Friday, February 12, 2016

ग़ज़ल-2

"कभी-कभी प्रसिद्ध होना महान होना नहीं होता 
अनेकानेक बार प्रसिद्ध होने के लिए महानता को 
त्यागना पड़ता है फिर चाहे जातक प्रसिद्धि से 
महानता को प्राप्त कर जाये।"        - सुरेन्द्र 

वी - डे मैं नहीं मानता-मनाता लेकिन इन दिनों मौसम में 
ऐसा कुछ ऐसा घुला रहता है कि मन और तन पुलकित-सा 
हुआ रहता है और कामबाण अगर किसी को सीधा न भी लगे तो उसके आस-पास से तो निकलता ही है उसे विचलित करता।  आगे मस्त-मस्त होली भी तो है तो फिर मैंने गुस्ताखी कर दी ग़ज़ल जैसा कुछ लिखने की -

हमें भी अपने हुस्न में कभी नहला दिया करो 
हमारे साथ भी कभी  इश्क फरमा दिया करो। 

हम यूं तो खुद चढ़ नहीं सकते चंद सीढ़ियाँ 
मगर ख़्वाबों में ही चाँद दिखा दिया करो। 

वैसे तो जीवन भर ताजमहल देखने को तरसते रहे 
कभी-कभी अपना  यूं ही दीदार करा दिया करो।  

यूं तो जीवन की आखिरी सीढ़ी है यह हमारी 
मरते को अपने पहाड़ों पर  चढ़ा दिया करो।  -सुरेन्द्र 












No comments:

Post a Comment