"देर हो चुकी थी" - कहानी
घर के दरवाजे पर एक भिखारी खड़ा न जाने कब से अलख जगा रहा था। मैंने जैसे ही दरवाजा खोला, सामने एक फटेहाल भिखारी खड़ा था। मैले-चीकट कपड़े, जो जगह-जगह से फ़टे थे,चेहरा काला पड़ा हुआ मानो किसी ने कीचड़ ही मल दिया हो मुँह पर,दाढ़ी और मूँछ बड़ी-बड़ी बिखरी हुईं, सिर के बाल भी खूब बड़े और आपस में उलझे हुए, पाँव फ़टे हुए, पाँव की उँगलियों में बिवाइयाँ पड़ी हुईं, जिनसे खून निकल-निकल कर उँगलियों पर जम चुका था और उस पर चिपटी गर्द...उफ़ ! देखते ही जी मिचलाता था।
मैं एकटक निहारती रही उसको। जैसे ही मैं कुछ लेने के लिए अन्दर मुड़ी ही थी कि अचानक दिल जोर से धड़का। मुझे कुछ शक हुआ। वापस मुड़ी और देखते ही भौंचक्की रह गई। अनजानी शंका से दिल कांपने लगा और सिर भी चकराने लगा। और... और न जाने कब मैं दीवार का सहारा लेकर वहीं दहलीज में बैठ गई।
थोड़ा पहचानने पर प्यार आँसू बनकर उमड़ने लगा। रुँधे गले से -
"भइया !यह क्या कर लिया तुमने ? देखो क्या हाल बना लिया है अपना।"
वह गुमसुम खड़ा रहा। चुपचाप सिर झुकाए मूर्ति बना। मैंने फिर कहा -"भइया ! तुम वापिस आ जाओ। हम कुछ न कहेंगे। "
मैं उसे आशामयी आँखों से निहारने लगी। उसके जवाब का इंतजार करती।मैंने फिर कहा -"सोना मिल गया था। तुम्हारे जाते ही। मेरे लिए नहीं तो अपने बूढ़े बाप का तो ध्यान करो। "
बापू के नाम पर वह थोड़ा विचलित हुआ लेकिन फिर रोष भरे स्वर में बोला -"भाई ! कैसा भाई ? अब मैं किसी का भाई, किसी का बेटा नहीं रहा। अब तुम सब कुछ भूल जाओ। सोना मिल गया था तो अच्छा हुआ और अगर नहीं मिला तो मुझे जी भर कर कोसना लेकिन विश्वासघाती न समझना। " इतना कहते-कहते ही एकबारगी उसका स्वर भर्रा गया। फिर वह थोड़ा रुककर बोला -"अब मैं सन्यासी हूँ, एक भिखारी हूँ। भाई को भूल जाओ। भिक्षा मिलेगी ?"
मैं सिर झुकाए सब कुछ सुनती रही। फिर जैसे नींद से चौंकी, अनजाने में उससे आंखें टकरा गईं। उसकी आंखों में रत्ती भर भी पश्चाताप न था। इस हालत में भी वह आत्मिक शांति से परिपूर्ण नजर आया। मैं फिर सिसकने लगी और उसने चुप्पी साध ली..... निर्विकार चुप्पी। मुझे लगा मानो समय रुक गया हो और वह युग-युगांतर से मेरे सामने ऐसे ही खड़ा हो सिर झुकाए, अनवरत लगातार.....।
आख़िरकार मैंने उसे रोटियाँ लाकर दीं, जो उसने निर्विकार भाव से ले लीं। मेरे सामने ही खानी शुरू कर दीं। वह रोटी खाता रहा और मैं उसे देख-देख कर रोती रही। वह उठा, बिना कुछ बोले मुड़ा और चला गया। मैं आँखों में आँसू लिए दहलीज पर बैठी उसे जाते देखती ही रह गयी।
मेरी यादें उमड़ती-घुमड़ती आंसुओं के रूप में काफी पीछे चली गईं।
जब माँ की मौत के बाद भाई उदास-सा रहने लगा। न अधिक कुछ खाता और न ही अपने शरीर का ही ध्यान रखता। चुप रहना तो उसकी प्रकृति ही थी। कुल मिलाकर दशा दुखदायी हो गई थी। बूढ़ा बापू पत्नि की मौत और बेटे की हालत, भला दो वार कैसे सह सकता ? उसने भाई को मेरे साथ भेज दिया कि वह कुछ काम ही सीख जायेगा। मेरे पति का सोने का काम था और अच्छा चल रहा था।
भाई का दिल धीरे-धीरे काम में रमने लगा। उसकी चुस्ती व स्फूर्ति फिर से लौट आई। एक बार तो ऐसा लगा कि मानो वह माँ की मौत का दर्द भूल गया हो।
एक दिन वह बहुत जल्दी ही दुकान से लौट आया। काफी घबराया हुआ था। उसका सिर शर्म से झुका हुआ था। आँखों में आँसू छलछला रहे थे। मैंने पूछा -"रज्जी ! क्या बात है ? बहुत परेशान हो?"
उसने मुँह बिगाड़ा। घबराई आवाज में बोला -"कुछ भी तो नहीं। "
मैंने फिर प्यार से पूछा -
"जरूर कुछ बात हुई है। क्या उन्होंने कुछ कहा है ?"
मेरे इतना कहते ही वह फट पड़ा। सिसकियों में बोला -"मैं दुकान पर बैठा सोना काट रहा था कि हथोड़े के वार से सोना उड़ गया। मैंने बहुत ढूंढा, लेकिन नहीं मिला। जीजाजी यही समझते हैं कि मैंने सोना चोरी कर लिया है। मुझे सबके सामने डाँटा और धक्का देकर दुकान से बाहर भी निकाल दिया। "
मैंने उसे प्यार से समझाना चाहा -"उन्हें मैं समझा दूंगी ! कि हमारा रज्जी ऐसा नहीं है। " पहले तो वह मानने को तैयार ही न हुआ। वापस बापू के पास जाने की जिद करने लगा। मैंने उसे काफ़ी देर तक समझकर यहीं रहने को राजी कर लिया।
शाम को इनके आने पर मैंने इन्हें समझाना चाहा। वह मुझ पर ही बिगड़ने लगे। बात बढ़ गई। उन्होंने मुझे भी खूब पीटा और रज्जी बाहर बैठा रोता रहा। मुझे पीटने का इतना दुख न हुआ जितना रज्जी की सिसकियों का। मैं रज्जी के टूटे दिल के बारे में जानती थी। उसकी भावना को समझती थी कि कौन भाई, अपनी बहन का घर उजाड़ना चाहेगा। ऐसी स्थिति में वह कोई गल्त कदम न उठाए, इसकी मुझे चिंता होने लगी।
उनके जाने के बाद मैंने तरीके-तरीके के उसे फिर समझाया। वह जल्दी ही समझ गया क्योंकि शायद उसे मेरी स्थिति का भी आभास हो गया था। मैंने कहा -"रज्जी हम दुकान पर फिर ढूंढेंगे। सोना जरूर मिल जायेगा। "
एक दिन,दो दिन और इसी प्रकार पूरा सप्तह बीत गया। हमने बहुत ढूंढा लेकिन सोना नहीं मिला। इसी बीच भाई ने रोटी खानी कम कर दी। मैंने उसे समझाया पर वह नहीं माना। एक दिन मैं घर पर नहीं थी। मैं जैसे ही घर आई, वह कुछ पी रहा था। मुझे देखकर उसने गिलास को छुपाना चाहा। मैं उसे घूरने लगी। उसने आँखें नीची कर लीं। मैनें उसके हाथ से गिलास छीन लिया। गिलास देखते ही मैं सकते में आ गई। उसमें पिसी हुईं लाल मिर्चें थीं। पानी के साथ घोल बनीं हुईं। मैं क्रोध और सहानुभूति से जल उठी।
मैंने लगभग चीखती हुई आवाज में कहा - "भइया यह क्या है। मिर्चें क्यों पीते हो ? क्यों मारना चाहते हो अपने आप को ? बापू को मैं क्या मुँह दिखाऊंगी ?"
वह चुप रहा। उसकी चुप्पी से मैं निराश हो गई। फूट-फूट कर रोने लगी। कभी अपने को कोसती तो कभी अपने भाग्य को।
फिर वह वहाँ से चला गया। और फिर न लौटा। शाम को इन्होंने बताया कि सोना मिल गया है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी....
आज दस वर्ष बाद वह जिस हालत में मुझे मिला/लगता है शायद कभी न मिलने के लिए।
--------------- सुरेन्द्र भसीन
घर के दरवाजे पर एक भिखारी खड़ा न जाने कब से अलख जगा रहा था। मैंने जैसे ही दरवाजा खोला, सामने एक फटेहाल भिखारी खड़ा था। मैले-चीकट कपड़े, जो जगह-जगह से फ़टे थे,चेहरा काला पड़ा हुआ मानो किसी ने कीचड़ ही मल दिया हो मुँह पर,दाढ़ी और मूँछ बड़ी-बड़ी बिखरी हुईं, सिर के बाल भी खूब बड़े और आपस में उलझे हुए, पाँव फ़टे हुए, पाँव की उँगलियों में बिवाइयाँ पड़ी हुईं, जिनसे खून निकल-निकल कर उँगलियों पर जम चुका था और उस पर चिपटी गर्द...उफ़ ! देखते ही जी मिचलाता था।
मैं एकटक निहारती रही उसको। जैसे ही मैं कुछ लेने के लिए अन्दर मुड़ी ही थी कि अचानक दिल जोर से धड़का। मुझे कुछ शक हुआ। वापस मुड़ी और देखते ही भौंचक्की रह गई। अनजानी शंका से दिल कांपने लगा और सिर भी चकराने लगा। और... और न जाने कब मैं दीवार का सहारा लेकर वहीं दहलीज में बैठ गई।
थोड़ा पहचानने पर प्यार आँसू बनकर उमड़ने लगा। रुँधे गले से -
"भइया !यह क्या कर लिया तुमने ? देखो क्या हाल बना लिया है अपना।"
वह गुमसुम खड़ा रहा। चुपचाप सिर झुकाए मूर्ति बना। मैंने फिर कहा -"भइया ! तुम वापिस आ जाओ। हम कुछ न कहेंगे। "
मैं उसे आशामयी आँखों से निहारने लगी। उसके जवाब का इंतजार करती।मैंने फिर कहा -"सोना मिल गया था। तुम्हारे जाते ही। मेरे लिए नहीं तो अपने बूढ़े बाप का तो ध्यान करो। "
बापू के नाम पर वह थोड़ा विचलित हुआ लेकिन फिर रोष भरे स्वर में बोला -"भाई ! कैसा भाई ? अब मैं किसी का भाई, किसी का बेटा नहीं रहा। अब तुम सब कुछ भूल जाओ। सोना मिल गया था तो अच्छा हुआ और अगर नहीं मिला तो मुझे जी भर कर कोसना लेकिन विश्वासघाती न समझना। " इतना कहते-कहते ही एकबारगी उसका स्वर भर्रा गया। फिर वह थोड़ा रुककर बोला -"अब मैं सन्यासी हूँ, एक भिखारी हूँ। भाई को भूल जाओ। भिक्षा मिलेगी ?"
मैं सिर झुकाए सब कुछ सुनती रही। फिर जैसे नींद से चौंकी, अनजाने में उससे आंखें टकरा गईं। उसकी आंखों में रत्ती भर भी पश्चाताप न था। इस हालत में भी वह आत्मिक शांति से परिपूर्ण नजर आया। मैं फिर सिसकने लगी और उसने चुप्पी साध ली..... निर्विकार चुप्पी। मुझे लगा मानो समय रुक गया हो और वह युग-युगांतर से मेरे सामने ऐसे ही खड़ा हो सिर झुकाए, अनवरत लगातार.....।
आख़िरकार मैंने उसे रोटियाँ लाकर दीं, जो उसने निर्विकार भाव से ले लीं। मेरे सामने ही खानी शुरू कर दीं। वह रोटी खाता रहा और मैं उसे देख-देख कर रोती रही। वह उठा, बिना कुछ बोले मुड़ा और चला गया। मैं आँखों में आँसू लिए दहलीज पर बैठी उसे जाते देखती ही रह गयी।
मेरी यादें उमड़ती-घुमड़ती आंसुओं के रूप में काफी पीछे चली गईं।
जब माँ की मौत के बाद भाई उदास-सा रहने लगा। न अधिक कुछ खाता और न ही अपने शरीर का ही ध्यान रखता। चुप रहना तो उसकी प्रकृति ही थी। कुल मिलाकर दशा दुखदायी हो गई थी। बूढ़ा बापू पत्नि की मौत और बेटे की हालत, भला दो वार कैसे सह सकता ? उसने भाई को मेरे साथ भेज दिया कि वह कुछ काम ही सीख जायेगा। मेरे पति का सोने का काम था और अच्छा चल रहा था।
भाई का दिल धीरे-धीरे काम में रमने लगा। उसकी चुस्ती व स्फूर्ति फिर से लौट आई। एक बार तो ऐसा लगा कि मानो वह माँ की मौत का दर्द भूल गया हो।
एक दिन वह बहुत जल्दी ही दुकान से लौट आया। काफी घबराया हुआ था। उसका सिर शर्म से झुका हुआ था। आँखों में आँसू छलछला रहे थे। मैंने पूछा -"रज्जी ! क्या बात है ? बहुत परेशान हो?"
उसने मुँह बिगाड़ा। घबराई आवाज में बोला -"कुछ भी तो नहीं। "
मैंने फिर प्यार से पूछा -
"जरूर कुछ बात हुई है। क्या उन्होंने कुछ कहा है ?"
मेरे इतना कहते ही वह फट पड़ा। सिसकियों में बोला -"मैं दुकान पर बैठा सोना काट रहा था कि हथोड़े के वार से सोना उड़ गया। मैंने बहुत ढूंढा, लेकिन नहीं मिला। जीजाजी यही समझते हैं कि मैंने सोना चोरी कर लिया है। मुझे सबके सामने डाँटा और धक्का देकर दुकान से बाहर भी निकाल दिया। "
मैंने उसे प्यार से समझाना चाहा -"उन्हें मैं समझा दूंगी ! कि हमारा रज्जी ऐसा नहीं है। " पहले तो वह मानने को तैयार ही न हुआ। वापस बापू के पास जाने की जिद करने लगा। मैंने उसे काफ़ी देर तक समझकर यहीं रहने को राजी कर लिया।
शाम को इनके आने पर मैंने इन्हें समझाना चाहा। वह मुझ पर ही बिगड़ने लगे। बात बढ़ गई। उन्होंने मुझे भी खूब पीटा और रज्जी बाहर बैठा रोता रहा। मुझे पीटने का इतना दुख न हुआ जितना रज्जी की सिसकियों का। मैं रज्जी के टूटे दिल के बारे में जानती थी। उसकी भावना को समझती थी कि कौन भाई, अपनी बहन का घर उजाड़ना चाहेगा। ऐसी स्थिति में वह कोई गल्त कदम न उठाए, इसकी मुझे चिंता होने लगी।
उनके जाने के बाद मैंने तरीके-तरीके के उसे फिर समझाया। वह जल्दी ही समझ गया क्योंकि शायद उसे मेरी स्थिति का भी आभास हो गया था। मैंने कहा -"रज्जी हम दुकान पर फिर ढूंढेंगे। सोना जरूर मिल जायेगा। "
एक दिन,दो दिन और इसी प्रकार पूरा सप्तह बीत गया। हमने बहुत ढूंढा लेकिन सोना नहीं मिला। इसी बीच भाई ने रोटी खानी कम कर दी। मैंने उसे समझाया पर वह नहीं माना। एक दिन मैं घर पर नहीं थी। मैं जैसे ही घर आई, वह कुछ पी रहा था। मुझे देखकर उसने गिलास को छुपाना चाहा। मैं उसे घूरने लगी। उसने आँखें नीची कर लीं। मैनें उसके हाथ से गिलास छीन लिया। गिलास देखते ही मैं सकते में आ गई। उसमें पिसी हुईं लाल मिर्चें थीं। पानी के साथ घोल बनीं हुईं। मैं क्रोध और सहानुभूति से जल उठी।
मैंने लगभग चीखती हुई आवाज में कहा - "भइया यह क्या है। मिर्चें क्यों पीते हो ? क्यों मारना चाहते हो अपने आप को ? बापू को मैं क्या मुँह दिखाऊंगी ?"
वह चुप रहा। उसकी चुप्पी से मैं निराश हो गई। फूट-फूट कर रोने लगी। कभी अपने को कोसती तो कभी अपने भाग्य को।
फिर वह वहाँ से चला गया। और फिर न लौटा। शाम को इन्होंने बताया कि सोना मिल गया है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी....
आज दस वर्ष बाद वह जिस हालत में मुझे मिला/लगता है शायद कभी न मिलने के लिए।
--------------- सुरेन्द्र भसीन
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