Wednesday, April 12, 2017

दान का प्रयास

जाता हुआ 
जो देता है 
ताकि मेरी दया के लिए 
मुझे लोग याद रखें 
मेरे जाने के बाद ... 
 वैसे भी तो 
सब यहाँ छूट ही जाना है ... 
अपना तो सब कुछ पुर गया है, 
बाकी सब कुछ बेगाना ही है ... 
यह दिया  दान नहीं है 
स्वार्थ ही है 
हारी हुई बाजी जीतने का 
एक और 
असफल प्रयास... 
और पर तौलते 
उड़ने को आतुर 
पक्षी की पहचान है यह 
कि पक्षी के परों में 
कुछ नहीं समायेगा 
अगर उसने 
उठाने का किया प्रयास 
तो वह उड़ 
नहीं पायेगा। 
 -----------                 -सुरेन्द्र भसीन    

Tuesday, April 11, 2017

कृष्णावतार

नहीं 
मैं नहीं मानता कि 
समाज उत्थान के लिए 
समय-समय पर देवता ही लेते हैं 
इस धरती पर अवतार। 
कोई इंसान ही 
जीवन भट्टी पर तपकर 
हम सब के बीच देवता के 
रूप में होता है तैयार। 
जैसे दबाव पड़ने पर 
विशेष परिस्तिथियों में 
खान का कोयला ही ले ले 
जगमग हीरे का आकार। 
वैसे ही
कोई कालिया , किसान या कन्हैया ही 
अपने वक्त को 
धरती को जगमगाने के लिए 
पा जाता है देवों का अवतार -
कृष्णावतार !
       -------------           -सुरेन्द्र भसीन  



दुख हरण

कई बार
महज चीखने से या
रो देने भर से
व्यक्ति का सम्पूर्ण दुख
समाप्त (बयाँ ) नहीं हो जाता
जैसे मटका टेढ़ा भर करने से,
उलीचने से खाली नहीं हो जाता
उसको उलटाना पड़ता है...
वैसे ही व्यक्ति का नासूर जानने के लिए
उसके अंदर , भीतर तक जाना पड़ता है...
कि क्या टूटा है ?
कि क्या बहा है ?
कि क्या रिसा है नासूर बनकर
काली जख्मी दिमागी कंदराओं से.....
फिर  पूरी सफाई होगी, सुखाई होगी
तरह-तरह के मनुहारी संतोष के, सांत्वना के
शीतल कोमल लेप लगेंगे
वक्त पाकर सूखेंगे।
तो ही तो  रोना रुकेगा,
दुख का स्त्राव  रुकेगा।
----------------              - सुरेन्द्र भसीन
   

परिवर्तन-परिवर्तन


परिवर्तन-परिवर्तन तो हर कोई चिल्लाता है
मगर बदलना कोई नहीं चाहता है।
कृष्ण- राम को हर कोई चाहता है
मगर बनना कोई नहीं चाहता है।
सीखाना तो हर कोई चाहता है
मगर सीखना कोई नहीं चाहता है।
सच सुनना तो हर कोई चाहता है
मगर बोलना कोई नहीं चाहता है।
मरना तो कोई नहीं चाहता है
मगर स्वर्ग हर कोई जाना चाहता है।
 ------------                 ---सुरेंद्र भसीन  

Monday, April 10, 2017

नया जीवन

कभी-कभी
अपनी पुरानी बनावट में
वह नहीं कर पाता है
जो चकनाचूर होकर
बहते हुए व्यक्ति कर जाता है।
कितनी ग्लानि होती है
पुराना होकर, थका होकर
बेकार एक ही जगह पड़े हुए
और कितनी मौज
संतोष, उल्लास होता है
हवा में, पानी में या समय संग बहते हुए।
नये-नये अनुभवों को सहेजते
बढ़ते हुए, बहते हुए, चलते हुए
जीवंत ही लगता है सब कुछ।
मगर जीवन के शुरू में एक निज का आकार
सभी को भाता है।
फिर चाहे बीतते वक्त के साथ
व्यक्ति उससे उकताता चला जाता है
दूसरी नयी ताजी देह चाहता है
व्यक्ति फिर से
जल्दी से
शुरू करना या
होना चाहता है
चकनाचूर होकर
नया हो जाना चाहता है।
----------- -सुरेन्द्र भसीन

Sunday, April 9, 2017

सुनने वाला

सुनने वाला तो 
सभी को चाहिए -
माँ के रूप में, बहन, प्रेमिका, बीवी के रूप में,
मातहत, भाई, दोस्त, पिता रूप में 
या फिर 
मूर्ति रूपी भगवान के रूप में 
और  न मिला तो 
अपने निज (छ्दम या स्व ) रूप 
को ही  सुनाने बैठ जायेगा और 
 बातें करता करता  व्यक्ति
अपने भीतर ही, मौन हो जाएगा  
कंदराओं में खो जाएगा
साधू या  फकीर 
हो जायेगा। 
 -----------                -सुरेन्द्र भसीन 

आहत

आहत

बिजली की तारों पर
बैठे दो कबूतर
कोई प्रेम-क्रीड़ा करते हैं
या फिर किसी वर्चस्व की
लड़ाई लड़ते हैं...

मगर तारों में बिजली
आ जाने भर से
फड़क के
नीचे आ पड़ते हैं।
 -------------              --सुरेन्द्र भसीन  

लालसा

लालसा 
हो सकता है 
यहाँ से जाने के बाद 
आकाश में तारे ही बन जाते हों 
हम सब लोग 
ऊपर, बहुत ऊपर जाकर 
आकाश में टिमटिमाते 
डबडबायी आँखों से 
नीचे झाँकते 
वापिस नीचे आने को आतुर 
लालायित फिर से 
अपना घर बसाने को 
अपनी गलतियाँ मिटाने को 
एक नया 
सुधरा जीवन पाने को।
 ------------                  -सुरेन्द्र भसीन  


Friday, April 7, 2017

मसले

मंदिर-मस्जिद                 (अधूरी है....
के झगड़े में
नफ़रत के बीज तुमने
इतने बो दिए हैं कि
अपने देवता न जाने तुमने
कहाँ खो दिए हैं.....
आंसू चाहे नहीं निकले
मगर ये दिल कितने रो दिए हैं
अपने देवता तुमने न जाने
कहाँ खो दिए हैं ....
पूजा  की पद्धतियों को सही ठहराते-चुनते
कितने रिश्ते तुमने धो  दिए हैं कि
अपने देवता तुमने  कहाँ खो दिए हैं ......
---------------            - सुरेंद्र भसीन

समझदारी

कुछ लोग कैसा जुगाड़ लगाते हैं
साँप की भी सीढ़ी बनाकर
ऊपर चढ़ जाते हैं।
और कुछ लोग
सीढ़ी को साँप समझकर
छूने से भी घबराते हैं....
कुछ को तरक्की का जनून
यूँ सवार होता है कि
दिन -रात खटते हैं ...
तो कुछ को
काम का फोबिया ऐसा हो जाता है कि
बैठे-बैठे घटते हैं ...

मुश्किल
तो दोनों में ही है
अति सदा गति (तेज या धीमे ) पर भारी है 
इसलिए, संतुलित चलने में ही
समझदारी है।    
 ------------                             - सुरेन्द भसीन 

उफ़ ये लड़कियाँ

जब लड़कियाँ 
प्रशन पूछती हैं ज्यादा 
तो अधिकार जमाने लगती हैं 
जब अधिकार दिखाने लगती हैं ज्यादा 
तो प्यार जताने लगती हैं 
और जब वो 
पहले प्यार करने और 
जताने लगें 
 समझो 
शिकारी कौन ?  तो शिकार कौन ?
-------------                     - सुरेंद्र भसीन 


Sunday, April 2, 2017

.कह दो! कह दो!

.कह दो!
कह दो!
कि हमें
इंसानो पर अब भरोसा नहीं रहा...
अब मशीने ही हमें 
राह बताएंगी 
सही और गल्त की
पहचान भी कराएँगी
वही हमारा इष्ट भी होंगी 
वही हमें पैदा करेंगी 
वही हमें 
श्मशान में जलाएँगी। 
------- सुरेन्द्र भसीन 


समझ

कई बार तो 
प्रशन करने वाला 
प्रश्न में ही बता देता है 
कि वह 
उत्तर क्या चाहता है ?

और माकूल उत्तर न पाकर 
बड़ा ही छटपटाता है। 
आपको भी दरकिनार करता,  
समूचा धकेलता 
आगे निकल जाता है। 
इसलिए प्रशन को पहले समझो 
प्रशन में 
उत्तर ही नहीं सम्बन्ध भी बसा होता है  
और अगर 
तुमने किया अनदेखा 
तो जीवन में बहुत बुरा होता है। 
      ------------                      -सुरेन्द्र भसीन   

Saturday, April 1, 2017

अंत से मिलन

कुछ भी कह लो 
कुछ भी कर लो 
व्यक्ति अपने 
प्रारब्ध से, अंत से,
अपने भविष्य से या किस्मत से 
बच नहीं पाता है। 
वह वैसा होकर ही रहता है 
जैसा उसको होना होता है, 
वह वहां पहुँच ही जाता है 
जहाँ उसे जाना होता है। 
कभी-कभी 
सहजता से,सरलता से 
हवा के झोंके के साथ-साथ 
उमड़-घुमड़कर 
पेड की 
उस कंटीली टहनी तक पहुँच ही जाता है
जहाँ हवा में फट कर चिंदी कागज की तरह 
उसे तमाम होना होता है। 
और कभी 
नालायक बच्चों के जूतों की ठोकरें खाता -
कटता-फटता,
अटकता-टकराता 
सारी उम्रः न-नुकर करता 
फिर भी पहुँचता है वहीं अपनी कंटीली झाड़ी के पास 
अपने अंतिम पड़ाव पर 
फनाह होने को। 
    ---------         सुरेन्द्र भसीन