Tuesday, July 4, 2017

मेरा भाग्य

मैं  पूछता हूँ 
मेरे किये परोपकार 
क्या कभी मेरे काम न आयेंगे ?
और मेरे दिन 
बेरोजगारी और मुफलिसी में 
क्या ऐसे ही गुज़र जायेंगे ?
इस खारे समुद्र में 
यूहीं बिना किन्हीं साधनों के 
नाव ठेलते -ठेलते 
बिना चप्पू, बिना पतवार 
हवा और लहरों की मार झेलते-झेलते ?
मेरे कर्मों की फेहरिस्त में 
क्या गुनाह ही गुनाह बचें हैं बाकि 
जो मेरे दिन 
ऐसी अंधेरी खोह में 
बीतते जायेंगे ?
कब होगी सुबह ?
कब फूटेगी ?
आशा-परिवर्तन की किरण। 
कब बहुरेंगे (फिरेंगे) मेरे दुर्दिन ?
या जीना है मुझे 
अब बस 
टूटने की कगार तक 
किसी हादसे की इन्तजार में।  
     -----------           सुरेन्द्र भसीन 






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