Sunday, December 20, 2015

रूपांतरण

बाग़ या जंगल से 
अकेला 
       गुजरते।  मुझे अक्सर 
       ये फूल-पौधे-पेड़ 
हाथ बढ़ा कर पकड़ 
रोक लेते हैं। अपने भीतर खींच लेते हैं। 

फिर निकट बिठा 
         विह्वल नन्हें बच्चों की तरह 
         अपने रंगों गंधों-रूपों के 
         खज़ाने 
         मेरे आगे उड़ेल देते हैं.... 
फिर झरनों-से खिलखिलाते रहते और 
गुदगुदाते हैं.....  

मैं भी तब स्वयं को भूल 
रंगों-गंधों में डूब 
उन्हीं में मिल जाता हूँ !..... 

            -----------    baldev vanshi
        ........... 

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