जीवन में
कई बार
छिटक कर हम कहीं
एक-दूसरे से दूर चले जाते हैं....
न चाहते हुए भी
बातों ही बातों में
आपस में यूहीं टकरा जाते हैं.....
जैसेकि पुरानी पड़ती गरारी के दांते घिस जाते हैं
अटक नहीं पाते
बिना वजह हम भी छिटक-छिटक जाते हैं....
तो पास रहते-रहते हुए भी
कहीं भीतर से परे-परे हो जाते हैं....
नाक आड़े न भी आए तो
बातों के किनारे ही जुड़ नहीं पाते हैं....
समझते हैं तो मान नहीं पाते
मानते हैं तो
न समझ बनकर ही अनदेखा करते जाते हैं...
अपनी जरूरतों की वजह से
ज्यादा विलग भी नहीं रह पाते
क्योंकि ग्यारह से घटकर एक जो हो जाते हैं
इसलिए बार-बार लड़खड़ाते हैं ...
फिर भी
होता है कई बार कि हम
न चाहते हुए भी
छिटक कर एक-दूसरे से
दूर चले जाते हैं.... ।
----------- - सुरेन्द्र भसीन
कई बार
छिटक कर हम कहीं
एक-दूसरे से दूर चले जाते हैं....
न चाहते हुए भी
बातों ही बातों में
आपस में यूहीं टकरा जाते हैं.....
जैसेकि पुरानी पड़ती गरारी के दांते घिस जाते हैं
अटक नहीं पाते
बिना वजह हम भी छिटक-छिटक जाते हैं....
तो पास रहते-रहते हुए भी
कहीं भीतर से परे-परे हो जाते हैं....
नाक आड़े न भी आए तो
बातों के किनारे ही जुड़ नहीं पाते हैं....
समझते हैं तो मान नहीं पाते
मानते हैं तो
न समझ बनकर ही अनदेखा करते जाते हैं...
अपनी जरूरतों की वजह से
ज्यादा विलग भी नहीं रह पाते
क्योंकि ग्यारह से घटकर एक जो हो जाते हैं
इसलिए बार-बार लड़खड़ाते हैं ...
फिर भी
होता है कई बार कि हम
न चाहते हुए भी
छिटक कर एक-दूसरे से
दूर चले जाते हैं.... ।
----------- - सुरेन्द्र भसीन
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