Saturday, May 21, 2016

आजादी

चारों ओर
ऊँची, बहुत ऊँची काँच की 
दीवारें हैं उठीं हुईं... 
जब  भी  उड़ता  हूँ
उनसे ही टकराकर 
फड़फड़ाकर नीचे गिर जाता हूँ। 

लाख चाहकर भी 
इनसे मुक़्त हो बाहर नहीं निकल पाता हूँ। 

रोशनी को  देखता तो हूँ 
उसकी छुअन नहीं पाता हूँ...  
उसके अहसास को समझता तो हूँ 
मगर तरसता ही रह जाता हूँ ... । 

छोड़ दो
खोल दो मुझे 
मैं तो उन्मुक्त उड़ना चाहता हूँ
उड़ते ही जाना चाहता हूँ 
रोशनी को, हवा को 
प्रकृति भरे आकाश को 
सीधे ही पाना चाहता हूँ .... 
उसमें  ही समा जाना चाहता हूँ। 
              --------           सुरेन्द्र भसीन  









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