Tuesday, November 28, 2017

जीवन यात्रा

कुछ चीजें
संबंध या घटनाएं भी
जो जीवन में पीछे छूट जाते हैं
वो फिर अगले जीवन में ही
दुबारा ठीक हो पाती हैं/पूरी हो पाती हैं
जैसेकि
यात्रा में पीछे छूट चुका
कोई शहर,बसअड्डा या रेलवेस्टेशन
पूरा चककर घूमने के बाद ही लौट के आता है वरना
कोई विरला ही होता है
जो उतरकर पीछे जाता है
अपनों को लाने
उनका साथ निभाने।
कई बार रुककर, उतरकर
साथी को लाने की कोशिश में
देरी भी जो हो जाती है
अपनी भी गाड़ी छूट जाती है।
अगर गंतव्य/अंत निश्चित हो एक ही सभी का
तो गति या जल्दी कोई काम नहीं आती है -
क्या फर्क पड़ता है कि कोई कैसे आता है ?
यात्रा तो सभी की पूरी हो ही जानी है प्रत्येक की
भागने से, जल्दी करने से
संबंध और संबंधी ही टूट-छूट जाते हैं लगातार
इकठ्ठे नहीं रह पाते हैं।
मंजिल तक पहुंचते हैं
हम अकेले
थके -टूटे-हारे कांपते ही रह जाते हैं
हाँफते ही रह जाते हैं।
       --------          सुरेन्द्र भसीन


















सरल,साधारण, सामान्य

मुश्किल
बड़ा और  महान
करने की  फ़िराक  में -
सरल,साधारण, सामान्य कुछ
छोड़ा ही नहीं है
हमने इस संसार में
ऐसा  करके बिना वजह
हम एक दूसरे को
अनचाही प्रतियोगिता की ओर
धकेलते-धकियाते हैं और
हम सब जीने आए हैं या दौड़ने
हम यही भूले जाते हैं।
या यूँ कहें
हम असमान्य,असहज और
बीमार समाज का
निर्माण करते जाते हैं !
                -----------          सुरेन्द्र  भसीन 

Sunday, November 26, 2017

"एक पेंटिंग मजबूर लड़कियों की"

पटरियाँ हों
याकि सड़कें
पीछे ही छूटीं रह जाती हैं
उपयोग होकर सुनसान.....
अपने ऊपर से
हवस के भारी भरकम
वाहनों के गुजर जाने के बाद 
धुँआती, पिघलती जिंदगी,
लंबी-लंबी गर्म साँसे लेती अवश... बेबस ....।
होता ही रहता है उनके साथ सदा 
यही सब कुछ
उनके उखड़ने, टूटने
टूट के बिखर जाने तक
अनचाहा
बार बार लगातार......
      --------------            सुरेन्द्र भसीन

Sunday, November 19, 2017

ये दूरियाँ

एक  दूजे  की
खूबियाँ, समझदारियाँ और अच्छाइयाँ
ढूंढ़ते चाहते ही चले थे हम
एक साथ जीवनयात्रा के शुरूआती छोर से
आनंद पगे, उल्लास भरे.....
और
एक दूजे की
बुराइयाँ, नादानियाँ और कुरुपतायें
न जाने कब से ढूंढ़ने लगे हम
निराशा से भरभराकर
जीवनयात्रा के इस छोर तक आते-आते.....
यह हमारी
प्रौढ़ता है या बचपना ?
हमने सीखा जीवन भर या खोया ?
पाया है या गंवाया है ?
कुछ समझ नहीं आया है....?
     --------------             सुरेन्द्र  भसीन 

Thursday, November 16, 2017

शहर नहीं रहे रहने के लिए

शहर तो 
अब शहर नहीं रहे 
सुरक्षित निवास। 
श्मशान हो गए हैं-
दमघोंटू जहरीली गैसों के डैथ्चेम्बर 
छोड़ दो जल्दी से इन्हें  
लौट चलो 
पहाड़ों में,
खेतों में,
जंगलों में,
प्रकृति की पनाह में   
सांस लेने के लिए 
जीवन जीने के लिए। 
   -----------        सुरेन्द्र भसीन 

शोर ...शोर ... और बस शोर है।

इस भीड़तंत्र में 
कोई भी नहीं है 
अपने भीतर बसा हुआ 
सभी तैश में,स्वार्थ में बौराये हुए 
सब तरफ जैसे टनटनाती घंटियों का ही 
शोर ...शोर ... और बस शोर है। 
एक-सी आवाजें   
लड़ती घंटियों की टकराहटें कर्कश 
सुनना नहीं चाहता कोई 
मगर आवाजें सब ओर हैं ....
नहीं टकराना चाहते 
रुकना चाहते हैं मगर 
रुक नहीं पाते हैं। 
आख़िरी में बाहर से 
बाहर ही विदा हो जाते हैं। 
     ------          सुरेन्द्र भसीन  

Monday, November 13, 2017

प्रकृति एक प्रेम गीत

एक बादल 
पानी का भरा हुआ
आकाश में मंडरा रहा था।
धरती के सूखे टुकड़े को देखकर
उस पर बरसना चाह रहा था।
मगर हवा के हिचकौलों में
मौका नहीं पा रहा था।
उधर धरती भी उसके इरादों से
नावाकिफ नहीं थी।
वह  भी आँखों ही आँखों से इशारे करते जा रही थी।
बादल अपनी चाह से उसे सराबोर करदे
ऐसा मन ही मन चाह रही थी।
पर कहती कैसे ?
समाज से जो शरमा रही थी,
अपनी भावनाएं कह नहीं पा रही थी।
फिर बादल ने मौका पाया और
नीचे गोता लगाया
अपना प्रेमजल धरती पर बरसाया।
धरती का तन भीगा,मन भीगा
उसके अंग-अंग में, रोम-रोम में अंकुर फूटे
यों धरती ने गगन का प्रेम है पाया।
              --------           सुरेन्द्र भसीन









दिमाग है पेपरवेट

यह जो 
दिमाग है न 
दिल का पेपरवेट है.....पेपरवेट। 
जब दिल लापरवाही में ज़रा फड़फड़ाना चाहता है 
तो दिमाग उसे सोच से दबाता है,
दिल कहीं फौरी सफलताओं से बोरा न जाये 
इसलिए बड़े बुजुर्गों की तरह इसे समझाता है। 
तुम यह करते तो यह हो जाता,
तुम वह करते या वहाँ पहुंच जाते तो वह हो जाता 
जैसे भारी भरकम जुमले 
लगालगाकर सदा उसे दबाता है 
हंसने, जीने, जीत का जश्न मनाने के वक़्त भी 
उसे सीखों से रोता, कलपाता है। 
अच्छा  हो 
दिमाग के भी दायरे बांधो !
उसे कभी दिल कब्जाने मत दो,
दिल को दिल ही रहने दो उसे 
दिमाग बन जाने मत दो। 
         ---------    सुरेन्द्र भसीन 

Monday, November 6, 2017

आभागा मैं

अब तो
हर बार ही 
यह हुआ है कि मैंने 
जब-जब तुम्हें छुआ है 
तो मुझे 
पत्थर का अहसास हुआ है।  
हर बार तुम्हारी निराशा,चुप्पी, उदासीनता ही 
महज मुझ तक हस्तांतरित हो, 
मुझे भीतर से भारी कर जाती है।  
मैं जो जमाने भर से 
भर-भरा कर 
तुमसे बतियाने,लिपटने, खाली होने आता हूँ 
मगर उल्टा भारी बोझ होकर लौट जाता  हूँ।  
ऐसे बैरंग-अवश लौटा मैं 
परिस्थितियों से संघर्ष नहीं कर पाता हूँ 
जमाने को जवाब नहीं दे पाता हूँ।  
सहज नहीं रह पाता हूँ और 
दिनोदिन चिड़चिड़ा होता जाता हूँ
हार ... हारता ही जाता हूँ ....। 
मगर मैं 
कितना अभागा 
किसी को कुछ कह भी नहीं 
पाता हूँ। 
    ----------        सुरेन्द्र  भसीन            


Saturday, November 4, 2017

मुझसे पूछना महज दस्तूर था तुम्हारा 
करनी तो तुमने अपने मन की ही थी 
बातों में उलझाकर मुझको 
रखनी टांग मुझ पर ही थी 
बात अपनी मनवाने का 
यह तुम्हारा महज स्वांग ही था 

Wednesday, November 1, 2017

विज्ञान की सीख

विज्ञान ने
हमें समझाया है कि
देवी-देवता कुछ नहीं
एक साधारण इस्त्री-पुरुष ने हमें जाया है...
पाप-पुण्य भी बेकार है।
डांट-डपट,आर्थिकता और भय पर ही
टिका और चलता यह सारा संसार है।
लेन-देन यहीं तक है बस
आगे सब कुछ खत्म,
बड़ा वाला शून्य या निरा अंधकार है।
अब यह सीधा हिसाब
हमें समझ तो आता है
हमें लूट-खसोट,मार-काट की ओर ले जाता है
और आखिर में हमें
प्रयाश्चित के जलते-कल्पते
जंगल में छोड़ ही जाता है। 
          -----------              सुरेन्द्र  भसीन      


हम सारे पत्थर

सारे के सारे पत्थर
थोड़े न पूजे जाते हैं 
न ही तुम्हारी कामनाएं ही पूरी कर पाते हैं 
अधिकतर तो 
मारने के काम ही आते हैं या 
राह में पड़े फूटते-फोड़ते ही 
अपना जीवन बिताते हैं 
देवता नहीं बन पाते हैं किसी के लिए। 
पूजा के पत्थर तो स्थापित होते हैं आस्था से 
उन्हें फूंकना होता है मंत्रोच्चार से
मंदिर मेँ देवता स्वरूप बैठाना पड़ता है तभी 
फिर वह तिलिस्म हो जाते हैं 
भगवान की तरह 
काम आते हैं। 
तुम्हारी इच्छाएं पूरी कर पाते हैं। 
           -------         सुरेन्द्र भसीन