Wednesday, October 31, 2018

बेटा

दूसरों की
ऊँची से ऊँची उड़ती पतंग को देखकर
तुम झुंझलाहट में
अपनी भी पतंग को
बेतहाशा तुनके लगाते जा रहे हो
नहीं जानते कि
कमजोर कमर की बनी तुम्हारी यह पतंग
ज्यादा तुनके नहीं झेल पायेगी और
न ज्यादा ऊंचा उड़ पायेगी....
तुम्हारी जिद से टूट कर
नीचे धराशायी जरूर हो जायेगी...
अच्छा हो इसकी क्षमता को समझ
कुछ कम ही उड़ा लो और
 इसे टूटने व टूट कर बिखरने से
बचा लो।
       ------       सुरेन्द्र भसीन

Tuesday, October 30, 2018

अनाम योद्धा

मैं
अपने आपको
एक बिन्दू से दूसरे बिन्दू तक
चलता हुआ देख रहा हूँ लगातार...
रोज बदलता हुआ
निरंतर सफ़र करता हुआ।
देह के एक बिन्दू से जीवन के विभिन्न बिंदुओं तक
रोज होती है मेरी यात्रा मग़र
मैं समानुपाती नहीं बढ़ पाता हूँ
 - कहीं थोड़ा तो कहीं ज्यादा,
   कहीं आगे तो कहीं पीछे होता जाता...
फिर-फिर कोशिश करता
अपना आंकलन खुद ही करता
घिसट-घिसट के ही सही
मग़र आगे बढ़ता
अपने से संघर्ष करता।
          -------        सुरेन्द्र भसीन

Monday, October 29, 2018

झूठ और सच

पहले
झूठ और सच में
अंतर हुआ करता था
कई समुद्रीमील का...
झूठ को सच साबित करने वाला
उसमें डूब ही जाता था हमेशा
और अपने को सही साबित नहीं कर पाता था।
दोनों अपनी चाल-ढाल, रंग-ढंग से
दूर से ही पहचाने जाते थे,
कभी एक-से नजर नहीं आते थे..
मग़र आज तो
झूठ और सच एक ही हो गए हैं
पहचान में ही नहीं आते
दोनों जुड़वाँ भाईयों जैसे
कपड़े बदल-बदल कर आते-जाते बार-बार सामने
सच में,
झूठ और सच में हम अंतर नहीं कर पाते...
सोचो कभी, क्या हो?
कि किसी सदी का
काला और सफ़ेद खो जाए
याकि एक हो जाए-
सारा काला या सारा सफेद?
दिन या रात तो बचे ही न जैसे...
सारे रंग  -  बदरंग
फिर ऋतुएँ भी नहीं बदलेंगी
समय भी कहीं रुक गया हो जैसे ????
झूठ और सच का लंबा अंतर
बना ही रहना चाहिए
वैसे...!
        -------       सुरेन्द्र भसीन

Friday, October 26, 2018

झूठ - एक सामाजिक व्यवहार

सामाजिक व्यवस्था

अब
झूठ भी
सामाजिक व्यवहार ही हो गया है
एक मान्यता प्राप्त छूट याकि सुविधा-
      मैंने तो देखा नहीं
      मुझे पता ही नही
      मैं नहीं जानता या मानता
      तुम्हारे पास क्या सुबूत है
      मेरा यह मतलब तो नहीं था
      वे घर या ऑफिस में नहीं हैं
      मैं जरूरी मीटिंग में हूँ
और आँकड़ों व तथ्यों के साथ
मनमानी खिलवाड़ भी तो एक आम बात है..
कही बात से मुकरना?
  - मैंने तो ऐसा कहा ही नहीं।
कि कौन रिकॉर्डिंग हो रहा है।
सब चल रहा है धड़ल्ले से...
आदमी गिर गिट से भी तेज रंग बदल रहा है
और फिर
अपनी होशियारी पर
कमीनी-कुत्सित हंसी हंसता है।
एक दूजे को मानो हवा परोसकर
वह किसको ठगता है?
अपने ही मकड़ जाल में
दिनों दिन और और उलझता है।
क्या ऐसे ही
लंबी दूरी तक
कोई समाज/व्यवस्था बना चलता है।
     ----------       सुरेन्द्र भसीन

Thursday, October 18, 2018

             डॉ० बलदेव वंशी
            (1जून,1938 से 7जनवरी,2018)
जन्म स्थान  : मुलतान शहर(पश्चिम पंजाब,अब पाकिस्तान में)
अंतिम समय : बी-684,सैक्टर-49, सैनिक कॉलोनी
 निवास का पता  फरीदाबाद, हरियाणा।
शिक्षा         :  एम. ए.(हिंदी), पी.एच. डी.
कार्य          :  पूर्व रीडर हिंदी विभाग, श्री अरविंद               महाविद्यालय(सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय।
हिंदी के विख्यात कवि, आलोचक, नाटककार,पत्रकार,सम्पादक। सोलह कविता-संग्रह, बारह आलोचना-समीक्षा पुस्तकें, दो सन्त ग्रन्थावलियाँ,दर्जन से अधिक सन्तों की पुस्तकों का सम्पादन, इसके अतिरिक्त सौ से अधिक अन्य पुस्तकें प्रकाशित।कबीर शिखर सम्मान,सन्त मलूक रत्न पुरस्कार, उत्तरप्रदेश सरकार,पंजाब सरकार,केंद्र सरकार और राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित।विश्व रामायण सम्मेलन, बेल्जियम एवं मारीशस, इंग्लैंड, हालैंड, नेपाल आदि देशों की व देश में भी चेतना, साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्राएँ कीं। 'भाषा संरक्षण संगठन' के संस्थापक अध्यक्ष, 'विश्व कबीरपंथी महासभा' के अध्यक्ष, 'अखिल भारतीय श्री दादू समाज' के महानिदेशक।'विचार कविता'(पंजी०,त्रैमासिक)के सम्पादक।


विभिन्न सम्मतियाँ
 "हाँ, प्रकृति और ऋतुएँ भी आपके कवि को बड़ी सूक्ष्मता से प्रेरित करती हैं-'सरदी' को 'गुरबत पर अय्याशी की सवारी' और 'बादल' के लिए 'आपसी गिले', जो बहुत दिन तक अविस्मरणीय रहेगी- देन यह आपके भाव तत्व की है। मुझे विश्वास है, आपकी कृति का अधिकाधिक पाठक स्वागत करेंगे।"                                  डॉ. हरिवंशराय बच्चन

"डॉ. बलदेव वंशी समाज और मनुष्यता के कवि हैं। उनकी काव्य-यात्रा में अपने समय के विषम यथार्थ की पहचान दिखाई पड़ती है, किंतु समाज और मनुष्यता में गहरी आस्था रखने वाला उनका कवि यथार्थ के अंधकार में भटक नहीं है।"
                                                    डॉ. रामदरश मिश्र

"कवि वंशी ने शताब्दी के उत्तर चतुर्थ में अपनी रचनावली की छाप छोड़ी है वह इतिहास के ज्योति पत्र में दीप्तिमान रहेगी।"                                           डॉ. रमेश कुंतल मेघ

"बलदेव वंशी की कविताएँ नगरीय अनुभूतियों का तीसरा आयाम व्यक्त करती हैं। उनकी संवेदनाएँ नगर जीवन के निचले और मध्यम वर्ग का अनिवार्य अंग है।" -गिरिजाकुमार माथुर

"बलदेव वंशी के कवि को मैंने जितना कुछ पढ़ा, सुना, समझा और गुना है, अपनी सृजनात्मकता और विचारशीलता में वे कुछ-कुछ मुक्तिबोध की जस्ट-बिरादरी के रचनाकार हैं, एकदम शुरू से लेकर अपनी रचनाशीलता के इस पड़ाव तक।"                                        -डॉ. शिवकुमार मिश्र
"यथास्थिति को तोड़ने के लिए लोक की अदम्य जिजीविषा जीवनी शक्ति, विश्वास और आस्था से जुड़कर गलत को चुनोती देने की क्षमता अर्जित कस जोखिम भी उठाते हैं,वंशी। बलदेव वंशी के लिए चाहे भारतीय भाषाओं का प्रश्न हो, चाहे सन्तों का, चाहे प्रतीक -कथाओं का, देन का उद्देश्य इसी चुनोती को स्वीकार करना रहा है।"  -विष्णु प्रभाकर

"बलदेव वंशी एक सृजनशील लेखक हैं और सन्तों की वाणियों का अध्ययन करने,समकालीन कविता में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। किंतु उन्होंने अपने लिए एक अलग लेखन-संसार की भी रचना की है और उन का यह संसार मुझे विशेष रूप से आकर्षित करता है।           -डॉ. महीप सिंह


Saturday, October 6, 2018

प्रेम कामना

प्रेम कामना

न जाने
यह क्या है?
कि क्यों है?
कि जब भी तुम मुझे डाँटती हो तो
मुझे बड़ा ही अच्छा लगता है।
तब मैं एक बच्चे जैसा बन जाता हूँ और
तुम मेरी माँ या फिर कोई मेरी प्रिय टीचर...
मतलब नहीं कोई होता
मुझे मेरी किसी गलती से
मुझे तो बस तुम्हारा डांटना ही बड़ा भाता है...
सब तरफ मीठा-मीठा-सा हो जाता है...
मैं समझ नहीं पाता हूँ कि मुझे
तुम्हारी डांट खाने में इतना
मजा क्यो आता है?

तुम मेरे कान उमेठो
मुझे चपत लगाओ तो
मन कैसी-कैसी चाहत से भर जाता है
मैं तो चाहता ही यही हूँ कि
मैं गलती न भीे करूँ
तो भी तुम मुझे डांट लगाओ
मुझ पर बेवजह चिल्लाओ
मेरे बाल और गाल खींचो
मुझसे जबरदस्ती गलती मनवाओ
और
यों मुझे
 अपनी समीपता का अहसास करवाओ।
        ------     सुरेन्द्र भसीन

Thursday, October 4, 2018

अपना /अपनों से युद्ध

कैसा?
कैसा लगता है
अपने ही घर में
अपनों से युद्ध लड़ते हुए?
हार-जीत का
फैंसला करते हुए?
महाभारत के किसी खलनायक में ढलते हुए...
ये तेरा, ये मेरा करते हुए
अपने अहं की वजह से
अपने ही घर मे
अपने वजूद को सिद्ध करने का
प्रयत्न करते हुए...?
प्रेम,लगाव या स्नेह तो मानों
कहीं वाष्पित ही हो जाता है तब
नज़र में केवल
मैं, मेरा औऱ मुझको ही भर जाता है तब...
कठोर पत्थर पर चोट पड़े तो वह भी
टूट-फूट जाता है मग़र
अहं तो चमकते हीरे का बना है
अपनी चमक, अपने दाम
सभी को  तब जरूर दिखलाता है और
किसी भी भारी भरकम प्रहार से भी
टूट नहीं पाता है...
         .......       सुरेन्द्र भसीन          

संजीवनी

(अंधेरे में, घोर निराशा में, अंधेरे में चमकती संजीवनी बूटी,एक आशा का प्रतीक है को हनुमान जी श्री राम जी की सेना, सत्य की विजय के लिए तब लाए जब श्री लक्ष्मण जी(युवावर्ग) मूर्षा में था)

जब
अंधेरा घेरता है सब दिशाओं से
तब भीतर से आता है शक्ति का हनुमान
चमकती संजीवनी बूटी ले...
तोड़ता है मूर्छा।
जगाता है आस-उल्हास
और मनरूपी राम
फिर उद्यम में लग जाता है
काले रावण को हराने,
अपनी कामना, इच्छा की
सीता को पाने।
         ------  सुरेन्द्र भसीन

बढ़ना

बढ़ना
तो सभी को है
आगे ही आगे
अपनी-अपनी चाहत लिए
उम्मीद के वरक्ष पर
लताओं-सा लिपटकर
याकि तरक्की के रास्तों पर
एक-दूजे को धकियाते-धकेलते
एक-दूजे पर पांव रख-रखकर,
प्रतियोगिता व द्वंद युद्ध-सा करते- कराते...
ज़माना अभावों का है
एक-एक उम्मीद व्रक्ष पर
अनगिनत लताएं हैं चिपटीं
घुन को भी मात देतीं...
कौन जाने किसको?क्या चाहिए?
याकि किसको? क्या-क्या नहीं चाहिए।
सब
उम्मीद के व्रक्ष पर
लताओं से लिपटे हैं
बढ़ते-चढ़ते
एक-दूजे से आगे बढ़ने की,
अधिक पाने की होड़ हैं
करते!...
          ------        सुरेन्द्र भसीन