Friday, July 28, 2017

रुपये कहाँ से लिए - कहानी

 "रुपये कहाँ से लिए "   कहानी 

काली ने  जैसे ही अपना हाथ बर्तन में मारा, गोंद खत्म थीवह उसी समय गोंद लेने चल दिया। 
           काली सोचने लगता है -"ये लाला भी बहुत चोर है। जब जाओ काम नहीं है।  उसका एक-सा जवाब होता है।  कभी मिन्नत-खुशामद करने से काम देता भी है तो मजदूरी कम।  ऊपर से मंहगाई इतनी है कि कुछ मत पूछो ! पहले दो-ढाई रुपए बच जाया करते थे।  अब मारा-मारी करने पर भी डेढ़-दो रुपए ही बचते हैं। "
            इन्हीं विचारों में गुम काली लाला की दुकान पर पहुँच जाता है। लाला ने उसे आड़े हाथों लिया - "क्या है ?"
संक्षिप्त उत्तर  - "गोंद। "
"अभी कल ही तो ले गया था न ! फिर खत्म कैसे हो गई ? अच्छा देता हूँ। "
काली फिर विचारों में गुम हो जाता है  - "ये लाला क्या समझता है। गोंद मैं पीता हूँ।  ह्र समय लाला का दिमाग चढ़ा ही रहता है।  दिनोंदिन लाला कई तोंद बढ़ती ही जा रही है। "
"ये ले गोंद ! अब दो दिन से पहले नहीं मिलेगी, कहे  देता हूँ। " लाला का कर्कश स्वर काली को दुकान पर खींच लाता है। 
"खत्म हो गई तो ?"
"कम  लगाया कर न ! जबान चलाता है।  अजीब छोकरा है।  काम  दो तो  मुसीबत, न दो तो मुसीबत।  आकर खड़े हो जायेंगे भिखमंगों की तरह। "
लाला का चुभता स्वर, जाते-जाते भी काली के कानों में पड़ कर उसे भेद ही गया।  काली चुप।  अनसुना करते हुए।  अपने कदम घर की ओर बढ़ा देता है। 
    घर आकर काली लिफाफे बनाना शुरू कर देता है।  विचारों के बादल फिर घुमड़ने लगे हैं - "ये  माँ भी क्या चीज़ है। जब से बापू घर छोड़कर गया है, माँ तो मानों पत्थर ही हो गई है।  आज  छ: महीने होने को हुए।  मैंने उसके मुँह पर मुस्कान तक नहीं देखी। अंदर  ही अंदर घुलती जाएगी, पर बताएगी कुछ नहीं।  कमजोर इतनी हो गयी है कि कभी-कभी तो उसे चककर भी आ जाते हैं।  चेहरे पर मुर्दनी ही ज़मी रहती है हर वक्त।  मुझे अब वह प्यार भी नहीं करती पहले जैसा और न गुस्सा ही।  उसकी चुप्पी ही पूरी सजा है मेरे लिए। काम छोड़ने को कहूँ तो  कोई  जवाब  नहीं देती।  कई बार कहा मैं बड़ा हो गया हूँ। तुम आराम करो, मैं काम करूँगा।  सुनती ही नहीं।  जो मिलता है महीने भर में खत्म हो जाता है।  कभी उसने यह नहीं सोचा कि कभी वह या मैं बीमार ही हो जाएं तो दवा कहाँ से आएगी ! आजकल तो बिना पैसे के मिट्टी भी नहीं मिलती। "
           माँ के बीमार होने की कल्पना ही काली को काम करने की शक्ति प्रदान करने के लिए काफी है।  उसके हाथ और तेज चलने लगते हैं।   विचारों की कड़ियाँ फिर जुड़ीं  - "माँ को नहीं मालूम कि मैं यह काम करता हूँ।  अगर पता चल जाए, तो पता नहीं उसे कैसा लगे ? यह जानकर वह दुखी होगी या खुश  यह पता लगाना भी तो मुश्किल है।  इसलिए तो डरता हूँ, बताता नहीं।  हर समय मन अनहोनी शंका से कांपता रहता है।  मन में न जाने क्यों डर बैठ गया है। "
        दरवाजे की खडख़ड़ाहट से काली की तंद्रा भंग हो गई।  माँ आ गई।  वह बौखला गया।  जल्दी-जल्दी सामान छुपा कर दरवाजा खोलता है।  माँ थकी-हारी अंदर आई।  चेहरे पर मुर्दनी अधिक गहरी है।  आते ही रोटी बनाना शुरू।  काली चुपचाप रोटी बनाती माँ को देखे जा रहा है।  धीरे-धीरे चलते हाथ।  निराशा व थकान से टूटा मन व तन।  रोटी बन गई।  माँ की उदास आँखों के मौन निमंत्रण को काली ने समझा।  वह माँ के पास आ बैठता है।  माँ ने रोटी परोसी।  काली रोटी खाने लगा।  सब कुछ धीरे-धीरे यन्त्रवत निस्तब्धता में खोता जा रहा था।  न खाने वाले को खुशी  या खाने की इच्छा और न खिलाने वाले में चाव या उमंग।  सब कुछ मानो जबरदस्ती हो रहा हो।  काली दो कौर खाकर ही उठ गया, क्योंकि मन की रुलाई से आँखों में आने वाले आँसू उठने को मजबूर कर देते हैं। 
           रात को बिस्तर पर फिर काली के मस्तिष्क में विचार श्रंखलाबद्ध होकर आने लगे - "माँ ने आज रोटी नहीं खाई।  ज्यादा चिंता में लगती है।  वह माँ से पूछे भी तो क्या ? उत्तर की आशा नहीं की जा सकती।" एक बारगी वह माँ को नजदीक सोए हुए महसूसने की चेष्टा करता है।   "कुछ बात है जरूर जो माँ को खाए जा रही है। मगर बताती नहीं। कई बार पूछा। उसके आगे रोया भी।  हर बार की तरह चुप्पी ही उसका उत्तर, वही मुर्दनी चेहरा, सूनी आंखें। "
         अब तो उसे भी अधिक बोलना अच्छा नहीं लगता।  कोई फालतू प्रश्न करे।  वह झुँझला उठता है। उसकी आँखों में नापसंदगी की झलक साफ़ सामने वाला देख लेता है। 
                    सुबह का समय।  माँ अभी सोई है।  सिर पर कपड़ा बंधा है।  काली हैरान, आज पहली बार माँ से पहले उठा है।  वह सामने पड़े ड्रम पर बैठ गया।  इस समय उसकी आंखों के आगे सोई हुई माँ है, जो नींद में भी परेशान लगती है।  बार-बार  अपना सिर दबाती, हाथ-पाँव पटकती हुई।  काली सोचता है - "थक भी तो बहुत जाती होगी।  सुबह से छ:-सात  घरों के काम करना आसान बात नहीं। "
   लगभग दस-बीस मिनट यूँ ही बीत गए।  माँ जाग गयी।  काली ड्रम से उठकर माँ के पास आ बैठा। 
 "क्या बात है माँ ?  क्या तबीयत खराब है ?" 
माँ पूर्ववत मौन है। 
काली माँ की बाजू छूकर देखता है। 
        "तुझे तो बुखार है।  आज काम पर नहीं जाना।  मैं चाय बना दूँ ?"
काली चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ाकर माँ के पास आ बैठा।  माँ की आँख के कोर उसे भीगे-भीगे से जान पड़े।  वह सिर झुका लेता है। 
   काली लगातार जमीन कुरेदे जा रहा है।  माँ उसे बिना पलक झपके देखे जा रही है। वह नजर उठा कर देखता है।  माँ ने आँखें चुरा लीं।  दोनों के बीच बनी लगातार चुप्पी दोनों के दिलों में अपराध भावना का विकास कर रही है। 
            चाय  भी बन गई, टूटे कपों में काली चाय डालकर, एक कप माँ की ओर बढ़ा देता है।  अपनी चाय जल्दी-जल्दी सुड़क  कर माँ की जगह काम पर निकल पड़ा।  
काली यह सोचकर दुखी है कि माँ ने चाय नहीं पी।  काली की आँखों में अनायास ही आँसू आ गए।  इस तरह माँ ज्यादा दिन चलने की नहीं, यह काली अच्छी तरह जानता है।  लेकिन वह क्या करे यह उसे समझ नहीं आता।  दिनोंदिन अंधेरी गुफा में दोनों धंसते ही जा रहे हैं।  कहीं भी रोशनी की कोई किरण नहीं।  क्या यह रास्ता किसी की मौत पर खत्म होगा, यह भी काली नहीं जानता। 
रात को काली घर पहुँचा।  माँ बेसुध पड़ी है। बुखार काफ़ी तेज़।  काली घबरा जाता है।  आज फिर माँ ने सारा दिन कुछ नहीं खाया।  वह अपने लिए भी कुछ नहीं बनाता।  जमीन पर ही टूटी चटाई बिछाकर पसर जाता है।  
आज काली भी उदास है।
वह सोचने लगता है - " क्या करे वह ! कहाँ जाए ? कभी तो दिल करता है कि अपना सिर पीट ले या  जोर-जोर से रोए। " उसकी बड़ी बेबसी है। 
इसी तरह सोचते-विचारते  घंटा बीत गया।  काली की तन्द्रा माँ की क्षण-प्रतिक्षण तेज होती कराहटों से भंग हुई।  बुखार बढ़ता ही जा रहा है।  काली की चिंता भी बढ़ रही है।  वह माँ की बीमारी का जिम्मेवार भी अब खुद को समझने लगा है क्योंकि न वह बीमारी के बारे में सोचता और न माँ बीमार ही होती। माँ की कराहटें अब ओर तेज हो चुकी हैं।  वह जल्दी से अपना खजाना निकालकर गिनता है।  लगभग साठ रुपए।  काली फुर्ती से जाकर डॉक्टर बुला लाया।  डॉक्टर ने आकर दवा दी।  अपनी फीस पच्चीस रुपए लेकर चला गया।  काली की सोच में एक क्षेत्र की वृद्धि हुई।  पहले सोचने का केंद्र माँ थी।  अब माँ, बीमारी  और  अपनी  महीने भर की कमाई की काली को चिंता हो आई है।  शरीर से चाहे उसने पच्चीस रुपए अपने से अलग कर लिए हों लेकिन मन ने फीस अदा मजबूरी में ही की। 
            काली सारी रात जागता रहा।  घंटे-घंटे बाद माँ को छूकर बुखार का अंदाज लगाता रहा। 
        अब सुबह हो चुकी है।  माँ को आराम है। बुखार के साथ काली की चिंता भी कम है।  
नींद खुलते ही माँ पूछती है -"रुपए कहाँ से लिए ?"
काली थोड़ा मुस्कुराता है।  सोचता है - " माँ बोली तो सही। "
काली को चुप देखकर माँ के चेहरे के भाव बदलने लगे  हैं। काली  यह देखकर घबरा जाता है। 
वह माँ को लिफाफे बनाने की बात कहता है। 
              काली, माँ के चेहरे के भाव पढ़ने की चेष्टा करता है।  माँ की आँखें बंद हैं।  दोनों आँखों से एक-एक आंसू गालों पर ढुलक  चुका है।  होंठ इस अंदाज से फैले हैं मानों मुस्कुरा रहे हैं। 
           काली हर बार की तरह इस बार भी नहीं समझ पाता कि माँ को इससे प्रसन्नता पहुँची है या दुख हुआ है। 
                           ------------                        सुरेन्द्र भसीन  







































            

       















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