Monday, December 21, 2015

रहस्य कुछ भी नहीं होता

कुछ नहीं है कहीं  भी रहस्य
बस एक झीनी पर्दगी है अज्ञात की 
समय आने पर 
प्रकृति स्वयं उघाड़ती है 
स्वयं को..... 
सूर्य भी एक जीवंत पिंड है 
धड़कनों-बंधा 
आग-लपटें-तपन /उसके 
श्रंगार हैं। 
प्रकाश-अंधकार 
हमारे अलंकार हैं धरती पर घूमते 
आईने-अक्स.....
इन्हीं में बनते-मिटते सब स्वप्न 
हमारी नींदें-स्मृतियां 
रोदन-उल्लास-हंसियां 
ऋतुएं-उनके आवर्तन 
फल-फूल-रंगतें.... 
ये कहां थे पहले 
जब नहीं थे -
तब केवल महीन पर्दा था 
अब, नहीं है कहीं। 
रहस्य भी यथार्थ है, अब 
क्योंकि हमें ज्ञात है। 
हम से बाहर 
बड़ा नहीं है 
हम जैसा है 
जहां है ऋतुओं-अश्रुओं डूबा 
उल्लासों महका 
जिज्ञासाओं चहका रहस्य 
कहीं कुछ नहीं है। 
धरती पर, सब कुछ /यहीं है। 
          ----------         baldev vanshi














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