Friday, February 10, 2017

नवजीवन

जब मैंने
जोर से चीख कर तुम्हें पुकारा
हालाँकि तुम मेरे सपने में नहीं
सपने से बाहर खड़ी थी
फिर भी, हड़बड़ा कर पूछ बैठी -
क्या हुआ ? क्या हुआ जी.....?
और मैं पसीने से तरबतर, बदहवास-सा
कि... वो मुझे लेने आये हैं,
देखो वो..... 
कौन ?कौन ? लेने आये हैं ?
और मैं होश  में,
सपने से बाहर अपने में होता हुआ......
कि अभी नहीं ? अभी नहीं ?
यूँ नहीं जायेगी मेरी जान
जब तक तुम हो मेरे पास,
मैं नहीं मर सकता।

फिर  भी
सपने में मैं
उस दरवाजे तक चला तो गया ही था एक बार.....
खोला नहीं मैंने  लौट आया 
मृत्यु का अनुभव लेकर
खुलता दरवाजा
तो लौट नहीं पाता
दूर...दूर परे ही निकल जाता
शून्य बन
शून्य में समाहित हो जाता।
                --------               सुरेंद्र भसीन        



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