Monday, July 31, 2017

औ ! पाषाण देह


(डॉ. नरेंद्र मोहन  की  कविता "पहली बार" के  परिपेक्ष्य में)

औ !
पाषाण देह ,
तुम्हें पहला क्षण-सा ही
अंतिम क्षण क्यों चाहिए ...  ?
प्रत्येक क्षण का सम्पूर्ण आनंद
तुम्हें क्यों नहीं  चाहिए ...  ?
शुरू कभी खत्म ही न हो ... ?
अगर नींद में हो तो
भोर ही न हो ... ?
सुबह का कलरव तो कतई न हो..... ?

सोचो अब
बदलाव से भय खाते
नीरसता में लुबडे(सराबोर) तुम्हें
पत्थर ही भाते हैं
पूरी तरह
थक-थम चुकी तुम्हारी सोच और शिराओं में
पत्थर ही तो पड़ते जाते हैं।
क्यों ?
अब पत्थर ही तुम्हें
प्रियजन नजर आते हैं।
           -------------                    सुरेन्द्र भसीन

No comments:

Post a Comment