अभी थोड़ी देर पहले
आवाजें आ रहीं थीं
मलबे के नीचे से -
"अरे कोई है ?"
"कोई है ?".....
आवाजें
धीमी पड़ती हुईं बंद हो गईं
मर गईं शायद।
पर सांसें अभी जिंदा होंगी
सांसों के मरते भी
समय लगता है
जल्दी जल्दी खोदो
अभी जिंदा मिल सकता है
आदमी..... !
विश्वास
खो गया है। देखते देखते
आदमी मिट्टी हो गया है !
मरी मिट्टी
किसी काम नहीं आती
इस से तो कुल्हड़ तक नहीं बनता
कण से कण नहीं पकड़ता
वे ही विश्वास दुख दे गये
जिन्हें सहेजा था जतन से
परिंदे भी छोड़ गये
खंडहर मकानों को।
मृत्तकों की भटकती आत्माएं
ढूँढती फिर रहीं
अपनी जिंदा पहचानों को !......
---------- baldev vanshi
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