कई बार
महज चीखने से या
रो देने भर से
व्यक्ति का सम्पूर्ण दुख
समाप्त (बयाँ ) नहीं हो जाता
जैसे मटका टेढ़ा भर करने से,
उलीचने से खाली नहीं हो जाता
उसको उलटाना पड़ता है...
वैसे ही व्यक्ति का नासूर जानने के लिए
उसके अंदर , भीतर तक जाना पड़ता है...
कि क्या टूटा है ?
कि क्या बहा है ?
कि क्या रिसा है नासूर बनकर
काली जख्मी दिमागी कंदराओं से.....
फिर पूरी सफाई होगी, सुखाई होगी
तरह-तरह के मनुहारी संतोष के, सांत्वना के
शीतल कोमल लेप लगेंगे
वक्त पाकर सूखेंगे।
तो ही तो रोना रुकेगा,
दुख का स्त्राव रुकेगा।
---------------- - सुरेन्द्र भसीन
महज चीखने से या
रो देने भर से
व्यक्ति का सम्पूर्ण दुख
समाप्त (बयाँ ) नहीं हो जाता
जैसे मटका टेढ़ा भर करने से,
उलीचने से खाली नहीं हो जाता
उसको उलटाना पड़ता है...
वैसे ही व्यक्ति का नासूर जानने के लिए
उसके अंदर , भीतर तक जाना पड़ता है...
कि क्या टूटा है ?
कि क्या बहा है ?
कि क्या रिसा है नासूर बनकर
काली जख्मी दिमागी कंदराओं से.....
फिर पूरी सफाई होगी, सुखाई होगी
तरह-तरह के मनुहारी संतोष के, सांत्वना के
शीतल कोमल लेप लगेंगे
वक्त पाकर सूखेंगे।
तो ही तो रोना रुकेगा,
दुख का स्त्राव रुकेगा।
---------------- - सुरेन्द्र भसीन
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