जब-जब मैं तेरे द्वारे आता हूँ, तेरा तुझको अर्पण करते-करते
शीश मेरा क्यों न झुक जाता है, शर्म से मैं क्यों न गड़ जाता हूँ?
शीश मेरा क्यों न झुक जाता है, शर्म से मैं क्यों न गड़ जाता हूँ?
ये फल-फूल या धूप-दीप, जब सब कुछ तो तेरा है तो
क्या इन्हीं को अर्पित करने, मैं तेरे द्वारे आता हूँ ?
नहीं इनको चढ़ाने के बहाने मैं, खुद को तुम तक लाता हूँ।
इसी बहाने अपने दैहिक दुख को मैं, तुमको कहने आता हूँ।
जब-जब मैं तेरे द्वारे आता हूँ, तेरा तुझको अर्पण करते-करते
शीश मेरा क्यों न झुक जाता है, शर्म से मैं क्यों न गड़ जाता हूँ?
------------- - सुरेन्द्र भसीन
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