ऊपर से
नीचे की ओर ही
उतरता है अँधेरा सदा
और जल्दी ही काली निराशा से ढक देता है सब कुछ।
और ऊपर से ही
उगता है कोई सूरज आशा भरा
जो सारी कालिमा को समेट-मेट देता है।
यों ये, सिलसिला जारी रहता है तब तक
जब तक कि अँधेरा
हमारे भीतर ह्रदय में नहीं पसर जाता है,
आत्मा में नहीं उतर जाता है
हमारी पहचान बन।
तब रोशनी का सूर्य
उसे हटा नहीं सकता हमारी आत्मा से।
तब कोई संत ही अपने संदेशों से,
परोपकार, सय्यम, ईश्वरनाम का जब
अभ्यास कराता है।
तभी, और केवल तभी
भीतर तक पैठा निराशा का अँधेरा छंट पाता है।
और मानव उल्लास भरा नवजीवन पाता है।
नीचे की ओर ही
उतरता है अँधेरा सदा
और जल्दी ही काली निराशा से ढक देता है सब कुछ।
और ऊपर से ही
उगता है कोई सूरज आशा भरा
जो सारी कालिमा को समेट-मेट देता है।
यों ये, सिलसिला जारी रहता है तब तक
जब तक कि अँधेरा
हमारे भीतर ह्रदय में नहीं पसर जाता है,
आत्मा में नहीं उतर जाता है
हमारी पहचान बन।
तब रोशनी का सूर्य
उसे हटा नहीं सकता हमारी आत्मा से।
तब कोई संत ही अपने संदेशों से,
परोपकार, सय्यम, ईश्वरनाम का जब
अभ्यास कराता है।
तभी, और केवल तभी
भीतर तक पैठा निराशा का अँधेरा छंट पाता है।
और मानव उल्लास भरा नवजीवन पाता है।
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