Monday, December 21, 2015

शब्द, बादल और ख़ामोशी

रचता हूँ जितना 
ख़ामोशी 
और बढ़ जाती है 

कहां से आते हैं 
उतरकर 
शब्द 
ख़ामोशी को कहने 
कब 
कब 
आते हैं बंधने 
अपने आप 
खामोशी ही उनका बंधन है। 

खामोशी बढ़ेगी 
तो शब्द आएंगे 
सामूहिक अवसाद के घाम 
जब घिरते हैं 
उठने वाली उमस तब 
रचती है शून्य 
              बेसाख्ता 
भाग पड़ते हैं घबराकर 
चिंतित हवाओं के साथ 

मूसलाधार वर्षा की संभावनाएं :
खामोशी में तनी होती है उनकी वल्गाएं 
मुंहजोर अश्वों की शक्ति 

मानवशक्ति बन चमकती है 
काले सघन घुमड़ते बादलों के कलेजों में 
दहलते सागरों से खींचा विह्वल जल 
बंधनो को तोड़ 
बरसात है ताबड़तोड़ 

टूटती है क्या 
खामोशी ?
वह और  और  और 
सघन होती जाती है!...... 
             ---------       baldev vanshi












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