Tuesday, February 21, 2017

सुरेंद्र (अतिरिक्त)

मैं 
धरती हूँ ?
कि बीज हूँ ?
कि वृक्ष हूँ ?
कि आकाश हूँ ? 
कि आकाश कि चाह 
और प्यास को 
सिर्फ धरती तक पहुँचाता हूँ....  
कि धरती के सीने में 
उसे जीवन-सा रोपने  
प्रकाश बन आता हूँ.... 
     ----------- सुरेंद्र  
उन्होंने 
हमारी अगर हाँ में हाँ कर दी 
तो हम खुश,
और न कर दी तो नाराज ...

यही समझ तो हमने मिटानी है और 
हाँ या  न की समझ 
सही और ग़लत की तार्किकता बनानी है  
वरना, हाँ और न तो 
महज हमें बरगलाने के लिए ही वह करते हैं 
वैसे तो हर रोज 
वह  गिरगिट की तरह रंग बदलते हैँ
 -----------                       सुरेंद्र  

इक उम्र के बाद 
दिल , दिल  नहीं  रहता 
दिमाग हो जाता है और 
ख्वाबों का ताना बाना 
जीवन का हिसाब हो जाता है। 
इंसान के पर भी 
उसका वजन तौलने लगते हैं 
और मन के सहारे उड़ने से पहले ही 
न बोलने लगते हैं ...
मेघा के घिरते ही 
मन मयूर भी पंख फैलाकर नाचता  नहीं  है 
उन्हीं पंखों से पहले अपने गन्दे चरण ढांपता है 
और गरीब अपनी झोपड़ी के 
टपकने के भय से 
थर-थर कांपता है। 
 ----------      सुरेंद्र 

मैं 
वक्त की इंतजार में था और 
इधर वक्त था कि मेरे ही सामने से 
होकर गुजरा जा रहा था..... 

वो तो 
मुझे लगातार देख रहा था 
और एक मैं था कि 
लाख प्रयत्न करके भी 
उसे नहीं देख पा रहा था।   
यूँ सब कुछ 
घटित हो भी रहा था 
मगर मेरे हाथ 
कुछ नहीं लग पा रहा था  
      ----------    सुरेंद्र 









Monday, February 20, 2017

बौना से बोनज़ाई

बड़ा आसान है कुछ भी कहना, सदा बोलते रहना और         
बड़ा ही मुशिकल है 
होंठ सिले रहना, लंबा चुप  रहना।  
किनारे मौन खड़े 
इन दरख्तों को देखो 
जो हज़ारों-हजार हादसों को 
मन में सहते हैं मगर 
सदा चुप रहते हैं... 
अगर कुछ कहते तो 
सड़कों के किनारे कैसे खड़े रहते ? 
काट नहीं दिये जाते,
छाँट नहीं दिये जाते उनके शरीर 
पिछले, बीते किसी मौसम में

बोलना किसको गवारा है आजकल -
मातहत बोंले तो सजा पाते हैं 
पेड़ों की छटनी की तरह छांट दिये जाते हैं,
बड़े-बूढे बोंले तो किनारे-कोने में 
लगा -सजा दिये जाते हैँ 
बोनजाई बनाकर !
बच्चे बोलें तो मार की सजा पाते हैं। 

बस इलेक्ट्रॉनिक्स(रेडियो,टीo वीo, म्यूजिक सिस्टम) 
का शोर चल जाता है। 
क्योंकि जब हम चाहे
खामोश करा दिया जाता है। 
यूँ देखो तो 
कहने को हम हैं 
मगर हमारी इच्छा के साथ हमें कौन चाहता है  
हरेक की इच्छा के लिए 
अगर हैं बने हम 
तो काम चल जाता है 
वरना बोनजाई पेड बनाकर 
किनारे कोने में हमें लगा दिया जाता है...
हरेक अपने इर्दगिर्द बोनज़ाई चाहता  है 
इसलिए खुद भी बौना ही हुआ जाता है 
बौना ही होता जाता है.....
   ---------             सुरेंद्र भसीन  
 














फूलों का फलसफ़ा

फूलों  को देने से आप कहीं फूल तो नहीं जाओगे
और न देने से कहीं हमें भूल तो नहीं जाओगे।
तुम हमें याद रख सको इसके लिए -
इतना ही काफी है या कुछ और हरकत फरमायें
और अगर हमनें कर दी गुस्ताख़ी
तो आप शरमा के बुरा तो नहीं मान जाओगे?
रूठ तो नहीं जाओगे ?

वैसे तो,
आपको फूल नहीं दिए हैं मैंने
आपको ही फूलों को दिया है....
आपको फूल देते भी कैसे ?
वे तो एक न एक दिन मुरझाने वाले हैँ
और आपके जीवन में तो हम
खुद ही आने वाले हैं ....

आपका अपना होकर
अन्तर्मन में बस जाने वाले हैं....      
  --------------                     -सुरेंद्र भसीन   

क्षत-विक्षत ....

चुप भी तुम रह्तीं
तो इसमें भी बड़ा कुछ कहतीं...
इतना बोलकर भी
तुमने क्या पा लिया?
अपनी नियत पर
एक सवालिया निशान लगा लिया।
अब कुछ नहीं हो सकता।
जैसे कमान से छूटा तीर वापिस नहीं आ सकता
तुम्हारा कहा हुआ भी वापिस नहीं जा सकता...

तुम्हारा व्यंग्य
कर चुका घाव जितना गहरा उसने करना था
यानि सालों-साल से बना-बनाया
जो अब तक हमारे बीच था
एक झटके से खत्म हो गया...
किस्सा-कहानी हो गया...
मरघट में कहीँ माटी के नीचे दफन हो गया।

अब सदियों लगेंगी
इसको माटी बनते
फिर तो जाकर कोई नया फूल, नया बीज अंकुरित होगा...
तब तक
सब टूटा-फूटा, क्षत-विक्षत .... क्षत-विक्षत ....

  ------------------            -सुरेंद्र भसीन 

Sunday, February 19, 2017

तुगलकी व्यवस्था

एक था राजा 
जैसे तुगलक 
रोज जारी करता था 
नये-नये फरमान कि -
ऐसे को वैसा कर दो 
वैसे को ऐसा कर  दो 
इस इंसान को भेजो बियाबान 
इस शेर को दे दो 
शहर में बड़ा सा आलिशान मकान ,
मछली को पेड पर घोंसला बना दो,
चिड़िया को पानी में तैरा दो
यानि, कर रखा था खासो-आम को परेशान। 
मगर क्या करें ?
राजा के आगे कोई कुछ नहीं बोलता था,
राजा की ताकत के आगे सब सही,जायज और सब कुछ चलता था...
नस्ल का चाहे हो घोडा उस राज्य में गधे के आगे हाथ मलता था.... 

जो नहीं हुआ कभी 
वह एक दिन हो गया ....
जनता की क्रान्ति के आगे 
राजा का सब कुछ स्वाहा हो गया। 
घोड़े ने गधे को उसकी औकात बता दी 
चिड़िया ने भी मछली को पानी की राह दिखा दी 
आदमी का दावा मकान पर हो गया और 
शेर भी न जाने जंगल में कहाँ खो गया....

बात सिर्फ इतनी-सी होती तो 
यहां क्यों बयां होती 
वह तो परंपरा ही बनती जा रही है 
राजा कोई भी हो?
राज्य कोई भी हो ?
जनता ही कष्ट पा रही है      

उसकी  ही  दुर्गति हुए जा रही है .... 
              --------- सुरेन्द्र भसीन   














Thursday, February 16, 2017

टूटे तुम

"टूटे तुम"

कुछ चीजें
तुम्हें खुद महसूस नहीं होतीं
लेकिन तुम्हारे भीतर फँसा दी जाती हैं
विरोध बनाकर
तुम्हारा क्रोध बनाकर।
और एक सुई सी बात से तिलमिलाकर
तुम हवा भरे
फुग्गे-सा फट पड़ते हो
भरी महफ़िल में एक दिन
एक खोखली ऊंची
बड़ाम ... के साथ
अपना कचरा करवाते,
हंसी उड़वाते,
अपनी ही बनावट
नकल के कारण
अपने वजूद से
ख़ारिज होते
अपनी ही नजर में
गिरते जाते....
----------          सुरेंद्र भसीन
   

Friday, February 10, 2017

नवजीवन

जब मैंने
जोर से चीख कर तुम्हें पुकारा
हालाँकि तुम मेरे सपने में नहीं
सपने से बाहर खड़ी थी
फिर भी, हड़बड़ा कर पूछ बैठी -
क्या हुआ ? क्या हुआ जी.....?
और मैं पसीने से तरबतर, बदहवास-सा
कि... वो मुझे लेने आये हैं,
देखो वो..... 
कौन ?कौन ? लेने आये हैं ?
और मैं होश  में,
सपने से बाहर अपने में होता हुआ......
कि अभी नहीं ? अभी नहीं ?
यूँ नहीं जायेगी मेरी जान
जब तक तुम हो मेरे पास,
मैं नहीं मर सकता।

फिर  भी
सपने में मैं
उस दरवाजे तक चला तो गया ही था एक बार.....
खोला नहीं मैंने  लौट आया 
मृत्यु का अनुभव लेकर
खुलता दरवाजा
तो लौट नहीं पाता
दूर...दूर परे ही निकल जाता
शून्य बन
शून्य में समाहित हो जाता।
                --------               सुरेंद्र भसीन        



Tuesday, February 7, 2017

नया विचार

कितना भी
कर लो प्रयास
चिकनी, लिपी-पुती दीवारों/कानों के भीतर
कुछ नहीं जाता....
तुम्हारा कहा, नये से नया विचार भी
दीवार पर गोबर पाथने
जैसा ही तो हो जाता है।
सूखने पर /पुराना हो जाने पर
शाम होते न होते
स्वयम ही लकड़ियां डालकर,
आग दिखाकर
उसको जब किसी भी प्रकार से
अपने घर से/ दिमाग से निपटाते हो....
तभी चैन से सो पाते हो।
                                      सुरेंद्र

Sunday, February 5, 2017

जानवर

मानों या
न मानों
इंसान भी ढूंढ़ता है मौका
एक उम्दा - खालिस
जानवर हो जाने का।
समाज की नजर के हटते ही
सदियों से सिखाई शिक्षा व तमीज
भूल जाने का।
अपनी शारीरिक भूख- हवस  मिटने के लिए
किसी को खा जाने का,
किसी को चाट जाने का।
शर्म, हया, दया, मोह, माया
और बड़े- बुजुर्गों का मान-सम्मान
सब पानी में घोलकर पी जाने का।
अपनी दैनिक जरूरतों के लिए
सब सीमाएं लांघ जाने का
एक उम्दा,खालिस
जानवर हो जाने का
इंसान भी ढूंढता है मौका.......

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सुरेंद्र