Tuesday, December 29, 2015

सृजन

यूँ दोनों हाथों के 
नमन में जुड़ते ही 
आकाश से कहीं ईश्वर 
फड़फड़ाती नन्हीं चिड़िया-सी कविता देता है,
मगर देता है उन्हें जिनके मन में खुला आकाश होता है,
कोई जाल या पिंजरा नहीं होता। 

उछलती-चहकती चिड़िया 
कभी कंधे पर,
कभी सिर पर,
कभी साईकिल की घंटी कुछ देर ठहरती है अपनी ही मौज में।  

कौन बता सकता है कि 
ये चिड़िया कब आयी ? 
कहां से आयी ?
कब तक रुकेगी ? 
अधिक क्यों न रुकेगी ?
और फिर क्यों उड़ कर हो जायेगी ओझल
हमारी आँखों से दूर  इस सुरमई आकाश में..... 

पर लोग तो कहेंगे 
ये कविता मैंने बनाई है ,
ये चिड़िया मैंने उड़ाई है   
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कवि कुलदीप जी,
नमस्कार,
कल जो आपने प्रश्न रखा था उसके उत्तर में कविता लिखी है-

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