Tuesday, December 22, 2015

कांसे का गोलाकार (तवा ) वाद्य (और विपस्सना योग )

अब मैं ही कांसे का तवा बना टंगा हूँ 
अकेला 
इस सभागार में !.... 

तालियां पीटते लोग 
उन के "वाह !" "वाह " के बोल 
विदा हो गये सब..... 
सभागार हुआ लोगों से रिक्त 
मैं जस का तस 
टंगा हूँ - आज तक.... 

समय भी मेरे संग 
टंगा है ज्यों का त्यों 

यह कैसा योग सधा 
कैसा संयोग था -
देश काल नाद और चैतन्य का !... 

लोगों ने भी देखा 
मेरे साथ सुना 
सब ने देखा-सुना साथ-साथ 
पर अलग अलग हुए 
अपने प्रकम्पनों में 
अपने प्रति-स्पंदनों में 
          सभागार के सभी पात्र -
          कांसे के पत्रों की भांति 
          सब पर पड़ीं थीं थापें 
          वाद्य से निकली-बही स्पंद लहरियां 
          भिगो गयीं सभी को एक साथ,
          पर भीगे सभी जुदा-जुदा -
                                      (मैं भी )  

कांसे के उस वृहदाकार तवे पर 
पड़ी पीतल के हथौड़े की चोट से 
बही जो नाद सरिता 
बहा ले गयी अपने साथ -

बिछलता हुआ मुझ तक आया नाद 
ले गया मुझे बहा कर साथ अपने 
और छोड़ गया हतप्रभ 
यहां निबिड़ शून्य में 

उल्लास आनन्द मौन स्पंद 
आज तक कर रहा आंखों से -
            विचलित हृदय से 
अजस अश्रु-धार -
        और मैं हतप्रभ !.... 

हतप्रभ सभागार-कक्ष में मैं 
कुर्सियों-दीवारें-मंच-गलियारे-पर्दे 
ध्वनि-प्रसार-यंत्र सब 
ज्यों के त्यों मेरे भीतर.... 

इस महाशून्य में अकेला 
सब को एक साथ समेटे-संभाले 
संवेद्य मैं !
अश्रुमय,
प्रार्थना में रुका 
आभार-अहोभाव में नम 
एक नाद-वर्तुल को गर्भ में लिए 
नाद-बिंदु बना झुका 
महाशून्य में तना खड़ा हूँ.... 
                      (यह कैसी विपश्यना है !)

मेरी यात्रा अवरुद्ध 
मेरा प्रवाह थमा हुआ 
मेरी गति अ-गतिक.... 

मुझे गति दो !
प्रभु !!
मुझे मुक्ति दो !!!.... 

           ......   baldev vanshi
















      

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