Monday, July 31, 2017

औ ! पाषाण देह


(डॉ. नरेंद्र मोहन  की  कविता "पहली बार" के  परिपेक्ष्य में)

औ !
पाषाण देह ,
तुम्हें पहला क्षण-सा ही
अंतिम क्षण क्यों चाहिए ...  ?
प्रत्येक क्षण का सम्पूर्ण आनंद
तुम्हें क्यों नहीं  चाहिए ...  ?
शुरू कभी खत्म ही न हो ... ?
अगर नींद में हो तो
भोर ही न हो ... ?
सुबह का कलरव तो कतई न हो..... ?

सोचो अब
बदलाव से भय खाते
नीरसता में लुबडे(सराबोर) तुम्हें
पत्थर ही भाते हैं
पूरी तरह
थक-थम चुकी तुम्हारी सोच और शिराओं में
पत्थर ही तो पड़ते जाते हैं।
क्यों ?
अब पत्थर ही तुम्हें
प्रियजन नजर आते हैं।
           -------------                    सुरेन्द्र भसीन

देवात्माएँ

देवात्माएँ


दूर... सुदूर
नीले तारों भरे
आकाश में ही नहीं
देवात्माएँ हम-तुम में भी बसती हैं
किसी रंग-बिरंगे फूल-सी खिल जाने को 
आतुर, हमें, तुम्हें, इस जग को
महकाने को।
बस, ज़रूरत है तो
उन्हें प्यार से जगाने को...।
-------- सुरेन्द्र भसीन

देर हो चुकी थी - कहानी

"देर हो चुकी थी"   -    कहानी 
घर  के  दरवाजे पर एक भिखारी खड़ा न जाने कब से अलख जगा रहा था।  मैंने जैसे ही दरवाजा खोला, सामने एक फटेहाल भिखारी खड़ा था।  मैले-चीकट कपड़े, जो जगह-जगह से फ़टे थे,चेहरा काला पड़ा हुआ मानो किसी ने कीचड़ ही मल दिया हो मुँह पर,दाढ़ी और मूँछ बड़ी-बड़ी बिखरी हुईं, सिर के बाल भी खूब बड़े और आपस में उलझे हुए, पाँव फ़टे हुए, पाँव की उँगलियों में बिवाइयाँ पड़ी हुईं, जिनसे खून निकल-निकल कर उँगलियों पर जम चुका था और उस पर चिपटी गर्द...उफ़ ! देखते ही जी मिचलाता था। 
मैं एकटक  निहारती रही उसको। जैसे ही मैं कुछ लेने के लिए अन्दर मुड़ी ही थी कि अचानक दिल जोर से धड़का।  मुझे कुछ शक हुआ।  वापस मुड़ी और देखते ही भौंचक्की रह गई।  अनजानी शंका से दिल कांपने लगा और सिर भी चकराने लगा।  और... और न जाने कब मैं दीवार का सहारा लेकर वहीं दहलीज में बैठ गई। 
           थोड़ा पहचानने पर प्यार आँसू बनकर उमड़ने लगा।  रुँधे गले से -
"भइया !यह क्या कर लिया तुमने ? देखो क्या हाल बना लिया है अपना।"
वह गुमसुम खड़ा रहा। चुपचाप सिर झुकाए मूर्ति बना। मैंने फिर कहा -"भइया ! तुम वापिस आ जाओ।  हम कुछ न कहेंगे। "
मैं उसे आशामयी आँखों से निहारने लगी। उसके जवाब का इंतजार करती।मैंने फिर कहा -"सोना मिल गया था। तुम्हारे जाते ही।  मेरे लिए नहीं तो अपने बूढ़े बाप का तो ध्यान करो। "
         बापू के नाम पर वह थोड़ा विचलित हुआ लेकिन फिर रोष भरे स्वर में बोला -"भाई ! कैसा भाई ? अब मैं किसी का भाई, किसी का बेटा नहीं रहा।  अब तुम सब कुछ भूल जाओ।  सोना मिल गया था तो अच्छा हुआ और अगर नहीं मिला तो मुझे जी भर कर कोसना लेकिन विश्वासघाती न समझना। " इतना कहते-कहते ही एकबारगी उसका स्वर भर्रा गया।  फिर वह थोड़ा रुककर बोला -"अब मैं सन्यासी हूँ, एक भिखारी हूँ।  भाई को भूल जाओ।  भिक्षा मिलेगी ?"
            मैं सिर झुकाए सब कुछ सुनती रही।  फिर जैसे नींद से चौंकी, अनजाने में उससे आंखें टकरा गईं।  उसकी आंखों में रत्ती भर भी पश्चाताप न था।  इस हालत में भी वह आत्मिक शांति से परिपूर्ण नजर आया।  मैं फिर सिसकने लगी और उसने चुप्पी साध ली..... निर्विकार चुप्पी।  मुझे लगा मानो समय रुक गया हो  और वह  युग-युगांतर से मेरे सामने ऐसे ही खड़ा हो सिर झुकाए, अनवरत लगातार..... 
                 आख़िरकार मैंने उसे रोटियाँ लाकर दीं, जो उसने निर्विकार भाव से ले लीं।  मेरे सामने ही खानी शुरू कर दीं।  वह रोटी खाता रहा और मैं उसे देख-देख कर रोती रही।  वह उठा, बिना कुछ बोले मुड़ा और चला गया।  मैं आँखों में आँसू लिए दहलीज पर बैठी उसे जाते देखती ही रह गयी। 
मेरी यादें उमड़ती-घुमड़ती आंसुओं के रूप में काफी पीछे चली गईं। 
               जब माँ की मौत के बाद भाई उदास-सा रहने लगा।  न  अधिक कुछ खाता  और न ही  अपने शरीर का  ही  ध्यान रखता।  चुप रहना तो उसकी प्रकृति ही थी।  कुल मिलाकर दशा दुखदायी हो गई थी।  बूढ़ा बापू पत्नि की मौत  और बेटे की हालत, भला दो वार कैसे सह सकता ? उसने भाई को मेरे साथ भेज दिया कि वह कुछ काम ही सीख जायेगा।  मेरे पति का सोने का काम था और अच्छा चल रहा था। 
         भाई का दिल धीरे-धीरे  काम में रमने लगा।  उसकी चुस्ती व  स्फूर्ति  फिर से  लौट  आई। एक  बार  तो ऐसा  लगा कि  मानो वह  माँ की  मौत  का दर्द  भूल  गया  हो। 
    एक दिन वह बहुत जल्दी ही दुकान से लौट आया।  काफी घबराया हुआ था।  उसका सिर शर्म से झुका हुआ था आँखों में आँसू छलछला रहे थे।  मैंने पूछा -"रज्जी ! क्या बात है ? बहुत परेशान हो?"
उसने मुँह बिगाड़ा।  घबराई आवाज में बोला -"कुछ भी तो नहीं। "
मैंने फिर प्यार से पूछा -
"जरूर कुछ बात हुई है। क्या उन्होंने कुछ कहा है ?"
मेरे इतना कहते ही वह फट पड़ा।  सिसकियों में बोला -"मैं दुकान पर बैठा सोना काट रहा था कि हथोड़े के वार से सोना उड़ गया।  मैंने बहुत ढूंढा, लेकिन नहीं मिला।  जीजाजी यही समझते हैं कि मैंने सोना चोरी कर लिया है।  मुझे सबके सामने डाँटा और धक्का देकर दुकान से बाहर भी निकाल दिया। "
     मैंने उसे प्यार से समझाना चाहा -"उन्हें मैं समझा दूंगी ! कि हमारा रज्जी ऐसा नहीं है। " पहले तो वह मानने को तैयार ही न हुआ।  वापस बापू के पास जाने की जिद करने लगा।  मैंने उसे काफ़ी देर तक समझकर यहीं रहने को राजी कर लिया। 
     शाम को इनके आने पर मैंने इन्हें समझाना चाहा।  वह मुझ पर ही बिगड़ने लगे।  बात बढ़ गई।  उन्होंने मुझे भी खूब पीटा और रज्जी बाहर बैठा रोता रहा।  मुझे पीटने का इतना दुख न हुआ जितना रज्जी की सिसकियों का।  मैं रज्जी के टूटे दिल के बारे में जानती थी।  उसकी भावना को समझती थी कि कौन भाई, अपनी बहन का घर उजाड़ना चाहेगा।  ऐसी स्थिति में वह कोई गल्त कदम न उठाए, इसकी मुझे चिंता होने लगी। 
            उनके जाने के बाद मैंने तरीके-तरीके के उसे फिर समझाया।  वह जल्दी ही समझ गया क्योंकि शायद उसे मेरी स्थिति का भी आभास हो गया था।  मैंने कहा -"रज्जी हम दुकान पर फिर ढूंढेंगे। सोना जरूर मिल जायेगा। "

एक दिन,दो दिन और इसी प्रकार पूरा सप्तह बीत गया।  हमने बहुत ढूंढा लेकिन सोना नहीं मिला।  इसी बीच भाई ने रोटी खानी कम कर दी।  मैंने उसे समझाया पर वह नहीं माना।  एक दिन मैं घर पर नहीं थी।  मैं जैसे ही घर आई, वह कुछ पी रहा था।  मुझे देखकर उसने गिलास को छुपाना चाहा।  मैं उसे घूरने लगी।  उसने आँखें नीची कर लीं।  मैनें उसके हाथ से गिलास छीन लिया।  गिलास देखते ही मैं सकते में आ गई। उसमें पिसी हुईं लाल मिर्चें थीं। पानी के साथ घोल बनीं हुईं। मैं क्रोध और सहानुभूति से जल उठी
      मैंने लगभग चीखती हुई आवाज में कहा - "भइया यह क्या है।  मिर्चें क्यों पीते हो ? क्यों मारना चाहते हो अपने आप को ? बापू को मैं क्या मुँह दिखाऊंगी ?"
       वह चुप रहा।  उसकी चुप्पी से मैं निराश हो गई।  फूट-फूट कर रोने लगी।  कभी अपने को कोसती तो  कभी अपने भाग्य को। 
            फिर वह वहाँ से चला गया।  और फिर न लौटा।  शाम को इन्होंने बताया कि सोना मिल गया है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी.... 

                  आज दस वर्ष बाद वह जिस हालत में मुझे मिला/लगता है शायद कभी न मिलने के लिए। 
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Friday, July 28, 2017

रुपये कहाँ से लिए - कहानी

 "रुपये कहाँ से लिए "   कहानी 

काली ने  जैसे ही अपना हाथ बर्तन में मारा, गोंद खत्म थीवह उसी समय गोंद लेने चल दिया। 
           काली सोचने लगता है -"ये लाला भी बहुत चोर है। जब जाओ काम नहीं है।  उसका एक-सा जवाब होता है।  कभी मिन्नत-खुशामद करने से काम देता भी है तो मजदूरी कम।  ऊपर से मंहगाई इतनी है कि कुछ मत पूछो ! पहले दो-ढाई रुपए बच जाया करते थे।  अब मारा-मारी करने पर भी डेढ़-दो रुपए ही बचते हैं। "
            इन्हीं विचारों में गुम काली लाला की दुकान पर पहुँच जाता है। लाला ने उसे आड़े हाथों लिया - "क्या है ?"
संक्षिप्त उत्तर  - "गोंद। "
"अभी कल ही तो ले गया था न ! फिर खत्म कैसे हो गई ? अच्छा देता हूँ। "
काली फिर विचारों में गुम हो जाता है  - "ये लाला क्या समझता है। गोंद मैं पीता हूँ।  ह्र समय लाला का दिमाग चढ़ा ही रहता है।  दिनोंदिन लाला कई तोंद बढ़ती ही जा रही है। "
"ये ले गोंद ! अब दो दिन से पहले नहीं मिलेगी, कहे  देता हूँ। " लाला का कर्कश स्वर काली को दुकान पर खींच लाता है। 
"खत्म हो गई तो ?"
"कम  लगाया कर न ! जबान चलाता है।  अजीब छोकरा है।  काम  दो तो  मुसीबत, न दो तो मुसीबत।  आकर खड़े हो जायेंगे भिखमंगों की तरह। "
लाला का चुभता स्वर, जाते-जाते भी काली के कानों में पड़ कर उसे भेद ही गया।  काली चुप।  अनसुना करते हुए।  अपने कदम घर की ओर बढ़ा देता है। 
    घर आकर काली लिफाफे बनाना शुरू कर देता है।  विचारों के बादल फिर घुमड़ने लगे हैं - "ये  माँ भी क्या चीज़ है। जब से बापू घर छोड़कर गया है, माँ तो मानों पत्थर ही हो गई है।  आज  छ: महीने होने को हुए।  मैंने उसके मुँह पर मुस्कान तक नहीं देखी। अंदर  ही अंदर घुलती जाएगी, पर बताएगी कुछ नहीं।  कमजोर इतनी हो गयी है कि कभी-कभी तो उसे चककर भी आ जाते हैं।  चेहरे पर मुर्दनी ही ज़मी रहती है हर वक्त।  मुझे अब वह प्यार भी नहीं करती पहले जैसा और न गुस्सा ही।  उसकी चुप्पी ही पूरी सजा है मेरे लिए। काम छोड़ने को कहूँ तो  कोई  जवाब  नहीं देती।  कई बार कहा मैं बड़ा हो गया हूँ। तुम आराम करो, मैं काम करूँगा।  सुनती ही नहीं।  जो मिलता है महीने भर में खत्म हो जाता है।  कभी उसने यह नहीं सोचा कि कभी वह या मैं बीमार ही हो जाएं तो दवा कहाँ से आएगी ! आजकल तो बिना पैसे के मिट्टी भी नहीं मिलती। "
           माँ के बीमार होने की कल्पना ही काली को काम करने की शक्ति प्रदान करने के लिए काफी है।  उसके हाथ और तेज चलने लगते हैं।   विचारों की कड़ियाँ फिर जुड़ीं  - "माँ को नहीं मालूम कि मैं यह काम करता हूँ।  अगर पता चल जाए, तो पता नहीं उसे कैसा लगे ? यह जानकर वह दुखी होगी या खुश  यह पता लगाना भी तो मुश्किल है।  इसलिए तो डरता हूँ, बताता नहीं।  हर समय मन अनहोनी शंका से कांपता रहता है।  मन में न जाने क्यों डर बैठ गया है। "
        दरवाजे की खडख़ड़ाहट से काली की तंद्रा भंग हो गई।  माँ आ गई।  वह बौखला गया।  जल्दी-जल्दी सामान छुपा कर दरवाजा खोलता है।  माँ थकी-हारी अंदर आई।  चेहरे पर मुर्दनी अधिक गहरी है।  आते ही रोटी बनाना शुरू।  काली चुपचाप रोटी बनाती माँ को देखे जा रहा है।  धीरे-धीरे चलते हाथ।  निराशा व थकान से टूटा मन व तन।  रोटी बन गई।  माँ की उदास आँखों के मौन निमंत्रण को काली ने समझा।  वह माँ के पास आ बैठता है।  माँ ने रोटी परोसी।  काली रोटी खाने लगा।  सब कुछ धीरे-धीरे यन्त्रवत निस्तब्धता में खोता जा रहा था।  न खाने वाले को खुशी  या खाने की इच्छा और न खिलाने वाले में चाव या उमंग।  सब कुछ मानो जबरदस्ती हो रहा हो।  काली दो कौर खाकर ही उठ गया, क्योंकि मन की रुलाई से आँखों में आने वाले आँसू उठने को मजबूर कर देते हैं। 
           रात को बिस्तर पर फिर काली के मस्तिष्क में विचार श्रंखलाबद्ध होकर आने लगे - "माँ ने आज रोटी नहीं खाई।  ज्यादा चिंता में लगती है।  वह माँ से पूछे भी तो क्या ? उत्तर की आशा नहीं की जा सकती।" एक बारगी वह माँ को नजदीक सोए हुए महसूसने की चेष्टा करता है।   "कुछ बात है जरूर जो माँ को खाए जा रही है। मगर बताती नहीं। कई बार पूछा। उसके आगे रोया भी।  हर बार की तरह चुप्पी ही उसका उत्तर, वही मुर्दनी चेहरा, सूनी आंखें। "
         अब तो उसे भी अधिक बोलना अच्छा नहीं लगता।  कोई फालतू प्रश्न करे।  वह झुँझला उठता है। उसकी आँखों में नापसंदगी की झलक साफ़ सामने वाला देख लेता है। 
                    सुबह का समय।  माँ अभी सोई है।  सिर पर कपड़ा बंधा है।  काली हैरान, आज पहली बार माँ से पहले उठा है।  वह सामने पड़े ड्रम पर बैठ गया।  इस समय उसकी आंखों के आगे सोई हुई माँ है, जो नींद में भी परेशान लगती है।  बार-बार  अपना सिर दबाती, हाथ-पाँव पटकती हुई।  काली सोचता है - "थक भी तो बहुत जाती होगी।  सुबह से छ:-सात  घरों के काम करना आसान बात नहीं। "
   लगभग दस-बीस मिनट यूँ ही बीत गए।  माँ जाग गयी।  काली ड्रम से उठकर माँ के पास आ बैठा। 
 "क्या बात है माँ ?  क्या तबीयत खराब है ?" 
माँ पूर्ववत मौन है। 
काली माँ की बाजू छूकर देखता है। 
        "तुझे तो बुखार है।  आज काम पर नहीं जाना।  मैं चाय बना दूँ ?"
काली चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ाकर माँ के पास आ बैठा।  माँ की आँख के कोर उसे भीगे-भीगे से जान पड़े।  वह सिर झुका लेता है। 
   काली लगातार जमीन कुरेदे जा रहा है।  माँ उसे बिना पलक झपके देखे जा रही है। वह नजर उठा कर देखता है।  माँ ने आँखें चुरा लीं।  दोनों के बीच बनी लगातार चुप्पी दोनों के दिलों में अपराध भावना का विकास कर रही है। 
            चाय  भी बन गई, टूटे कपों में काली चाय डालकर, एक कप माँ की ओर बढ़ा देता है।  अपनी चाय जल्दी-जल्दी सुड़क  कर माँ की जगह काम पर निकल पड़ा।  
काली यह सोचकर दुखी है कि माँ ने चाय नहीं पी।  काली की आँखों में अनायास ही आँसू आ गए।  इस तरह माँ ज्यादा दिन चलने की नहीं, यह काली अच्छी तरह जानता है।  लेकिन वह क्या करे यह उसे समझ नहीं आता।  दिनोंदिन अंधेरी गुफा में दोनों धंसते ही जा रहे हैं।  कहीं भी रोशनी की कोई किरण नहीं।  क्या यह रास्ता किसी की मौत पर खत्म होगा, यह भी काली नहीं जानता। 
रात को काली घर पहुँचा।  माँ बेसुध पड़ी है। बुखार काफ़ी तेज़।  काली घबरा जाता है।  आज फिर माँ ने सारा दिन कुछ नहीं खाया।  वह अपने लिए भी कुछ नहीं बनाता।  जमीन पर ही टूटी चटाई बिछाकर पसर जाता है।  
आज काली भी उदास है।
वह सोचने लगता है - " क्या करे वह ! कहाँ जाए ? कभी तो दिल करता है कि अपना सिर पीट ले या  जोर-जोर से रोए। " उसकी बड़ी बेबसी है। 
इसी तरह सोचते-विचारते  घंटा बीत गया।  काली की तन्द्रा माँ की क्षण-प्रतिक्षण तेज होती कराहटों से भंग हुई।  बुखार बढ़ता ही जा रहा है।  काली की चिंता भी बढ़ रही है।  वह माँ की बीमारी का जिम्मेवार भी अब खुद को समझने लगा है क्योंकि न वह बीमारी के बारे में सोचता और न माँ बीमार ही होती। माँ की कराहटें अब ओर तेज हो चुकी हैं।  वह जल्दी से अपना खजाना निकालकर गिनता है।  लगभग साठ रुपए।  काली फुर्ती से जाकर डॉक्टर बुला लाया।  डॉक्टर ने आकर दवा दी।  अपनी फीस पच्चीस रुपए लेकर चला गया।  काली की सोच में एक क्षेत्र की वृद्धि हुई।  पहले सोचने का केंद्र माँ थी।  अब माँ, बीमारी  और  अपनी  महीने भर की कमाई की काली को चिंता हो आई है।  शरीर से चाहे उसने पच्चीस रुपए अपने से अलग कर लिए हों लेकिन मन ने फीस अदा मजबूरी में ही की। 
            काली सारी रात जागता रहा।  घंटे-घंटे बाद माँ को छूकर बुखार का अंदाज लगाता रहा। 
        अब सुबह हो चुकी है।  माँ को आराम है। बुखार के साथ काली की चिंता भी कम है।  
नींद खुलते ही माँ पूछती है -"रुपए कहाँ से लिए ?"
काली थोड़ा मुस्कुराता है।  सोचता है - " माँ बोली तो सही। "
काली को चुप देखकर माँ के चेहरे के भाव बदलने लगे  हैं। काली  यह देखकर घबरा जाता है। 
वह माँ को लिफाफे बनाने की बात कहता है। 
              काली, माँ के चेहरे के भाव पढ़ने की चेष्टा करता है।  माँ की आँखें बंद हैं।  दोनों आँखों से एक-एक आंसू गालों पर ढुलक  चुका है।  होंठ इस अंदाज से फैले हैं मानों मुस्कुरा रहे हैं। 
           काली हर बार की तरह इस बार भी नहीं समझ पाता कि माँ को इससे प्रसन्नता पहुँची है या दुख हुआ है। 
                           ------------                        सुरेन्द्र भसीन  







































            

       















Thursday, July 27, 2017

भेड़िया-धसान - कहानी



 "भेड़िया-धसान"     कहानी  

वीरेंद्र ?....  यस्सर ! 
जयवीर?.... यस्सर !
मुलखराज ?.... यस्सर !
         मैंने गर्दन उठा कर देखा।  सामने दूसरे बैंच  पर मुक्खी(मुलखराज)  बैठा था।  उसे अपने पास बुलाया।  उसकी हालत पहले से  अधिक खस्ता थी।  सूख कर कांटा हो चुकी थी उसकी देह।  पूरा चेहरा फुंसियों से भरा था।  हाथ, पाँव और गर्दन पर मैल की तहें जमीं थीं।  मैली कमीज़  जिसके कालर फट चुके थे।  खाकी नेकर के नीचे पतली-काली  टांगें।  पाँव में रबर के पुराने स्लीपर।  बस, देखते ही घृणा हो आती थी। 
          मैंने सप्ताह भर से स्कूल न आने का कारण पूछा।  उसने नजरें झुका लीं।  धीरे से बोला  - "बुखार था। "
मैंने मुहँ पर निकल आयी फुंसियों के बारे में जानना चाहा। 
संक्षिप्त-सा उत्तर -  "बुखार के कारण हो गई मास्टरजी !"
"बस्ता उठाओ  और घर जाओ।  इनका ईलाज कराने के बाद आना।  नहीं तो अन्य बच्चों को भी हो जायेंगी। "
उसने सिर  तो हिला दिया। मगर अंदर-ही अंदर वह हीन भावना से भर गया।  उसका चेहरा थोड़ा और मुरझा गया। लेकिन वह बिना बोले धीरे से पीछे मुड़ा। बस्ता उठाया।  क्लास से बाहर निकल गया। 

          अगला पीरियड खाली था।  मैं सोचने लगा।  क्या भला मुक्खी का पिता  इसका ईलाज करायेगा ? मन क्षुब्ध हो उठा।  इस स्कूल में मैं पिछले पाँच वर्षों से पढ़ा रहा हूँ।  मुक्खी के पिता को भी अच्छी तरह जानता हूँ।  यहीं पटेल नगर के थाने में मामूली सिपाही है। छ: बच्चे हैं छोटे-छोटे।  शराब की लत के कारण घर में पैसों के नाम पर तलछट ही पहुंचती है जैसाकि मुक्खी ने भी एक बार बताया था।  उनकी माँ किसी तरह माँग-तांग कर गुजारा चलाती है।  मैंने अपने आज के निर्णय के बारे में फिर सोचा कि मुक्खी को लौटाकर शायद मैंने ठीक नहीं किया।  मगर, इसके बिना कोई चारा भी तो नहीं था, यही  सोचकर मैं अपने निर्णय के प्रति थोड़ा आश्वस्त हो गया। 
      अगले दिन मुक्खी को फिर क्लास में बैठा पाया।   मैंने उसे पास बुलाकर डांटते हुए कहा - "तुम्हें  कल कहा था कि ईलाज करवाकर आना। फिर बिना ईलाज कराये कैसे आ गया ? बस्ता उठाओ और क्लास से बाहर निकलो।  मेरे पास समय नहीं है तुम्हारे  साथ मगज मारने के लिए। "
वह पूर्ववत: सिर झुकाए खड़ा रहा। 
मैं हैरान था - कहाँ गया उसका क्रोध ! पहले डांटने पर वह अपना क्रोध प्रकट करता था, बहस करता  था। लेकिन आज !
वह चुपचाप खड़ा है, बिना क्रोध-विरोध प्रकट किए। 
मैंने फिर कहा  - "वैसे भी तुम्हें स्कूल छोड़ ही देना चाहिए।  दो-तीन  वर्षों से इसी क्लास में पड़े-पड़े  ऊंट जैसे हो गए हो। पढ़ते भी नहीं, लड़कों से मारपीट अलग। "
वह मौन सब कुछ सुनता रहा। 
मगर , मैंने मौन के पीछे छुपे ज्वालामुखी को उसकी आँखों में उमड़ते आँसुओं से भाँप लिया। 
मुझे उससे सहानुभूति हो आयी।  मैंने रोने का कारण पूछा।  तो उसने ज्यादा सिर झुका लिया। उसकी आँखों से  गंगा-जमुना  बह पड़ी।  वह सिसकने लगा।  मानों विवशता में भीतर  ही  भीतर  बहुत  रो लिया हो। 
फिर सिसकियों में बोला - "मास्टरजी ! मैंने पिताजी से ईलाज के लिए कहा था।  उन्होंने मुझे डाँटा  और मारा  भी।  बोले  मेरे पास पैसे नहीं हैं डाक्टर के पेट में डालने के लिए।  और फिर शराब पीने चले गए। "
उसका रोना और तेज हो गया।  उसकी इस बात से मेरा हृदय द्रवित हो उठा।  मैंने कुछ नरम लहजे में  उसे  कहा - "देखो ! तुम अभी घर जाओ।  कल पिताजी के साथ आना। " उसने बेमन से  हामी  भर दी  और  बस्ता लेकर चला गया।  मगर उसके बाद  वह  कभी  स्कूल न  आया।  लड़कों ने बताया वह किसी काम पर लग गया है।  मैंने भी आश्वस्त होकर कुछ दिन बाद उसका नाम रजिस्टर से काट दिया। 
              एक दिन मैं जैसे  ही  स्कूल पहुँचा  तो मुझे पता लगा  कि  मेरी क्लास का एक लड़का राजेश घर से भाग गया है।  साथ में घर के कपड़े-गहने भी ले गया है।  इस  बात  का  जिक्र मैंने क्लास में जब किया तो  लड़कों ने बताया कि उसकी दोस्ती मुक्खी के साथ थी।  मैंने मुक्खी के घर से पता कराना भी उचित समझा। मुक्खी भी  घर से लापता था।  मुझे विश्वास हो गया कि मुक्खी ही  राजेश को लेकर भागा होगा। 
               दो ही दिनों के बाद दोनों घर लौट आए।  राजेश ने अपने घर एक मनगढ़ंत  कहानी कह  सुनाई।  घर वाले भी अपनी इज्जत बचाने के चककर में उसी कहानी को प्रचारित करने लगे  कि वह अपनी मौसी के घर गया था।  खैर ! बात आई-गई हो गई। 
 इधर  मैं कुछ अधिक व्यस्त रहने लगा।  मगर मुक्खी की खबरें मुझे लगातार मिलती रहतीं।  कभी वह लोगों को पीट देता, कभी जुआ खेलता पकड़ा जाता, कभी किसी की कार नाली में धकेल देता, कभी अपने घर चोरी करते पिटता। सिगरेट पीना, गाली देना तो बड़ी आम बात थी उसके लिए।  अब मोहल्ले में कोई भी घटना घटती लोग  उसमें मुक्खी का  हाथ ढूंढ ही लेते।  आजकल सभी की चर्चा का विषय मुक्खी का कोई कारनामा ही होता।  मैं  देख रहा था  कि उसमें अपराध वृति घर कर चुकी थी।  और  धीरे-धीरे मुक्खी मुहल्ले के अपराध  का मुखिया बनता जा रहा था। 

           ..... और आज जब मैं छत पर बैठा सर्दियों की धूप सेंक रहा हूँ।  मकान  मालिक के लड़के ने आकर बताया - "सर ! पुलिस मुक्खी को  पकड़ कर ला रही है।  लड़के कहते हैं उसने कई चोरियाँ की हैं।  पुलिस  उसे उन-उन घरों में लेकर जायेगी जहाँ-जहाँ उसने चोरी की होगी। "

           पिछले महीने हमारे स्कूल से टी. वी. चोरी  चला गया था।  पुलिस में रिपोर्ट  की  गई।  लाख ढूंढ़ने पर भी चोर का पता न लग सका। 

                   अगले दिन स्कूल लगने के बाद बाहर शोर सुनकर मैं क्लास से पढ़ाना  छोड़कर बाहर आ गया। 
देखा   स्कूल के मुख्यद्वार पर पुलिस मुक्खी को  लेकर  खड़ी  है। 
                -------------------------            -सुरेन्द्र भसीन 




























          

Friday, July 14, 2017

बंद आँखें नहाना

"बंद आँखें नहाना"

माना  मैंने 
कि तुम्हें किसी ने 
नग्न नहाते नहीं देखा 
पानी में डुबकी लगाते या फिर 
लोटा-लोटा नहाते ... 
मगर तुमने तो देखा है कि नहीं 
कई बार अपने आप को नहाते.... नहाते 
कैसा लगता है ?
किसी मजबूर से रिश्वत मांगते?
अपनी बीवी को बेवजह पीटते ?
नशे में किसी दूसरी को जबरदस्ती 
अपनी बांहों में भींचते ?
अपने माँ-बाप को 
खरी-खोटी सुनाते, 
उनकी अवहेलना करते,
उनको रोटी-कपड़े के लिए तरसाते और 
ऐसी ही अपनी तमाम गुस्ताखियों को 
खोखले, नीचता पूर्ण तर्कों से ढांपते...
सच !
क्या तुमने सचमुच 
कभी नहीं देखा 
अपने को नग्न -
क्रोध में, लालच में, वासना में 
डुबकी लगाते या लोटा-लोटा नहाते। 
नहीं देखा ! कभी नहीं देखा?
तो देख लो !
          -----------               -  सुरेन्द्र भसीन  

Wednesday, July 12, 2017

जीवन यात्रा

जीवन  में 
कई बार 
छिटक कर हम कहीं 
एक-दूसरे से दूर चले जाते हैं....
न  चाहते हुए भी 
बातों ही बातों में 
आपस में यूहीं टकरा जाते हैं..... 
जैसेकि पुरानी पड़ती गरारी के दांते घिस जाते हैं 
अटक नहीं पाते 
बिना वजह हम भी छिटक-छिटक जाते हैं.... 
तो पास रहते-रहते हुए भी 
कहीं भीतर से परे-परे हो जाते हैं.... 
नाक आड़े न भी आए तो 
बातों के किनारे ही जुड़ नहीं पाते हैं.... 
समझते हैं तो मान नहीं पाते 
मानते हैं तो 
न समझ बनकर ही अनदेखा करते जाते हैं...
अपनी जरूरतों की वजह से 
ज्यादा विलग भी नहीं रह पाते 
क्योंकि ग्यारह से घटकर एक जो हो जाते हैं 
इसलिए बार-बार लड़खड़ाते हैं ... 
फिर भी 
होता है कई बार कि हम 
 न चाहते हुए भी 
छिटक कर एक-दूसरे से 
दूर चले जाते हैं.... 
         -----------        - सुरेन्द्र भसीन 

Friday, July 7, 2017

बोलने-कहने से पहले

कुछ  भी 
बोलने-कहने से पहले 
ज़रा रूको 
दाएं-बाएं देखो 
सुनो-सोचो 
जैसा कि गाड़ी चलाते हुए 
करते हो हर बार 
कि कहीं टकरा न जाए
कि कहीं हादसा न हो जाए 
कि कहीं कोई मासूम-मजबूर 
नीचे न आ  जाए 
तुम्हारे अंहकार की गाड़ी के 
कि कहीँ पहिया न  चढ़ जाए 
किसी गरीब के पेट पर 
कि कहीं कोई सपना न टूटे 
अपना न छूटे 
बैठने को तुम्हारी इस बातूनी गाड़ी में ..... 
सामाजिक संकेतों का 
बड़े-छोटे का लिहाज दिखाकर, आदर दिखाकर 
समझ का हार्न बजाकर 
पालन करो अपनी 
परम्पराओं व परिपाटी का। 
बिना सोचे फैंककर बोलना 
बिना ब्रेक के 
गाड़ी ही होती है 
जिनके नीचे कुचल जाती  हैं। 
चाहतें व आशायें 
दंभ की टकराहट से 
हो जाते हैं कई नुकसान-हादसे 
इसलिए बोलने-कहने से पहले 
जरा रूको 
सुनो .... सोचो .... देखो .... 
जैसा कि 
गाड़ी चलाते हुए करते हो हर बार !
           ---------------          - सुरेन्द्र भसीन 





Tuesday, July 4, 2017

मेरा भाग्य

मैं  पूछता हूँ 
मेरे किये परोपकार 
क्या कभी मेरे काम न आयेंगे ?
और मेरे दिन 
बेरोजगारी और मुफलिसी में 
क्या ऐसे ही गुज़र जायेंगे ?
इस खारे समुद्र में 
यूहीं बिना किन्हीं साधनों के 
नाव ठेलते -ठेलते 
बिना चप्पू, बिना पतवार 
हवा और लहरों की मार झेलते-झेलते ?
मेरे कर्मों की फेहरिस्त में 
क्या गुनाह ही गुनाह बचें हैं बाकि 
जो मेरे दिन 
ऐसी अंधेरी खोह में 
बीतते जायेंगे ?
कब होगी सुबह ?
कब फूटेगी ?
आशा-परिवर्तन की किरण। 
कब बहुरेंगे (फिरेंगे) मेरे दुर्दिन ?
या जीना है मुझे 
अब बस 
टूटने की कगार तक 
किसी हादसे की इन्तजार में।  
     -----------           सुरेन्द्र भसीन