यूँ दोनों हाथों के
नमन में जुड़ते ही
आकाश से कहीं ईश्वर
फड़फड़ाती नन्हीं चिड़िया-सी कविता देता है,
मगर देता है उन्हें जिनके मन में खुला आकाश होता है,
कोई जाल या पिंजरा नहीं होता।
उछलती-चहकती चिड़िया
कभी कंधे पर,
कभी सिर पर,
कभी साईकिल की घंटी कुछ देर ठहरती है अपनी ही मौज में।
कौन बता सकता है कि
ये चिड़िया कब आयी ?
कहां से आयी ?
कब तक रुकेगी ?
अधिक क्यों न रुकेगी ?
और फिर क्यों उड़ कर हो जायेगी ओझल
हमारी आँखों से दूर इस सुरमई आकाश में.....
पर लोग तो कहेंगे
ये कविता मैंने बनाई है ,
ये चिड़िया मैंने उड़ाई है।
---------
कवि कुलदीप जी,
नमस्कार,
कल जो आपने प्रश्न रखा था उसके उत्तर में कविता लिखी है-
कौन बता सकता है कि
ये चिड़िया कब आयी ?
कहां से आयी ?
कब तक रुकेगी ?
अधिक क्यों न रुकेगी ?
और फिर क्यों उड़ कर हो जायेगी ओझल
हमारी आँखों से दूर इस सुरमई आकाश में.....
पर लोग तो कहेंगे
ये कविता मैंने बनाई है ,
ये चिड़िया मैंने उड़ाई है।
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कवि कुलदीप जी,
नमस्कार,
कल जो आपने प्रश्न रखा था उसके उत्तर में कविता लिखी है-
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