Friday, March 30, 2018

वजूद

वजूद

स्वीकारलो
मुझे ऐसा का ऐसा ही
जैसाकि मैं हूँ
अपने तमाम अवगुणों के साथ....
फिर तुम मेरी
प्रेयसी हो, गुरु  हो  या
चाहे  हो  भगवान !

बिना अवगुणों के
या अवगुण जैसा तो  कभी
कुछ होता ही नहीं
न  धरती... न  आकाश ....  ।

मेरे विशेषगुण ही
अवगुणों में बदल जाते हैं
वक़्त, जरूरत व  दृष्टि
बदलने के साथ  ही  साथ ....

मुझको ऐसे ही
संभालो ! सहेजो !
मेरे इसी वजूद के साथ ... .  ।
     --------             सुरेन्द्र भसीन


मच्छर /कवि

मच्छर /कवि 

कोई नहीं
सुनना चाहता
महान कवि मच्छर की कविताएं
उसके कविता शुरू करते ही
लोग उसे दुर्दुराने लगते हैं
और हाथ हिला हिला कर व
पहलु बदल बदल कर
उसे अपने से दूर हटाने लगते हैं।
जाते जाते फिर भी
वह अपनी रचना की कुछ पंक्तियाँ
आपको सुना ही जाता है
और मरते मरते भी
अपने काम का जोखिम व
अपने हालात आपको
बता ही जाता है....।
------ सुरेन्द्र भसीन   

  

Tuesday, March 27, 2018

उदगार

  उदगार 

 मुझे अब
कुछ न कहना
छूना भी मत
वरना मैं रो दूँगी
और तुम्हें हमेशा के लिए खो दूँगी
उड़ जाऊंगी तुम्हारा पिंजरा छोड़कर
उन्मुक्त गगन में चली जाऊँगी दूर कहीं...
मानती हूँ कि मैं वो पाखी हूँ
जिसे एक पिंजर से प्यार हो गया था
मगर अब रिश्तों की सारी सलाखें तोड़
मैं इस पिंजरे को
सदा-सदा के लिए छोड़ दूँगी...
मुझे अब छूना भी मत
वरना मैं
यह अपना पिंजर भी तोड़ दूँगी...।
--------                               सुरेन्द्र भसीन
           

Monday, March 19, 2018

एक पौधा पश्चाताप का

एक पौधा पश्चाताप का

क्या करें !
अपनी गल्तियाँ, अपने गुनाह
बार-बार मुँह पर आकर फिर -फिर
हमें बेचैन और विचलित करते जाते हैं....
और वक़्त बीत जाने पर हाथ मलने के सिवा
हम कुछ नहीं कर पाते हैं ....
पश्चाताप,ग्लानि तो है और रहेगा भी मगर
उस सजा का क्या ?
जिसके हम हक़दार हो गये हैं
और निर्लज्ज क्रोध में, आवेश में
हम अपने  भविष्य के लिए क्या-क्या बो गए हैं ?
अब हम कितनी ही
पवित्र नदियों-सरोवरों में क्यों न कर लें नहान
याकि कितने भी देवी-देवताओं का क्यों न कर लें ध्यान
जो दुष्कर्म की लकीर हमारे
हाथों की हथेली में खिंच गई है
उसे कोई मिटा न पायेगा और कोई भी
पीरो-फकीर हमारे गुनाह भी कभी बख्शवा न पायेगा ...
अब मन, आत्मा  की शांति के लिए
हमें एक पौधा बौना चाहिए
परोपकार की खाद, धैर्य के जल से सींचकर
उसे बड़ा करना चाहिए
जब वह एक दिन हमारे जितना आदमकद हो जायेगा
तभी, तभी हमारा
पाप का , गुनाह का अहसास  भी
बेअसर हो जायेगा।
                  -----------                  सुरेन्द भसीन 



दूरियाँ - ग़ज़ल


वो हमारे शरीर की दूरियाँ लिख रही थी तो  
मैं कामकाजी मजबूरियाँ लिखता जा रहा था। 
विरह काल था कि लंबा ही होता जा रहा था
तो मिलन लगातार सिमटता ही जा रहा था। 
वो मुझे एक अरसे से न देख पा रही थी   
और मैं भी उसे वर्षों से तरसे जा रहा था
यों तो कहने को कुछ न था फिर भी 
दिल और कागज तो बडा हो गया था मगर 
दिमाग और आकाश छोटा होता जा रहा था। 
               ---------              -सुरेन्द भसीन    

Friday, March 16, 2018

सामाजिकता -ग़ज़ल



मौसम तो था नहीं मगर फूल खिल रहे थे 
हवा भी नहीं थी मगर आदतन पेड़ हिल रहे थे। 
खैंच रहे थे लोग भी मजबूरी की कठिन साँसे 
संबंधों की गांठें लिए बेकार बेवजह ठिल रहे थे। 
कोई जख्म भी न था,  न था कोई रंजो-गम 
मगर फिर भी लोग थे कि घृणा में गल रहे थे। 
कोई मिलने की चाह तक न थी किसी मन में 
मगर लोग सिर्फ शिकवों के लिए मिल रहे थे। 
सबके मन में बोलने को था अपार,
मगर कोई किसी की सुनने वाला न था, 
इसलिए बस बुदबुदाहट में ही होंठ हिल रहे थे।  
तभी तो न मौसम था न हवा थी 
मगर फूल और पेड़ बेवजह हिल रहे थे .... 
              -----------           सुरेन्द्र  भसीन         



Thursday, March 15, 2018

मैं तो एक प्रेम नदी हूँ

मैं तो 
एक बहती हुई 
प्रेम नदी हूँ याकि 
एक गिरता प्रेमप्रपात 
कितने भी दूरह चट्टानों से बने हो तुम 
तुम्हारे अंर्तमन तक को गला कर 
एक दिन बहा ही ले जाऊँगी अपने साथ.... 

कितनी भी हठ करो 
अटके,टिके रहने की अपनी वर्जनाओं के साथ 
चाहे जकड़े, पकड़े रहो अपने अहम के हाथ 
मगर तुम्हें बहना ही होगा,
तुम्हें बहा ही ले जाऊँगी  
एक दिन अपने ही साथ..... 
क्योंकि मैं तो 
एक बहती प्रेम नदी हूँ 
या गिरता एक प्रेमप्रपात....
                  ----------                            सुरेन्द्र भसीन 



Wednesday, March 14, 2018

जवाबदेही

तुम
क्यों गिन रही हो
चुन रही हो
मेरे सफेद निर्दोष शब्दों में से
वैमनस्य के काले कंकर
मेरे शब्दों को
कहे वाक्यों को
क्यों तुमने क्रोधित,गलत अर्थों में ह्रदय से लगाया है....
मेरे कहे शब्द
इतने नुकीले, इतने  कटीले भी न थे
जितने कि तुमने इनसे घाव खाए हैं.....
और उनके ऐसे मतलब भी न थे
कि जितने उनपर तुमने आंसू बहाए हैं...
यह जो
बेमतलब की गलतफहमियां कुकरमुत्ता-सी  पनपी हैं
यह जो गहरी खाइयाँ फटी हैं हमारे बीच
इन्होंने न जाने हमारे कितने वर्ष खाए हैं ....
इनको कोई तीसरा कभी
न समझेगा, न जानेगा।
हम इकठ्ठे थे
        तो  रहेंगे  भी  सदा
यह हमारे मन की आस
हमारा  अंतर्मन ही जानेगा...
आते हैं,
आते ही रहते हैं
ऐसे कई तूफ़ान और  झंझावात जीवन में
मगर उनको हमारा
प्रेम ही उत्तर है
यह हर आनेवाला  वक्त ही जानेगा ...
                -----------                     सुरेन्द्र  भसीन   

Tuesday, March 13, 2018

प्रेम

              प्रेम
मुझे उसने अपनी आँखों में क्या भरा
कि मैंने कशती से किनारा कर लिया।
बहता ही चला गया मैं सातों महासमुद्र
जब उसने अपनी आगोश में भर लिया।
अपने से ही बेगाना हो गया मैं तब जब
उसने मेरे दिल में ही घर कर लिया।
जब उसने पुकारा मेरा नाम नर्म होठों से
अपनी देह में मानों मेरा अहसास भर लिया।
अब कैसे कहूँ मैं इन लरजते लबों से
कि मैंने उससे बेइंतहा प्रेम कर लिया।
------ सुरेन्द्र भसीन

Thursday, March 8, 2018

सामाजिक बोझ

सामाजिक बोझ 


जब 
हम छोटे थे 
हँस लेते थे अपनी मर्जी की हँसी 
रो लेते थे 
गला फाड़ के जब.....
तब भी हम इसी समाज का हिस्सा होते थे 
जो आज हमें 
खाँसने-खंखारने भी नहीं देता अपनी मर्जी से 
लगाता है पहरे उसी समाज के 
जिसे हमने है बनाया 
अपने ही लिए.... 
अब वही बेड़ियाँ बन आया है 
जिसमें मानव मन 
कसमसाया है.... 
    -----------               सुरेन्द्र भसीन   
  

Saturday, March 3, 2018

अधूरापन


अधूरापन

एक सपना
एक चाह
एक चाँद ही
रह जाता है पीछे/करता है पीछा
करता/होता हुआ-सा
अधूरा.....
दिल में
अरमान बना/बसा-सा रह जाता 
बस रोज
दिख-दिख जाता
पास/हाथ
कभी न आता.....
पीछे एक अधूरापन रह जाता
कभी पूरा न हो पाता
फिर .. फिर नया दिन निकल आता
अपने को दोहराता।
        --------   सुरेन्द्र भसीन


जल्दी क्यों है ?


जल्दी क्यों है ?

हर ईंसान
वक्त की गति से
कुछ तेज ही चलना चाहता है
वह पीछे न रह जाए कहीं
कुछ छूट न जाए उससे कहीं
इससे बड़ा घबराता है-
जल्दी-जल्दी चलना-फिरना
जल्दी-जल्दी खाना-पीना
जल्दी छोटे से बड़ा होना
बड़े से बूढ़ा होना,
जल्दी नोकरी
जल्दी से शादी
सब समय से पहले
जल्दी-जल्दी
अपने हाथों सब करते जाना...
वक्त पर कुछ न छोड़ना
घड़ी से पहले...
अशांति में, बेचैनी में, अविश्वास में,
हड़बड़ी में, घबराहट में...
कारण...!
कुछ नहीं पता?
----- सुरेन्द्र भसीन