(डॉ. नरेंद्र मोहन की कविता "पहली बार" के परिपेक्ष्य में)
औ !
पाषाण देह ,
तुम्हें पहला क्षण-सा ही
अंतिम क्षण क्यों चाहिए ... ?
प्रत्येक क्षण का सम्पूर्ण आनंद
तुम्हें क्यों नहीं चाहिए ... ?
शुरू कभी खत्म ही न हो ... ?
अगर नींद में हो तो
भोर ही न हो ... ?
सुबह का कलरव तो कतई न हो..... ?
सोचो अब
बदलाव से भय खाते
नीरसता में लुबडे(सराबोर) तुम्हें
पत्थर ही भाते हैं
पूरी तरह
थक-थम चुकी तुम्हारी सोच और शिराओं में
पत्थर ही तो पड़ते जाते हैं।
क्यों ?
अब पत्थर ही तुम्हें
प्रियजन नजर आते हैं।
------------- सुरेन्द्र भसीन
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