कुछ भी कह लो
कुछ भी कर लो
व्यक्ति अपने
प्रारब्ध से, अंत से,
अपने भविष्य से या किस्मत से
बच नहीं पाता है।
वह वैसा होकर ही रहता है
जैसा उसको होना होता है,
वह वहां पहुँच ही जाता है
जहाँ उसे जाना होता है।
कभी-कभी
सहजता से,सरलता से
हवा के झोंके के साथ-साथ
उमड़-घुमड़कर
पेड की
उस कंटीली टहनी तक पहुँच ही जाता है
जहाँ हवा में फट कर चिंदी कागज की तरह
उसे तमाम होना होता है।
और कभी
नालायक बच्चों के जूतों की ठोकरें खाता -
कटता-फटता,
अटकता-टकराता
सारी उम्रः न-नुकर करता
फिर भी पहुँचता है वहीं अपनी कंटीली झाड़ी के पास
अपने अंतिम पड़ाव पर
फनाह होने को।
--------- सुरेन्द्र भसीन
कुछ भी कर लो
व्यक्ति अपने
प्रारब्ध से, अंत से,
अपने भविष्य से या किस्मत से
बच नहीं पाता है।
वह वैसा होकर ही रहता है
जैसा उसको होना होता है,
वह वहां पहुँच ही जाता है
जहाँ उसे जाना होता है।
कभी-कभी
सहजता से,सरलता से
हवा के झोंके के साथ-साथ
उमड़-घुमड़कर
पेड की
उस कंटीली टहनी तक पहुँच ही जाता है
जहाँ हवा में फट कर चिंदी कागज की तरह
उसे तमाम होना होता है।
और कभी
नालायक बच्चों के जूतों की ठोकरें खाता -
कटता-फटता,
अटकता-टकराता
सारी उम्रः न-नुकर करता
फिर भी पहुँचता है वहीं अपनी कंटीली झाड़ी के पास
अपने अंतिम पड़ाव पर
फनाह होने को।
--------- सुरेन्द्र भसीन
No comments:
Post a Comment