Saturday, August 27, 2016

भावनाएं  
बर्फ -सी जमीं होती हैं 
सभी के भीतर 
प्रेम-ऊष्मा से पिघलने को आतुर ...

पहले 
वे आद्र होंगी 
फिर वाष्प बनेंगी 
फिर हो जाएंगी ...
काफूर !
          -----       -सुरेंद्र भसीन 
    

Friday, July 8, 2016

संत पुस्तकें

श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी          गुरू  नानक पुत्र संत श्रीचन्द्र 
समर्थ गुरू रामदास                  गुरू राम सिंह कूका 
श्री गुरू अगंददेव                     श्री गुरू नानकदेव जी 
संत कवि बखना जी                 संत तुकाराम 
संत वेमना                              सूफी संत मलिक मुहम्मद जायसी 
संत बाबा लाल जी                   संत कवि प्राणनाथ 
संत ज्ञानदेव                            संत कवि अक्खा 
संत कवि रामानन्द                  संत कवि पोत्तन्ना 
समर्थ गुरू स्वामी रामदास       संत कवि नितानन्द 
संत सुंदरदास                          संत कवि नामदेव 
संत कवि चरणदास                  संत दादूदयाल 
संत दरिया साहब (बिहार वाले ) संत तुलसी साहिब 
संत दयानन्द सरस्वती             संत निष्चलदास 
संत अमीर ख़ुसरो                    संत पलटू दास 
संत मीराबाई                          संत कवि अब्दुर रहीम 
संत कवि रज्जब                     संत तिरूवल्लुवर 
संत गरीबदास                         कृष्ण्भक्त रसखान 
गोस्वामी तुलसीदास               सूफी संत बुल्ले साहब 
संत कवि रामतीर्थ                   संत कवि माँ पीरो 
स्वामी श्रद्धा नन्द                    संत महात्मा फुले 
संत गाडगे बाबा                      संत रविदास 
सूफी संत बाबा फरीद              संत कवि सहजोबाई 
संत जैतराम                           संत मलूकदास 
विवेकानंद                              भक्त कवि सूरदास 
भगवान महावीर                    संत कबीरदास 
                         -----------          














Saturday, May 28, 2016

बादल के पार

बादल के पार

हल्का होकर
हवा के साथ-साथ
उमड़ते-घुमड़ते
मैं थकान व चिन्ता के पहाड़
दूर, नीचे कहीं छोड़ आया हूँ ...

अब मेरे सामने
सारा नीला आकाश है मिलने के लिए
सदा-सदा के लिए
उसमें घुलने के लिए।
     ---------     सुरेन्द्र भसीन 

Saturday, May 21, 2016

आजादी

चारों ओर
ऊँची, बहुत ऊँची काँच की 
दीवारें हैं उठीं हुईं... 
जब  भी  उड़ता  हूँ
उनसे ही टकराकर 
फड़फड़ाकर नीचे गिर जाता हूँ। 

लाख चाहकर भी 
इनसे मुक़्त हो बाहर नहीं निकल पाता हूँ। 

रोशनी को  देखता तो हूँ 
उसकी छुअन नहीं पाता हूँ...  
उसके अहसास को समझता तो हूँ 
मगर तरसता ही रह जाता हूँ ... । 

छोड़ दो
खोल दो मुझे 
मैं तो उन्मुक्त उड़ना चाहता हूँ
उड़ते ही जाना चाहता हूँ 
रोशनी को, हवा को 
प्रकृति भरे आकाश को 
सीधे ही पाना चाहता हूँ .... 
उसमें  ही समा जाना चाहता हूँ। 
              --------           सुरेन्द्र भसीन  









Thursday, May 12, 2016

मेरी मजदूरी /मेरी मजबूरी

मेरी मजदूरी /मेरी मजबूरी

जब से
सिर पर रखी है नौकरी की टोकरी
यह मुझे रास आने लगी है या पता नहीं
उसकी थकन ही नस-नस से होती हुई
मेरे तलुवों में नाल-सी समा गई है क्योंकि
अब मैं
रात  को
सोते-सोते भी हाँ..जी ! हाँ..जी ! करता हूँ ।
और दिन में
आते-जाते हर कुत्ते-बिल्ली तक को सलाम करता हूँ। 

मेरी पुरानी आज़ादियाँ
देह छोड़ दूर खड़ी
मुझ पर हंसती हैं
और नयी लागू पाबंदियाँ
मेरे कराहने तक
दिन-भर मेरे नट-बोल्ट कसती हैं।

मानता हूँ मैं
कि मेरा यह दुख
देह का उतना नहीं जितना कि मानसिक है....

कितनी बार मैंने
जबरदस्ती इससे छुटकारा पाया भी है
मगर फिर मैं बाद में स्वयं ही
किसी काम को, सामाजिक मान्यता को व  किसी व्यस्तता को तरसता हूँ
और क्या करूं
थक  हारकर, मजबूर होकर
इस नाचाही व्यवस्था में आ धंसता हूँ।
                    --------------                       सुरेंद्र भसीन








Saturday, May 7, 2016

आकार

आकार

यह
मैं, तुम  या
सारी फ़ैली-फलती कायनात नहीं
जर्रे-जर्रे में
कण-कण में
पल-प्रतिपल समय ही फल-फूल रहा है।

समय ही
जब बड़ा पूरा हो जायेगा
तो टूट कर, गुणांक होकर
पुनः जर्रे... जर्रे में,
कण-कण में
प्रदार्थ रूप लेता जायेगा......
सृष्टी बन जायेगा......
फिर महाकाल कहलायेगा......
                  --------                    सुरेन्द्र भसीन           

Tuesday, April 12, 2016

Friday, April 8, 2016

प्यास


प्यास

मेरे भीतर
अब मेरा बचा क्या  है ?
मेरे  अन्तर्मन में तो -
तू, तू  और  सिर्फ तू ही बसा है।
भीतर से उठती आती है
सिर्फ तेरे नाम ही की आवाज
जो मुझे, अपने साथ ही खींच ले जाती है
घंटों की तेरी सुधी में
मेरी बेसुधी हो जाती है।
लौ-सी सनाथ खड़ी मेरी आत्मा
जलती है न बुझती है
तेरी चाह में बस
डबडबाये जाती है।
      -------           -सुरेन्द्र भसीन              





Saturday, April 2, 2016

कविता हुई या गजल

हमारे देश का समां क्या-क्या रंग दिखा रहा है 
यह आज किसी को भी समझ नहीं आ रहा है 
बोलने की आजादी क्या हुई इस देश में 
सारा  देश  ही पगला कर बड़-बड़ा रहा है। 
न जाने क्या का क्या बके जा रहा है और 
कहा कुछ जाता है और समझे कुछ जा रहा है। 
यहां कोई किसी की नहीं सुनता ठीक से 
हर कोई अपना ही आलाप गा रहा है। 
कोई गिरता-धंसता ही जा रहा है 
तो कोई बढ़ता-चढ़ता ही जा रहा है। 
किसी को मनरेगा की मजदूरी भी नसीब नहीं 
और कोई हजारों-करोड़ साफ़ किये जा रहा है। 
हंसने की वजह लाखों भी क्यों न हों मगर 
बिना वजह हर कोई सिसके ही जा रहा है। 
सारा देश कुछ अच्छा होने की इंतज़ार में है 
मगर इंतज़ार है कि बढ़ता ही जा रहा है। 

अब दोस्तों यह कविता हुई या गजल यह 
आपको क्या मुझी को समझ नहीं आ रहा है। 
                   ---------------   

Monday, March 28, 2016

शर्म से मैं गड़ जाता हूँ

जब-जब मैं तेरे द्वारे आता हूँ, तेरा तुझको अर्पण करते-करते 
शीश मेरा क्यों न झुक जाता है, शर्म से मैं क्यों न गड़ जाता हूँ?

ये फल-फूल या धूप-दीप, जब सब कुछ तो तेरा है तो 
क्या इन्हीं को अर्पित करने, मैं तेरे द्वारे आता हूँ ?

नहीं इनको चढ़ाने के बहाने मैं, खुद को तुम तक लाता हूँ।  
इसी बहाने अपने दैहिक दुख को मैं, तुमको  कहने  आता  हूँ। 



जब-जब मैं तेरे द्वारे आता हूँ, तेरा तुझको अर्पण करते-करते 
शीश मेरा क्यों न झुक जाता है, शर्म से मैं क्यों न गड़ जाता हूँ?
                        -------------           - सुरेन्द्र भसीन  

Tuesday, March 22, 2016

वो एक

वो एक 

जब भी, जब भी 
पासा फैंकता हूँ मैं 
कभी एक नहीं आता है..... ?

निन्यानवें पर 
खड़ा हूँ मैं। 
मगर एक नहीं आता है..... ?

मुझे उस एक का ही इंतज़ार है मगर 
वो एक नहीं आता है। 

वैसे  तो 
सारी उम्रह पासे पर 
एक   -एक ही आता रहा 
और मैं नासमझ उस एक से ही लड़ता रहा.... 
और एक-एक करके ही तो पहुंचा हूँ इस निन्यानवें तक 
मगर तब मैं एक के  महत्व को समझ नहीं पाता था
उस समय के मेरे रास्ते 
सीढ़ी और साँप से भरे रहे..... 
दो,तीन,चार, पांच और छह 
कभी न मिला मुझे 
साँपों से ही पड़ा वास्ता मेरा 
कभी भी सीढ़ी पर न चढ़ सका.....  
सीढ़ी के वास्ते मैंने 
अपने आपको जहरीले सांपों से भी डसवाया 
मगर फिर भी मेरे हिस्से में एक और सिर्फ एक ही आया। 

अब उम्रह के इस अंत में 
मैं समझ गया हूँ कि 
जब तक वो एक 
पहचान में नहीं आता है 
जीव अनेक नहीं हो पाता है..... 
.... लेकिन अब कैसा भय..... 
आँखें अब मुंदी जा रही हैं.... 
अब किसी साँप से बचाव नहीं 
और किसी सीढ़ी का लगाव नहीं....

अब तो 
उस एक के आते ही 
पूरे सौ हो जायेंगे/मेरी गोटी पुग जायेगी

अब तो 
केवल उस एक का ही इंतज़ार है 
कभी भी वो आयेगा 
और मुझे 
अनेक 
कर 
जायेगा..... 
            -----------            सुरेन्द्र भसीन  








Saturday, March 12, 2016

संतोष

संतोष 

सभी कुछ 
पाया नहीं जा सकता 
सभी कुछ 
खाया नहीं जा सकता 
सभी जगह जाया नहीं जा सकता.... 

सभी कुछ होता तो है मगर 
मिलता नहीं है किसी को 
जैसे रेल की समानांतर दो पटरियां.... 

लगातार होती
चलती 
मगर कहीं न मिलती 
जैसे....  
सभी कुछ 
          ------------        -सुरेन्द्र भसीन 








Friday, March 11, 2016

विरोधाभास

समझ नहीं आता 
जीवन कैसे-कैसे विरोधाभास दिखाता है 
और किधर से किधर को मुड़कर निकल जाता है 
कभी पानी में पत्थर 
और कभी पत्थरों से पानी निकल आता है। 

रुकता है पानी जहां 
सम्बन्धों का, हालातों का, मवाद का कीचड़ जमा हो जाता है 
और क्रोध का उफनता पानी नहीं
कीचड़ बना रुका पानी ही सम्बन्धों को ज्यादा नुकसान पहुंचाता है 

नीर हो या नाता हो 
कल-कल करता शीतल-शीतल 
बहता हुआ ही 
सदा भाता है। 
                    -------------                -सुरेन्द्र भसीन 


Monday, March 7, 2016

जन्म

अनेकानेक 
भावनाओं, उत्तेजनाओं और छटपटाहटों  
के स्फुरित हो जाने पर 
देह में नीचे बहुत नीचे 
पुकेसर(पुरुष केसर) जड़ें जमता। 

वक़्त आने पर 
चाहतों-अरमानों की देह धरता 
फूल बन उबर आता -
शिशु कहलाता। 
             ----------                           -सुरेन्द्र भसीन       

Friday, February 19, 2016

ग़ज़ल -३

अपने कलेजे में दर्द दफ़ना रखा है
मैंने सीने को कब्रगाह बना रखा है। 

न जाने कौन-कौन सा गम पड़ा है यहाँ 
अपनी ही याद को कफ़न ओढ़ा रखा है। 

गम भी झर-झर कर बहता हो जहाँ 
वहीं  प्रेम का अलाव सुलगा रखा है। 

चाहत, राहें, नदियाँ सूख जाती हैं जहाँ पर 
वहीं पर मैंने हसरतों का बाग़ बसा रखा है। 

तक़दीर के कुछ मायने नहीं  हैं मेरे लिये 
मैंने तो किस्मत को अंगूठा दिखा रखा है। 

कौन करेगा कुफ्र मुझ से प्रेम करने का 
मैंने तो आईनों को मुँह चिढ़ा रखा है। 
                 -----------                           - सुरेन्द्र भसीन 






Saturday, February 13, 2016

तीसरा नेत्र/नीति

सरहद पार से 
दुश्मन ने यह भांप लिया है कि 
यह भावना प्रधान देश है, 
यहाँ हवा में चारों ओर भावनाएँ ही बहती हैं, 
लोगों की नस-नस में भावनाएँ ही घुली रहती हैं इसलिए 
वह इन्हीं पर चुन-चुन कर वार करता है और 
हम विचलित होकर उसकी नीच हरकतों का अनुसरण करने लगें 
इसी का बेसब्री से इंतजार करता है।   
वह चाहता है हम उसी जैसा आतंकी व्यवहार करें -
उसी की तरह वैमनस्य बोएँ, हिंसा काटें, हथियारों का व्यापार करें,
और उसी के पीछे चलते-चलते उसके ही सपनों को साकार करें। 

मगर अपने संस्कारों, पूर्वजों की शिक्षाओं को ध्यान में रखकर 
हमें अपना सय्यम नहीं खोना है- 
हमें एकजुट होकर, उसकी नीचता का प्रतिकार करना है, 
उसको विश्व परिदृश्य में अलग-थलग करके,
उसका बहिष्कार करना है।              -सुरेन्द 









Friday, February 12, 2016

ग़ज़ल-2

"कभी-कभी प्रसिद्ध होना महान होना नहीं होता 
अनेकानेक बार प्रसिद्ध होने के लिए महानता को 
त्यागना पड़ता है फिर चाहे जातक प्रसिद्धि से 
महानता को प्राप्त कर जाये।"        - सुरेन्द्र 

वी - डे मैं नहीं मानता-मनाता लेकिन इन दिनों मौसम में 
ऐसा कुछ ऐसा घुला रहता है कि मन और तन पुलकित-सा 
हुआ रहता है और कामबाण अगर किसी को सीधा न भी लगे तो उसके आस-पास से तो निकलता ही है उसे विचलित करता।  आगे मस्त-मस्त होली भी तो है तो फिर मैंने गुस्ताखी कर दी ग़ज़ल जैसा कुछ लिखने की -

हमें भी अपने हुस्न में कभी नहला दिया करो 
हमारे साथ भी कभी  इश्क फरमा दिया करो। 

हम यूं तो खुद चढ़ नहीं सकते चंद सीढ़ियाँ 
मगर ख़्वाबों में ही चाँद दिखा दिया करो। 

वैसे तो जीवन भर ताजमहल देखने को तरसते रहे 
कभी-कभी अपना  यूं ही दीदार करा दिया करो।  

यूं तो जीवन की आखिरी सीढ़ी है यह हमारी 
मरते को अपने पहाड़ों पर  चढ़ा दिया करो।  -सुरेन्द्र 












Wednesday, February 10, 2016

ग़ज़ल



भावनाओं के उफ़ान में लफ्ज़ टूट जाते हैं 
रूलाई उमड़ पड़ती है लफ्ज़ छूट जाते हैं। 

वक़्त गुज़र जाने पर अपने बहुत याद आते हैं 
साँप निकल जाने पर हम लक़ीर पीटते रह जाते हैँ। 

हालातों के चौराहे पर हम जख़्म चाटते रह जाते हैं 
किनारे पर आकर ही अक्सर जहाज डूब जाते हैं। 

लफ्जों के सही चुनाव में भावनाएँ भी रूठ जाती हैं 
संबंध अस्थिर हो जाते हैं हम हाथ मलते रह जाते हैं। 
                                           --------------      


Tuesday, January 26, 2016

अस्तित्व

जैसे एक में
अनेक एक होते हैं 
उसी तरह मेरे में ही 
असंख्य मैं हैं बसे हुए
मेरी ही लिपी,प्रतिलिपि, अनुलिपि 
एक में एक 
गुंथे हुए, घुसे हुए, ठुंसे हुए 
विभिन्न भावों में, परिस्थितियों में उबरते 
अनेकानेक तेवर और रंग बदलते।    
चाहे वे मुझमें ही रहते हैं 
अपना तन-फन समेटे 
मेरे लिए ही लड़ते-भिड़ते,बुरा बनते
मगर फिर भी उनसे असहमति में 
अपना असल वजूद तलाशने में असमर्थ 
अपने ही रूपों का विरोधी 
अपने से द्व्न्द करता,
अपने को अनिश्चय के चौराहे पर खड़ा पाता हूँ, 
कह कर या करके बहुत पछ्ताता हूँ। 










Saturday, January 9, 2016

यात्राएँ

बचपन से 
अपनी इस लम्बी उम्ह्र के पार आते -आते
इस श्मशान में लकड़ियाँ ढोते तुम 
बुरी तरह सठियाने लगे हो और 
हड्डियों को लकड़ियाँ और 
लकड़ियों को हड्डियाँ बताने लगे हो।  

अब आग में 
लकड़ियों के झुलसने भर से तुम 
जहां मौत के शोक में जाने लगे हो
वहीं हड्डियों के आग में चटकने पर पगला कर 
जलती चिता के इर्द-गिर्द नाच-नाच कर 
लोहड़ी के गीत गाने लगे हो  

वैसे अनगिनत अपनों और बेगानों को 
इन लकड़ियों के हवाले कर चुके तुममें 
अब जीवन बचा ही कहाँ है,
तुम्हारी बीमार-बकराल देह को ढके ये कपड़े भी 
जैसे कीकर की छाल बन चुके हैं 
जो तुम्हारे मृत देह के साथ ही  जलाये जायेंगे,
और धू -धू जलती चिता के गिर्द 
लोग जलती हड्डियों का शोक नहीं 
नाच-नाच कर लोहड़ी का गीत 
नया ही गायेंगे। 
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