मैं पूछता हूँ
मेरे किये परोपकार
क्या कभी मेरे काम न आयेंगे ?
और मेरे दिन
बेरोजगारी और मुफलिसी में
क्या ऐसे ही गुज़र जायेंगे ?
इस खारे समुद्र में
यूहीं बिना किन्हीं साधनों के
नाव ठेलते -ठेलते
बिना चप्पू, बिना पतवार
हवा और लहरों की मार झेलते-झेलते ?
मेरे कर्मों की फेहरिस्त में
क्या गुनाह ही गुनाह बचें हैं बाकि
जो मेरे दिन
ऐसी अंधेरी खोह में
बीतते जायेंगे ?
कब होगी सुबह ?
कब फूटेगी ?
आशा-परिवर्तन की किरण।
कब बहुरेंगे (फिरेंगे) मेरे दुर्दिन ?
या जीना है मुझे
अब बस
टूटने की कगार तक
किसी हादसे की इन्तजार में।
----------- सुरेन्द्र भसीन
मेरे किये परोपकार
क्या कभी मेरे काम न आयेंगे ?
और मेरे दिन
बेरोजगारी और मुफलिसी में
क्या ऐसे ही गुज़र जायेंगे ?
इस खारे समुद्र में
यूहीं बिना किन्हीं साधनों के
नाव ठेलते -ठेलते
बिना चप्पू, बिना पतवार
हवा और लहरों की मार झेलते-झेलते ?
मेरे कर्मों की फेहरिस्त में
क्या गुनाह ही गुनाह बचें हैं बाकि
जो मेरे दिन
ऐसी अंधेरी खोह में
बीतते जायेंगे ?
कब होगी सुबह ?
कब फूटेगी ?
आशा-परिवर्तन की किरण।
कब बहुरेंगे (फिरेंगे) मेरे दुर्दिन ?
या जीना है मुझे
अब बस
टूटने की कगार तक
किसी हादसे की इन्तजार में।
----------- सुरेन्द्र भसीन
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