बाग़ या जंगल से
अकेला
गुजरते। मुझे अक्सर
ये फूल-पौधे-पेड़
हाथ बढ़ा कर पकड़
रोक लेते हैं। अपने भीतर खींच लेते हैं।
फिर निकट बिठा
विह्वल नन्हें बच्चों की तरह
अपने रंगों गंधों-रूपों के
खज़ाने
मेरे आगे उड़ेल देते हैं....
फिर झरनों-से खिलखिलाते रहते और
गुदगुदाते हैं.....
मैं भी तब स्वयं को भूल
रंगों-गंधों में डूब
उन्हीं में मिल जाता हूँ !.....
----------- baldev vanshi
...........
फिर झरनों-से खिलखिलाते रहते और
गुदगुदाते हैं.....
मैं भी तब स्वयं को भूल
रंगों-गंधों में डूब
उन्हीं में मिल जाता हूँ !.....
----------- baldev vanshi
...........
No comments:
Post a Comment