चर्य, कमाल का अनूठा संत। इनका सारा काम, सारा जीवन, सारा ज्ञान, सारा काव्य याकि समाज को इनकी देन सब प्रेम, आपसी स्नेह, भाई-चारे निबाहे जाने वाले संबंधों, हंसी-मजाक, व्यक्ति के आचरण आदि को लेकर ही थे। वैसे तो उनकी शिक्षाओं के बारे में सूत्र रुप में कुछ कहना अत्यन्त कठिन है मगर फिर भी हम कह सकते हैं कि वह बिना परमात्मा को बीच में लाए हुए व्यक्ति और समाज को एक दूसरे के प्रति व्यवहार व जीना सिखाते थे। तिरुवल्लुवरजी ने जीवन के उन भावों को महŸव दिया, उन पर अपने विचार व कुरल लिखे जो व्यक्ति के लिए निजीरुप में तो महŸवपूर्ण हैं मगर सामाजिक जीवन में इनको न कोई अत्यन्त महŸवपूर्ण ही मानता है, न इनपर लिखता व चर्चा करता है मगर इसी से ही समाज की महŸवपूर्ण ईकाई स्वस्थ व्यक्ति का निर्माण होता है। अच्छे चारित्रिक गुणों की शिक्षा देने वाले कुरल लिखने वाले तिरुवल्लुवर में भी ऐसे अनेक गुण थे जिनकी छाप उनके बारे में प्रचलित अनेक शिक्षाप्रद कहानियों में तो मिलती ही है इसके अतिरिक्त उनके मन के भावों को प्रतिपादित करने वाले अनेक कुरल भी हैं। यहाँ हम उनके भावार्थ ही दे रहे हैं-
“मीठे वचन जो बोलते में समर्थ हैं
वे अप्रिय कठोर वचन क्यों बोलें ?
यह काम ऐसा है जैसे कि
मीठे फल मिलने की ऋतु में
कच्चे फल खाने को ंिमलें।”
दूसरों के साथ जो मिल जुल कर नहीं रह सकते उनके लिए-
“यह बड़ा विश्व, दिन में भी
रात के सदृश अंधकार दिखेगा।”
परोपकार व दया के सन्दर्भ में उन्होंने लिखा-
“र्निदयी धनवान अपनी संपŸिा को
छिपाकर रखते हैं
शायद वे दान के आनंद को नहीं जानते।” तथा
“वैभवरहित व्यक्ति एक न एक दिन
बन सकता है वैभवशाली।
लेकिन जिनके हृदय में दया नहीं
उनका उद्धार हो सकता कभी नहीं।”
कुसंगति से बचने के महŸव या आवश्यकता पर-
”पानी मिट्टी के गुण को प्रकट करता है
जमीन पर बहता है और फिर उसी के समान हो जाता है।
उसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि भी संगति के अनुरुप बदल जाती है।“ तथा
” मनुष्य की बुद्धि उसके मस्तिष्क के अनुसार होती है,
परंतु चरित्र का निर्माण संगति से ही होता है।“
तिरुवललुवर अत्यन्त भावुक ईंसान थे मित्रता के निर्वाह में भी वह पीछे नहीे हटते थे। क्षमा करना, उपकार करना व भूल जाना उनके गुणों में था। भाषा व विचार संप्रेषण पर उनकी पकड़ ऐसी थी कि अपने अनुभवों को सटीकता से शब्दों मे भर देते थे। एक ही पंक्ति भर में अनुभवों का अथाह भंड़ार व्यक्त क रवह मानों गागर में सागर भर देने में कामयाब हो जाते थे। उनका एक कुरल इस प्रकार का भावार्थ लिए है-
”अन्न, वस्त्र आदि सब के लिए बराबर हैं।
संकोची होना ही सज्जन को शोभा देता है।।“
तिरुवल्लुवर अपशब्दों का प्रयोग बुरा मानते थे वह कहते थे शब्दों की गरिमा व सम्मान करते हुए सदा सार्थक शब्दों का प्रयोग ही होना चाहिए ऐसा भावार्थ लिए हुए उनका कुरल है-” सुननेवालों की क्षमता को ध्यान में रख
शब्दों का प्रयोग करो। अन्यथा
धर्म अर्थ का कोई मूल्य नहीं।“ तथा
” जो बौद्धिक स्तर पर तुम्हारे बराबर नहीं हैं
उनके समक्ष वार्तालाप करना
गंदे आंगन में अमृत बहाने के बराबर है।“
प्रेम, स्त्री-पुरुष प्रेम के सभी रंगों की वर्षा की गई है। दैहिक-प्रेम, भावनात्मक-प्रेम, अलौकिक प्रेम यानि सभी पर बड़े सुंदर कुरल रचे गये हैं। स्त्री-पुरुष प्रेम में वह दोनों को बराबर आवश्यकता वाला समझकर व्यवहार करते हैं। प्रेम महज अंत में परिणाम के स्तर पर ही सुंदर एवं सुखदायक नहीं होता उसकी यात्रा भी आनंद से, अनुभव से भरी होती है-
“सुमन से मृदुतर है काम,
कुछ ही लोगों को प्राप्त है
उसका शुभ परिणाम।।“
काम के बारे में, पे्रम के बारे में, अपने प्रिय के बारे में जितना अधिक जानें व कहें उतना ही कम जानकारी लेने व देने का अहसास होता है। तथा एक प्रेमी जोड़ा चाहे किसी योनि का हो,जाति का हो, प्रेम की उन्मादावस्था में मिलन की, आलिगंन की अवस्था में रहना चाहते हैं, अलौकिक याकि चरमोत्कर्ष स्तर का इन्द्रिय सुख पाते हैं-
“देखना, स्पर्श करना, सूंघना, सुनना, अनुभव करना,
पंचेन्द्रियों का सुख
नायिका से पूर्णरुप से मिल जाता है।“
विरह, वियोग भी प्रेम का एक आवश्यक पड़ाव या तत्व है जिस मोड़ के बिना प्रेम वीथियों में धूमा ही नहीं जा सकता। तिरुवल्लुवर जी ने उस पर भी अपनी कलम चलाई है और अनेक कुरल लिखे हैं-
“अगर वह मुझसे बिछुड़कर नहीं जाते
ते यह समाचार मुझको बताओ।
प्रियतम के वापस आने के आश्वासन पर
जो जीते रहते हैं, उनसे कहो।।“ तथा
“आग तो छूने पर ही जला सकती है
किन्तु काम ज्वर तो बिछुड़ने पर जलाता है।।“ तथा
“यदि आँख ना ही खुले तो अच्छा है।
मेरे प्रियतम, जो स्वप्न में आते हैं मुझसे कभी नहीं बिछुड़ेगें।”
तिरुवल्लुवर जी ने परिहास, दुख, रुदन व जीवन के सभी पक्षों पर कुरल लिखे, सभी को यहाँ सम्मिलित करना तो संभव नहीं है मगर बानगी के तौर पर निम्न का स्वादन या रस हम ले सकते हैं-
ईश्यालु व्यक्ति की समृद्धि
और धर्मनिष्ठ व्यक्ति की निर्धनता
दोनो ही विचारणीय विषय हैं। तथा
सज्जनों की सभा में मूर्ख का प्रवेश करना इस प्रकार है
जैसे साफ-सुथरी शय्या पर बिना धोये पैर रखना। तथा
जैसे किसान खेत को निराता है
वैसे राजा दुष्टों को मृत्यु दंड देता है। तथा
पानी में तैरने वाला फूल,
पानी की ऊँचाई जितना ही ऊपर ऊँचा होगा
उसी प्रकार मनुष्य की महानता
मन जितना ऊँचा होगा उतनी ऊँ़ची होगी।
और न जाने अनुभव के पगे कितने कुरल हैं जो समाज को सही व्यवहार, सही राह दिखा रहे हैं। तिरुवल्लुवर, ज्ञान के दृश्य माध्यम से श्रवण माध्यम को अधिक महŸव देते थे यानि पढ़ने की अपेक्षा सुन अधिक लोग पाते हैं यानि श्रवण माध्यम से या बोलकर अधिक ज्ञान प्रसारित किया जा सकता है। ऐसा उनका एक कुरल भी है-
श्रवणों द्वारा अर्जित संपŸिा ही श्र्रेष्ठ निधि है
वह अन्य सभी संपŸिायों में से श्र्रेष्ठ है।
तभी उन्होंने कुरल लिखकर ही अपनी संपŸिा को सभी में बांटते हुए बढ़ाया। तिरुवल्लवर के कुरल, शिक्षा हैं, उपदेश हैं, समाज को, प्रयास हैं व्यक्ति व समाज को सरल व उत्थानमेय बनाने की जहाँ सभी प्रेम से प्रगति करें। अभी तक के भारतीय साहित्य में ऐसा कोई ग्रंथ नहीं है जो तिरुक्कुरल ग्रंथ की समानता कर पाया हो। कहीं यह भी माना गया है कि ग्रीक कोरसों में जिज्ञासुओं को शांति प्रदान करने की सामथ्र्य नहीं है किंतु तमिल साहित्य के उक्त तिरुक्कुरल में वह शक्ति निहित है।
फूल मालायें, सम्मतियाँ, प्रशंसायें सब कुछ अद्भुत व अथाह बटोरा है इस ग्रंथकार, कवि, संत तिरुवल्लुवर ने। हम भी इनके बारे में क्या कुछ कहें व क्या कुछ छोड़ें वास्तव में तो सात्विक रंग का, सुंगध का महक भरा संदूक है जो भीतर जाकर हृदय में उल्ट जाता है।
क्वि अव्वैयार ने ठीक ही लिखा है कि-
”आध्यात्मिक सत्य का दीपक
सतत् तेजोमय प्रदीप्त़़‐‐‐‐‐‐‐
जिस तरह वह आज तक जलता रहा है
आज भी विदीर्ण करे
समस्त मानवों के हृदय का अंधकार।।”
और यही कामना हमारी भी है।