Tuesday, December 29, 2015

सृजन

यूँ दोनों हाथों के 
नमन में जुड़ते ही 
आकाश से कहीं ईश्वर 
फड़फड़ाती नन्हीं चिड़िया-सी कविता देता है,
मगर देता है उन्हें जिनके मन में खुला आकाश होता है,
कोई जाल या पिंजरा नहीं होता। 

उछलती-चहकती चिड़िया 
कभी कंधे पर,
कभी सिर पर,
कभी साईकिल की घंटी कुछ देर ठहरती है अपनी ही मौज में।  

कौन बता सकता है कि 
ये चिड़िया कब आयी ? 
कहां से आयी ?
कब तक रुकेगी ? 
अधिक क्यों न रुकेगी ?
और फिर क्यों उड़ कर हो जायेगी ओझल
हमारी आँखों से दूर  इस सुरमई आकाश में..... 

पर लोग तो कहेंगे 
ये कविता मैंने बनाई है ,
ये चिड़िया मैंने उड़ाई है   
          --------- 

कवि कुलदीप जी,
नमस्कार,
कल जो आपने प्रश्न रखा था उसके उत्तर में कविता लिखी है-

Friday, December 25, 2015

सच - झूठ

मुंदती आंखों के पीछे 
एक वास्तविक जहान है 
विलुप्त होता हुआ। 

और एक नया कल्पना जहान 
वास्तव में - उजागर होता हुआ। 

यूं  झूठ  - सच 
और सच - झूठ 
में खोता होता हुआ
मुंदती आँखों के पीछे....  

         ----------

Tuesday, December 22, 2015

कांसे का गोलाकार (तवा ) वाद्य (और विपस्सना योग )

अब मैं ही कांसे का तवा बना टंगा हूँ 
अकेला 
इस सभागार में !.... 

तालियां पीटते लोग 
उन के "वाह !" "वाह " के बोल 
विदा हो गये सब..... 
सभागार हुआ लोगों से रिक्त 
मैं जस का तस 
टंगा हूँ - आज तक.... 

समय भी मेरे संग 
टंगा है ज्यों का त्यों 

यह कैसा योग सधा 
कैसा संयोग था -
देश काल नाद और चैतन्य का !... 

लोगों ने भी देखा 
मेरे साथ सुना 
सब ने देखा-सुना साथ-साथ 
पर अलग अलग हुए 
अपने प्रकम्पनों में 
अपने प्रति-स्पंदनों में 
          सभागार के सभी पात्र -
          कांसे के पत्रों की भांति 
          सब पर पड़ीं थीं थापें 
          वाद्य से निकली-बही स्पंद लहरियां 
          भिगो गयीं सभी को एक साथ,
          पर भीगे सभी जुदा-जुदा -
                                      (मैं भी )  

कांसे के उस वृहदाकार तवे पर 
पड़ी पीतल के हथौड़े की चोट से 
बही जो नाद सरिता 
बहा ले गयी अपने साथ -

बिछलता हुआ मुझ तक आया नाद 
ले गया मुझे बहा कर साथ अपने 
और छोड़ गया हतप्रभ 
यहां निबिड़ शून्य में 

उल्लास आनन्द मौन स्पंद 
आज तक कर रहा आंखों से -
            विचलित हृदय से 
अजस अश्रु-धार -
        और मैं हतप्रभ !.... 

हतप्रभ सभागार-कक्ष में मैं 
कुर्सियों-दीवारें-मंच-गलियारे-पर्दे 
ध्वनि-प्रसार-यंत्र सब 
ज्यों के त्यों मेरे भीतर.... 

इस महाशून्य में अकेला 
सब को एक साथ समेटे-संभाले 
संवेद्य मैं !
अश्रुमय,
प्रार्थना में रुका 
आभार-अहोभाव में नम 
एक नाद-वर्तुल को गर्भ में लिए 
नाद-बिंदु बना झुका 
महाशून्य में तना खड़ा हूँ.... 
                      (यह कैसी विपश्यना है !)

मेरी यात्रा अवरुद्ध 
मेरा प्रवाह थमा हुआ 
मेरी गति अ-गतिक.... 

मुझे गति दो !
प्रभु !!
मुझे मुक्ति दो !!!.... 

           ......   baldev vanshi
















      

Monday, December 21, 2015

बुनाई

बुन  रहे  हैं, सब 
अपने  अपने अंधेरे 
अपने अपने सवेरे 

सदियों से यही क्रम 
चल रहा है धरा पर 

न अंधेरा हारता है 
न सवेरा जीतता है 

नये नये रूप रंग नमूने के अंधेरे 
नयी नयी तकनीक 
नयी नयी शैली शिल्प कौशल 

पहले से भी आकर्षक 
पहले से भी संष्लिष्ट, क्लिष्ट बुनाई 
पहले से भी अनोखी विषिष्ट तुरपाई 

सवेरे हांफ हांफ जाते हैं काटते हुए 
अंधेरे बार बार खिलते हैं महकते हुए 

सवेरे पीछे चल रहे हैं 
अंधेरों के 
अंधेरे आगे चल रहे हैं 
सवेरों के 

चक्राकार संघर्षों के युग 
आ जा रहे 
नये नये क्रम बन-मिट रहे 
हम खामखाह पिस-पिट रहे !.... 

          ----------        baldev vanshi

मिट्टी की मूर्तियां (शिमान, चीन में )

योद्धा सैनिकों की 
टेराकोटा की मिट्टी की हजारों मूर्तियां 
देख रही हजारों 
चलती फिरती मिट्टी की मूर्तियां.... 

और अब हम देख रहे 
दूरदर्शनी नजर से 
दूर बैठे ये 
मिट्टी की मिट्टी-मिट्टी 
मूर्तियां !..... 
          ----------  

प्रमाण होने का 

आकाश नहीं बनता प्रमाण 
व्यक्ति के गोत्र का 
भूगोल और भविष्य का 

धरती देती है पहचान 
और आधार धरा पर जन्म का 
होने-अनहोने का 

बलदेव वंशी (भसीन ) स्वयं ही 
स्वयं को, सको तो 
ढूंढो इस धरती पर /कहां हो 
मिल जाओ अवश्य 
स्वयं को 
तो बताना !
          --------           baldev vanshi

समयों के द्वीप

अतीत समयों के अनेक द्वीप हैं 
भीतर 
जहां आत्माएं भटकती रहती हैं हमारी 

वहां के मौसमों को आत्माओं में भरकर 
अपने समयों में लौट आते हैं 
बार-बार 

हमारे चित्त काबू में नहीं रहते 
श्रण-श्रण उलट-पलट जाते हैं 

एक साथ रहते हुए भी 
हम अलग-अलग भटकती 
द्वीपीय आत्माएं हैं।  निकट इतना फिर भी 
अजनबी। परस्पर.....  

द्वीप ये घिरे हैं अँधेरे समुद्रों से 
इनके जल में हम। 

हमें अजनबी बनाते हैं 
ये समयों के द्वीप !.... 
         ---------  baldev vanshi





छाया

समूची सत्ता /आकाश की 
सिमट आती है एक बिंदु में। 
छाया में। समा जाती है -
वृक्ष की इयत्ता !.... 

प्रार्थना 
ऐसे ही होती है 
साकार !
      ----------       baldev vanshi

रहस्य कुछ भी नहीं होता

कुछ नहीं है कहीं  भी रहस्य
बस एक झीनी पर्दगी है अज्ञात की 
समय आने पर 
प्रकृति स्वयं उघाड़ती है 
स्वयं को..... 
सूर्य भी एक जीवंत पिंड है 
धड़कनों-बंधा 
आग-लपटें-तपन /उसके 
श्रंगार हैं। 
प्रकाश-अंधकार 
हमारे अलंकार हैं धरती पर घूमते 
आईने-अक्स.....
इन्हीं में बनते-मिटते सब स्वप्न 
हमारी नींदें-स्मृतियां 
रोदन-उल्लास-हंसियां 
ऋतुएं-उनके आवर्तन 
फल-फूल-रंगतें.... 
ये कहां थे पहले 
जब नहीं थे -
तब केवल महीन पर्दा था 
अब, नहीं है कहीं। 
रहस्य भी यथार्थ है, अब 
क्योंकि हमें ज्ञात है। 
हम से बाहर 
बड़ा नहीं है 
हम जैसा है 
जहां है ऋतुओं-अश्रुओं डूबा 
उल्लासों महका 
जिज्ञासाओं चहका रहस्य 
कहीं कुछ नहीं है। 
धरती पर, सब कुछ /यहीं है। 
          ----------         baldev vanshi














शब्द, बादल और ख़ामोशी

रचता हूँ जितना 
ख़ामोशी 
और बढ़ जाती है 

कहां से आते हैं 
उतरकर 
शब्द 
ख़ामोशी को कहने 
कब 
कब 
आते हैं बंधने 
अपने आप 
खामोशी ही उनका बंधन है। 

खामोशी बढ़ेगी 
तो शब्द आएंगे 
सामूहिक अवसाद के घाम 
जब घिरते हैं 
उठने वाली उमस तब 
रचती है शून्य 
              बेसाख्ता 
भाग पड़ते हैं घबराकर 
चिंतित हवाओं के साथ 

मूसलाधार वर्षा की संभावनाएं :
खामोशी में तनी होती है उनकी वल्गाएं 
मुंहजोर अश्वों की शक्ति 

मानवशक्ति बन चमकती है 
काले सघन घुमड़ते बादलों के कलेजों में 
दहलते सागरों से खींचा विह्वल जल 
बंधनो को तोड़ 
बरसात है ताबड़तोड़ 

टूटती है क्या 
खामोशी ?
वह और  और  और 
सघन होती जाती है!...... 
             ---------       baldev vanshi












रंगीन तितलियां 

आकाश में मंडरातीं 
मानवी ध्वनियां हैं ये 
ढुंडतीं धरती पर छूटे 
अपने स्थानों को 
स्मृतियों में बसी गंधों और परछाईयों को 

अक्षय ध्वनियां 
भटक रही हैं 
आज तक 
       आकाश  में..... 
                -------           baldev vanshi             ......... 

Sunday, December 20, 2015

कुछ भी हो सकता है !

कुछ भी हो सकता है-
जब दहाड़ उठता है अचानक 
सदियों सोया भयभीत दुःसाहस 
तब अनुगूंजों में खिलखिला उठतीं हैं 
सूनी पड़ी भयावनी कंदराएँ.... 

कुछ भी हो सकता है-
जब नदियां अचकचा कर बदलती हैं अपनी दिशा 
तब मचल उठती हैं अंगड़ाइयां लेतीं 
धरातल में दबी 
कुचल केंचुआ संवेदनाएं..... 

कुछ भी हो सकता है-
जब चट्टानी शिखरों पर कूद 
उन्हें फांद जाती हैं जांबाज 
गूंजती रहतीं हैं सदियों तक 
भावों की उप्तकाएं..... 

 ऐसे में कुछ भी हो सकता है
कभी भी 
जब इठलाती जम्भाइयां लेती हुई जागती हैं 
सोची मानवी संभावनाएं !..... 
           ----------          baldev vanshi


रूपांतरण

बाग़ या जंगल से 
अकेला 
       गुजरते।  मुझे अक्सर 
       ये फूल-पौधे-पेड़ 
हाथ बढ़ा कर पकड़ 
रोक लेते हैं। अपने भीतर खींच लेते हैं। 

फिर निकट बिठा 
         विह्वल नन्हें बच्चों की तरह 
         अपने रंगों गंधों-रूपों के 
         खज़ाने 
         मेरे आगे उड़ेल देते हैं.... 
फिर झरनों-से खिलखिलाते रहते और 
गुदगुदाते हैं.....  

मैं भी तब स्वयं को भूल 
रंगों-गंधों में डूब 
उन्हीं में मिल जाता हूँ !..... 

            -----------    baldev vanshi
        ........... 

अग्नि पाताल (धनबाद /झरिया )

झर रही है मौत 
दिनरात / झरिया में 
बरस रही है बरसों बरस 
पलक झपकते ही धंस जाते हैँ मकान 
लोग। जिन्दा। किलकारियां। खुशियां 
बदल जाती हैं चीखों में।  खामोश !..... 

कहीं लपटें हैं 
कहीं धुआं 
कहीं सुलगते कोयले -
                खदानों में 
लपटें और लोग जी रहे हैं 
साथ-साथ 
इन जीवित श्मशानों में !...... 

कब धंस जाये  धरती 
देखते देखते 
कोई गायब हो जाये 
साथ चलते-चलते 

बगल में ही धरती के नीचे 
लपटें चाट रहीं हैं धैर्य। सांसे। आशाएं 
पर जीवन है कि उसी धरा पर झुग्गी डाले पड़ा है 

जब तक सांसे हैं।  लोग आबाद हैं 
लपटें हैं।  अग्नि पाताल पाताल है !
झरिया है ! धनबाद है !
                -----------           baldev vanshi

मनुष्य ही बचा सकता है मनुष्य को

मनुष्य की महिमा-ममता को, सिर्फ 
मनुष्य ही बचा सकता है 
जैसे ईश्वर को, धरती को 
आकाश को, फूलों को......   

फिर से उद्यम करो 
कि फूल महकें 
आकाश में सुर्यालोक 
धरती पर मनुष्य के कंठ से 
ईश्वर चहके..... 

प्रातः भावनाओं की पत्तियों पर 
सजीले ओस कण संवेदनाओं से 
अनुभूतियों से 
आदिम गंधों से बहकें...... 
        .......   

ईश्वर के नाम पर 

अभी तो 
शस्त्र संभाल रहे हैं लोग 
तुम्हारे नाम से रचे शास्त्रों को 
मध्य में रख कर.....

अध्यात्म बोल बोल रहे हैं 
हिंसक आशाओं से घिरी छायाओं में 
शब्द और अर्थ को पृथक-पृथक 
हत्या कर।  सत्य की सौगंध खा रहे हैं 
वे सब 
अब तुम्हारी ही ओर आ रहे हैं 
प्रभु !
           .......     

रक्त सने 

अपने ही रक्त-संबन्धों के रक्त से सने 
आरक्त हाथों-वस्त्रों से 
ये समझकर लोग /कितने नासमझ-पाप में लिप्त हैं 
इन्हें  श्रमा करो / मुक्त कर दो ऐ प्रभु 
इस बार !....... 
           ..........            baldev vanshi


लाज

क्योंकि समय को लाज आती है 
समाज को भले न आये 
उघड़ता जा रहा समाज-व्यक्ति 
कपड़ों में ज्यादा पहन कर भी..... 

जररूत स ज्यादा खा कर 
व्यक्ति मरता है 
अधिक कपड़े पहन 
             उघडता है। 

आजकल की नहीं 
युगों पुराना सत्य है 
आज कौन देखता है 
असत्य ही लुभाता है 
राजा-प्रजा को समय ही बचाता है 
अपनी ओट में लेकर 
क्योंकि समय को ही 
लाज आती है जितनी 
उतनी दुनिया को 
मोहलत मिलती है जीने की 
अपने सभ्य वस्त्रों को 
आँख बचा सीने की 
देख समझ जीने की मौत को 
गले लगाने और आँखों -देख 
मक्खी निगलने की 
कोई नहीं करता अनदेखी.....

मौत भी नहीं आती बता कर 
जब भी घेरती है 
आंख बचा कर 
क्योंकि समय को लाज आती है ! 
                     ----------          baldev vanshi

दूरी

बढ़ते हुए काल में 
हमारे मध्य की दूरी बढ़ रही है 
और अंत की दूरी घट रही है.....

पहाड़ों को काट कर पत्थर, रोड़ी, बजरी 
बनाने के क्रम में 
पेड़,बत्ते, तखते, बारुदा बन रहा है 

आकाश को छोटे-बड़े तहखानों, मकानों  में 
बदलते जाने को वायु तक कटा-फटा 
वजह-बेवजह धमनियों-आँतों-शिराओं में 

पानी को बे-पानी किये दे रहे नालायकी में 
सब के सब स्वयं ही स्वयं के शत्रु बन रहे  

शिव  और शिवत्व का जन्म 
हरियाली और पेड़ों, फूलों, फलों का 
खुशबुओं का जन्म 
अन्न और अन्न की बाली का जन्म.....

बढ़ रहा  मध्य  का अंतराल 
घट रहा अंतकाल 
हमारे बीच अब रुकती नहीं हवाएं 
बदरंग, बहकी, बावली-सी गुजर जाती हैं !...... 
लगता है दूरी और बढ़ रही है !!
                    ---------            baldev vanshi









Saturday, December 19, 2015

अनंत यात्रा विश्व

सामने 
दृश्य रूप में  
केवल एक विशाल दीर्घ दृश्यचित्र 
चल रहा है लगातार 
परंतु हजारों दृश्यों की  चित्रावलियां 
              भिन्न-भिन्न एपिसोड 
विभिन्न चैनलों पर चल रहे हैं। 

समानांतर अनेक आयाम 
अनेक पक्ष 
अनेक चित्र-विचित्र परिदृश्य 
                           गतिमान चल रहे....... 

चैनल बदलो / देखो -
तो समांतर चलते दूसरे दृश्यों पर 
कूद जायेंगे 
हैरानी में 
कि हम अब जिन्हें देख पा रहे हैं 
चैनल बदलते 
     फिर उन्हें देख नहीं पायेंगे !...... 

पूरा विश्व फलक 
विभिन्न चैनलों 
विभिन्न दृश्यों का 
         समांतर संचालन है !..... 

जितने जीव  प्राणी 
उतने जीवन रूप /उतनी विविधताएं 
उतनी यात्राएं !

     ------------  

मुक्ति 
सको तो 
तेतीस कोटि जीवन आयामों में 
अनुभूति     भाव यात्रा करो /वेदनाओं में 
मुक्त्त हो 
इन आयामों में 
इसी जीवन में 
       मुक्त्त हो जाओ !
सको तो.....! 
              ----------           baldev vanshi

यहीं खोदो ! यहीं -


          अभी थोड़ी देर पहले 
          आवाजें आ रहीं थीं 
          मलबे के नीचे से - 
                  "अरे कोई है ?"
                        "कोई है ?"..... 
आवाजें 
धीमी पड़ती हुईं बंद हो गईं 
मर गईं शायद। 
पर सांसें अभी जिंदा होंगी 

सांसों के मरते भी 
समय लगता है 

जल्दी जल्दी खोदो 
अभी जिंदा मिल सकता है  
आदमी..... !
विश्वास 
खो गया है।  देखते देखते 
आदमी मिट्टी हो गया है !

मरी मिट्टी 
किसी काम नहीं आती 
इस से तो कुल्हड़ तक नहीं बनता 
कण से कण नहीं पकड़ता 
वे ही विश्वास दुख दे गये 
जिन्हें सहेजा था जतन से 
परिंदे भी छोड़ गये 
खंडहर मकानों को। 
मृत्तकों की भटकती आत्माएं 
ढूँढती फिर रहीं 
अपनी जिंदा पहचानों को !...... 
            ----------        baldev vanshi




















Wednesday, December 16, 2015

नियति

एक ओर ही नहीं 
डोर के दोनों ओर 
पतंग ही होती है लहराती-इठलाती 
मन में ऊँचा, बहुत ऊँचा और
सदा उड़ते ही जाने का अभिमान लिए। 
मगर क्या वे ऐसा कर पातीं हैं ?

अपना वक़्त खत्म होने पर 
धराशायी ही तो 
हो जाती हैं 
ईश्वर को पाने का अधूरा अरमान लिए। 

अँधेरे का क्रोध

हर जलते दिये के 
दायरे के बाहर 
काला अँधेरा 
घिरा रहता है सदा 
अपना मौका पाने को। 

जो दिये के बुझते ही 
झपट पड़ता है 
और अपने जोर से 
दिये और बाती को काला कर देता है, 
अपना बदला चुक जाने को।    

Wednesday, December 9, 2015

ऊब एक मृत्यु

बहुत 
लंबे समय तक 
एक ही रंग, एक  ही वस्तु 
देखते रहने या भोगते जाने  से 
ऊब- मर ही तो जायेगा आदमी। 

बाहरी और भीतरी प्रकृति की गति को 
एकसरता से जकड़ते ही, 
प्रकृति के अपेक्षाकृत 
कमजोर भीतरी तत्वों के कारण  
विखंडित ही तो हो जायेगा आदमी। 

तब भला इस नि:सार प्रकृति का क्या जायेगा ?

घट ही झन-झना कर टूट-बिखर जायेगा 
और जल तत्व 
भवसागर में विलीन हो जायेगा। 

वर्तमान से भविष्य......

भूतकाल से ही 
वर्तमान निकलता है और 
वर्तमान से भविष्य......   
यों तो यह सीधी लकीर है जीवन भरे बिन्दुओं की 
साँस में साँस 
हमारी जीवनमाल में आस के मनके पिरोती। 

साँस छूटने से कहीं पहले 
छूट चुकी होती है  चाह और आस जीने की। 
अगर तल शांत हो 
तो सुन सकते हो भीतरी तल से आती यह आवाज 
हमारे कहीं दूर खोने की....... 
भूतकाल में दफन सच होने की 
जो वर्तमान की परतों पर आता है 
आने वाला /होने वाला 
हमारा भविष्य कहलाता है और 
हमें अपने 
साथ ले जाता है। 

Monday, December 7, 2015

सामंजस्य और तालमेल

खिचड़ी और घालमेल से 
सामंजस्य और तालमेल कहीं ऊपर होता है,
लेन-देन और मोल-भाव से अलग
यह आजकल की सरकारें नहीं जानती 
इसलिए जनता की उम्मीदों पर खरा उतरना 
यह बिल्कुल भी वाजिब नहीं मानती। 

हार-जीत 
उनके लिये सत्ता का पहले ४०-६० था कभी
अब तो मुट्ठी भर अगड़ों-दगडों से भी नीचे उत्तर आया है और 
कौन अकेला अनपढ़ गंवार सौ पर भारी पड़ जाए 
यह राजनीति का कोई भी स्याना नहीं जानता। 

तालमेल से, सांमजस्य से 
बिना क्रोध के विरोध भी संभव है 
वरना भैंस के आगे बीन बजाने जैसा याफिर 
अंधे का स्वांग करने वाले को गंतव्य तक पहुंचाने जैसा 
सब कुछ असंभव है। 
जहाँ तालमेल में, सांमजस्य में 
एक ऋदम होता है, समझ होती है  और  
एक दूसरे के विचारों का स्थान होता है  
मगर खिचड़ी में, घालमेल में तो
घमासान होता है और  
सब का बस  भारी नुकसान होता है। 

























Thursday, December 3, 2015

आज इंसान/ प्रकृति

आज इंसान 
प्रकृति के निर्णयों से 
सहमत नहीं हो पाता है,
उनके सामने सिर नहीं झुकाता है,
नतमस्तक नहीं होना चाहता है

तो प्रकृति भी 
इंसान के कृत्यों को कहाँ 
वहन-सहन कर पाती है

दोनों में दिनों-दिन
दूरियां बढ़ती ही जाती हैं। 
इसलिए इंसान अगर प्रकृति को खाता है तो  
कभी प्रकृति भी 
इंसान को लील जाती है। 

Tuesday, December 1, 2015

संत / सूरज आशा भरा

ऊपर से 
नीचे की ओर ही 
उतरता है अँधेरा सदा
और जल्दी ही काली निराशा से ढक देता है सब कुछ। 

और ऊपर से ही 
उगता है कोई सूरज आशा भरा   
जो सारी कालिमा को समेट-मेट देता है। 

यों ये, सिलसिला जारी रहता है तब तक 
जब तक कि अँधेरा
हमारे भीतर ह्रदय में नहीं पसर जाता है,
आत्मा में नहीं उतर जाता है
हमारी पहचान बन। 

तब रोशनी का सूर्य 
उसे हटा नहीं सकता हमारी आत्मा से। 
तब कोई संत ही अपने संदेशों से,
परोपकार, सय्यम, ईश्वरनाम का जब 
अभ्यास कराता है। 
तभी, और केवल तभी 
भीतर तक पैठा निराशा का अँधेरा छंट पाता है। 
और मानव उल्लास भरा नवजीवन पाता है।