Thursday, March 30, 2017

(अधूरी कविता )

तुम्हारी जिद 
अपने भीतर छुपने का 
तुम्हारा किया गया हर प्रयास 
बेकार चला जाता है , जैसे 
कोई हाथी झाड़ी के पीछे छुप नहीं पाता है,
न जाने क्यों ?
अपनी असफलता का, गल्ती का 
तुम सामना नहीं करते हो 
और हर बार तुम उसे किसी और के सिर ही मड़ते हो। 
तुम गल्ती करके 
अपने तर्कों से उसे सही ठहराते हो , जैसे
अनाड़ी निशानची व्यर्थ गोली दागकर 
निशाने के गिर्द घेरे लगा दे याकि 
अपने किए गुनाहों को 
चतुर-चालाक तर्कों से सही ठहरा दे।  
       ------- सुरेन्द्र भसीन 

Monday, March 27, 2017

पहाड़ का दर्द

पहाड़ का दर्द 

मैं 
हूँ एक पहाड़ी पत्थर 
जलधार में तो आ गया हूँ न जाने कैसे ?
मगर मेरे भीतर 
पानी नहीं है 
नमी भी नहीं है 
कठोर कड़ा पत्थर हूँ मैं तो 
पहाड़ का एक टुकड़ा ....
जलधार में मैं बह नहीं पाता हूँ 
जहाँ गिरा था 
तभी से अपने को 
वहीं अटका हुआ पाता हूँ ...
चूरा-चूरा हो 
घुलने में भी बड़ी देर लगाता हूँ...
जल धार से उलझ-उलझ कर 
उसको भी बाधित किए जाता हूँ....
गोल-गोल तो हो जाता हूँ 
वहीं पड़ा-पड़ा कसमसाता हूँ 
पर अपनों को छोड़ आगे नहीं बढ़ पाता हूँ। 
कुछ सीखता नहीं हूँ 
समझता नहीं हूँ 
बस ! झर-झर  के खत्म हुआ जाता हूँ ...
क्योंकि मैं हूँ 
एक पहाड़ी पत्थर !
       --------             -सुरेन्द्र भसीन  

  

Sunday, March 26, 2017

हक़ीक़त

हक़ीक़त 

वो अक्सर श्मशान जाया करता था 
वहाँ चिता पर लेट जाया करता था 
मरने की सारी रस्मे निभाया करता था 
मगर अफ़सोस (उसको ) हर बार 
वह लौट आया करता था। 

उसको मरने का बड़ा शौक था 
अपने को मरते देखना चाहता था, 
महसूसना चाहता था -
घण्टों चिता पर 
लकड़ियों ऊपर आंखें मूंदे पड़े-पड़े  
वह अपनी मौत का दृश्य मनाया करता था 
मगर मर नहीं पाता था क्योंकि 
लकड़ियों को आग देने के समय हर बार.... 
हर बार  उसका हाथ काँप जाता था,
साहस जवाब दे जाता था और 
वो लौट आता था 
वापिस घर पर 
इस जहान में 
एक बार 
सचमुच में मरने के लिए.... 
             ------------         -सुरेन्द्र भसीन  

Thursday, March 23, 2017

बेचारगी,लाचारी या मजबूरी

बेचारगी,लाचारी  या मजबूरी 
अपनी बलगम भरी थूक ही होती है 
जिससे लिपटा-चिपटा आदमी 
छूट नहीं पाता है और 
दिनों-दिन घिन से घिनोना होता चला जाता है।  
जहाँ एक बच्चा भी 
सरलता से सत्य कह जाता है 
कि राजा नंगा है 
कि कविता अच्छी है और 
जहाँ कुत्ते जैसा निकृष्ट प्राणी भी 
अपना दुख बता पाता है
वहीं दिमाग से चिपका,
जबान से बिका आदमी 
कितना बेचारा और लाचार नज़र आता है 
जो बोलते हुए 
अपने हक का कहते हुए घिघियाता है 
और भय में इतना है कि 
मौत आने से पहले ही 
कई-कई बार लाचारगी में 
मर जाता है। 
 --------------           -सुरेन्द्र भसीन 

Wednesday, March 22, 2017

गतियाँ

गतियाँ 

हजारों-हजार साल से 
तुम जन्म लेते ही आ रहे हो 
एक अनजानी-अनचाही 
कर्मों-दुष्कर्मों की व्यवस्था में बंध-बंधाकर। 
तुम्हें नहीं पता 
तुम्हारे पिछले दुष्कर्म तुम्हें कहाँ ले जायेंगे या 
आज किए पाप और पुण्य भविष्य में 
तुम्हारे किस काम आयेंगे ?

फिर भी तरह-तरह की 
देह धारण करने को व्यवस्थित हो तुम
किसी एक से निकलते, किसी में घुसते, निकलते....
जैसे एक ही कक्षा में बार-बार  फेल होता 
कोई नालायक बच्चा कुछ भी 
समझ नहीं पाता है और 
जो कुछ भी किया-पाया को ही 
अपना प्रारब्ध मानता है। 

यों, जल में उठे भवँर से 
छूटना और सही दिशा पाना तो 
हर कोई चाहता है 
मगर यह सौभाग्य असंख्य में से 
किसी एक के भाग्य में ही आता है 
वरना वक्त की इस वाहक पट्टी (conveyer belt) पर 
कितना भी कोई रुकना चाहे मगर 
चलता ही चला जाता है.... 
बहता ही जाता है.....  
       ----------            - सुरेन्द्र भसीन   













  

Tuesday, March 21, 2017

इंसानियत

इंसानियत

ये मोटी, ऊंची, काली
दीवारें हैं बड़ी-बड़ी
जितना मर्जी लिखो-गोदो
इनके भीतर
कभी कुछ नहीं जायेगा ...
कोई उत्तर भी लौट के नहीं आयेगा ...

इनका कुछ नहीं बिगड़ेगा-बदलेगा
तुम्हारी उँगलियों के पोरों से ही
खून रिसने लग जायेगा।
            -------     -सुरेंद्र भसीन

Friday, March 17, 2017

गजल

छूटी बिंदी, छूटे बाल ये मेरे बदन पर छूटी तेरे होठों की निशानियाँ 
बयाँ कर रही हैं हमारी बीती रात की कहानियाँ। 

यही हमारे सम्बन्धों की लोह कड़ियाँ यही मेरे सेहरे की लड़ियाँ 
यह सलज्ज पलकें तुम्हारी बयाँ करती हैं हमारे प्रेम की बद्जुबानियाँ। 

खेल में, खिलवाड़ में या जवानी की आड़ में  जो न की हमने नादानियाँ 
उम्रः के इस पड़ाव में जिस्मों  पर लिख दी वो अनमोल कहानियाँ। 

दिन के कई पहरों  कल्पना में उतारी जो जेहने-जिगर में 
चाँद के पहर में करीने से कर दी चाहत की वो शैतानियाँ।

उम्रः के इस पड़ाव में शौक अभी और भी हैं बाकी
छूटे बिंदी, छूटे बाल, छूटे  तुम्हारे होठों की निशानियाँ।   
        --------------                              -सुरेन्द्र भसीन 


Thursday, March 16, 2017

सम्मान

सम्मान
किसी तरह का सामान नहीं है
जो किसी को भी दे दिया जाए
कहीं भी पहुँचाने  को।
किसी भी गधे-खच्चर पर लाद दिया जाए
कहीं भी छोड़ आने को।
सामान तो सभी ले जा सकते हैं मगर
सम्मान तो वो ही पाता है
जो इसको कमाता है।
इसका मूल्य अपने त्याग और उत्सर्ग से चुकाता है और
समाज के तकाजों को
अपनी जान व खून देकर निभाता है।
वरना सामान बनकर तो
कोई भी पड़ा रह जाता है।
           ------------       -सुरेन्द भसीन 

पुजारिन

पुजारिन 

मुझे नहीं पता 
वह मुझे कब चूमती है ?
मेरे इर्द-गिर्द वह क्यों घूमती है ?
नज़र उठा कर देख लूँ ग़र 
तो शरमा जाती है। 
अपनी ही चाशनी में नहा जाती है ...
अपना प्रेम आँखों से जता जाती है।
       ---------         -सुरेन्द भसीन  

Wednesday, March 15, 2017

बाल कविता

बाल कविता 

एक था मोटू हलवाई !
एक था पतलू हलवाई !
एक बार मोटू हलवाई की मिठाई 
पतलू हलवाई ने है खाई 
तो गजब कमाल हो गया भाई! 
पतलू हलवाई की भी तोंद है निकल आई 
अब पतलू हलवाई ने मोटू हलवाई से 
शिकायत है लगाई कि अपनी मिठाई 
में क्या दवाई मिलाते हो भाई 
देखो ..देखो मेरी तो तोंद ही निकल आई।  
तब मोटू हलवाई ने बात है यह बताई कि 
मैं बनाता हूँ सदा गोल मिठाई जैसे -
लड्डू गोल,रसगुल्ला गोल,गुलाबजामुन तक गोल मटोल। 

अब बात सभी को समझ आई कि 
अगर खाओगे 
गोल मिठाई तो 
तोंद तो निकलेगी ही भाई । 
    --------------              सुरेन्द्र भसीन 








Wednesday, March 8, 2017

गजल

बात  सुननी न कहनी सिखायी गयी 
बस शोर की एक आंधी उठायी गयी। 

कहने को न था फिर भी कहानी बनायी गयी 
अखबार-रिसाले  में बै सिर पैर कई उड़ायी गयी। 

किसी को अदब न तहजीब सिखायी गयी 
बेअदबी-बेशर्मी  से महफ़िल सजायी गयी। 

सच की गलियां-घरोंदे तो सज  न सके  
झूठ और फरेब की दुनिया बसायी गयी।

रईसों के महलों-मकानों पर तो एक न चली 
गरीबों के झोपड़ों पर बिजलियाँ गिरायी गयी।  
          ---------                      -सुरेन्द्र भसीन 
                 

Monday, March 6, 2017

सन 1984 की याद

"सन 1984 की याद"

अपने ख्वाबों की सलीब उठाये
तुम कब तक भागोगे ?
और अपने अधूरे अरमानों के पीछे
तुम कब तक जागोगे ?
पुराने जातिगत (नस्ली ) घाव कभी नहीं पूरेंगे... अब कभी
ये रिस्ते नासूर ही  बने रहेंगे ...
आते जीवन की खुशियों को बदरंग करते ही रहेंगे
करते ही रहेंगे जब तक तुम सदमों को सहेजो

अच्छा हो इन सलीबों को,
नस्ली हिंसा के इरादों को
वही दफना दो, जला दो जहां से यह शुरू हुए थे
वरना ये समूची कौम को नरभक्षी की तरह खा जायेंगे
यह किसी काम नहीं आयेंगे
यह तो आग से उपजे शोले हैं
सिर्फ आग, हिंसा प्रतिशोध ही फैलायेंगे  
जलायेंगे और जलायेंगे।
        -----                     -सुरेंद्र भसीन 

Wednesday, March 1, 2017

सीधी बात

हर बार
 हुआ तो (हत्या,लूटपाट, बलात्कार ....   )
सब कुछ होता है।
मगर साबित कुछ नहीं होता है
क्योंकि पीड़ित पक्ष में
कोई गरीब, किसान  या मजदूर होता है।
न जाने कौन ?
कब ?
आके उसके साथ यह कर जाता है ?
देश की सरकार को तो कुछ नहीं दिखता
भगवान तक को कुछ पता नहीं होता है ...
तब सारी मानवता का जमीर तक न जाने कहाँ चला गया होता है...
किसके हाथों बिका हुआ होता है ?
पता नहीं चलता।

मैं पूछता हूँ -
क्या गरीब, किसान, गरीब  देश  का नागरिक नहीं होता है ?
क्या ? उसे किसी और भगवान ने बनाया हुआ होता है ?
                     ------------                      सुरेन्द्र भसीन