Saturday, August 31, 2019

मेरे
एक-एक शब्द को
एक-एक पल को
वह जी लेना चाहती थी
पी लेना चाहती थी चातकी बनकर
वर्षा बून्द के समान
धरती पर गिरने/किसी के सुनने
किसी के समझ लेने से पहले ही
सर्वप्रथम!
उसकी पिपासा शारीरिक न होकर आत्मीय थी
प्रेम प्रदर्शन से कोसों दूर
सरल सहज जैसे
मुझ पर न्योछावर होती
सर्दियों की गुनगुनी धूप!
       -----     सुरेन्द्र भसीन

Friday, August 30, 2019

मिल जाते हैं
जीवन के रास्ते में मील के पत्थर
जो बताते हैं कि
रास्ता कितना तय हो गया कि
कितना बाकी रह गया...
आदमी कितना खर्च हुआ और
कितना बचा रह गया या
आदमी कितना सह गया
और कितना उसको झेलना रह गया।
जन्मदिन भी कुछ इसीलिए/ इसी कदर आते हैं
जब आईने में अपने सफेद हुए बाल देखे जाते हैं
तब हमारे ही बच्चे हमें अकेला छोड़
हमसे दूर विदेशों में बस जाते हैं
हम अपने किए पर चाहे पछताते हैं
तब हमारे ही बाल
हमारे नोचने के काम भी नहीं आते हैं।
          -------      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, August 29, 2019

लंबी
मुश्किल हो गई जीवन यात्रा में
जब कोई पड़ाव/आराम नहीं आता
तो मन बड़ा घबराता है कि
यह रास्ता मुझे किस रसातल में लिए जाता है याकि
इतना लंबा क्यों है?
खत्म होने को क्यों नहीं आता है...?
संस्कार,पूर्वजों,देवी-देवताओं का
आशीर्वाद तभी हमारे काम आता है
जो हमें
धैर्य, सस्यम से लगातार
उद्देश्यरूपी दिए की ओर
बढ़ते जाना सिखाता है
वरना बीच रास्ता भटकते/अटकते
देर नहीं लगती...
मनुष्य मनोरंजन में डूबकर
कहीं का कहीं और ही पहुँचकर
सब बर्बाद कर जाता है।
      -----      सुरेन्द्र भसीन

Monday, August 26, 2019

घूरे का ढ़ेर

आखिर
मिलना तो
सभी को सभी कुछ है भाग्यानुसार ही
तय वक़्त पर
मग़र वक़्त का इंतजार/धैर्य किस किसी को है...
सब
हड़बड़ी में
वक़्त से पहले ही
लूट लेना चाहते हैं मिलने वाला सब कुछ
जैसे अजन्मा बच्चा पेट से
कच्चा फल पेड़ से
याकि उतार लेना चाहते हैं
वक़्त के चलते चॉक से
मिट्टी का अधूरा निर्माण -
टूटा सकोरा, दिया या घट...
छीन लेना चाहते हैं
अपने ही भाग्य से
अपना सौभाग्य!
दुर्भाग्य बनाकर याकि
असभ्यता/अधैर्य का ताजातरीन नमूना...
और यूँ बढ़ता ही जाता
धरा पर
एक घूरे का ढ़ेर...
      ------     सुरेन्द्र भसीन
       

Monday, August 19, 2019

प्रेम का
ऐसा व्यवहार,
ऐसी आशा - अभिलाषा,
ऐसा एकाधिकार
ये प्रेम रूपी ह्रदय नहीं
स्वार्थी मस्तिष्क बोल रहा है
अपने किए को लाभ-हानि के तराजू पर
तोल रहा है।
 ------      सुरेन्द्र भसीन

हमारे बुजुर्ग

हमारे बुजुर्ग

चलती नहीं है
अब उनकी
मग़र वे अब भी
चलाना चाहते हैं
न चलने पर बड़ा छटपटाते हैं
इसलिए चलती गाड़ी में फच्चर(अड़ंगे) अड़ाते हैं।
मरने तक
हितों से/कुर्सी से
चिपके रहना चाहते हैं
वक़्त रहते अपने को
नए हालातों के लिए तैयार नहीं किया
इसलिए अब बदलना नहीं चाहते।
बूढ़े हो चुके हैं मग़र
कहलाना नहीं चाहते
नवपीढी पर अविश्वास/असुरक्षा के कारण
कुछ छोड़ना/देना नहीं चाहते
गुलामी लगता है उन्हें
अपनी संतान का कहा मानना इसलिए
अपने में सिकुड़-सिकुड़ जाते हैं मगर
अपनों से तालमेल नहीं बैठा पाते...
सच है
वक्त तो गुजर ही रहा है/रहता है
सदा पुराना जाता है
तभी तो नया आता है
कोई चाहे या न चाहे...
समझे या न समझे...
       -------     सुरेन्द्र भसीन






हकीकत

हकीकत

जब लोग
इंसान से न उम्मीद हो जाते हैं
तो पत्थर रूपी भगवान से
मांगनें लग जाते हैं
आश्चर्य है कि वहाँ
उनके काम बन भी जाते हैं।
पत्थर देवता हो जाता है
इंसान लेवता(मंगता)...
देखो !
प्रकृति से कैसे-कैसे
सम्बन्ध निभाये जाते हैं।
सच है कि
वैसे तो पत्थर मारने और तोड़ने के काम
में लाये जाते हैं ...
क्या पत्थर
तोड़ने के काम आते हैं?
वक्त आने पर पत्थर ही
देवता हो जाते हैं।
     ------ सुरेन्द्र भसीन

Sunday, August 18, 2019

हौसला/हिम्मत

यूँ तो
हौसले या हिम्मत का कोई आकार नहीं होता
वह हाथी से ज़्यादा
चींटी में भरा होता है
जो अपने से कई गुणा वज़न उठाती है और
मौका पाकर हाथी के कान में घुसकर
उसको नाको चने चबवाती है।
जहाँ संशय से घटता है हौसला तो
दृढ़ निश्चय से बढ़ भी जाता है
जिसके सहारे अदना-सा आदमी भी
बड़े-बड़े काम कर जाता है-
कभी पहाड़ दरकाता है तो
कभी समुद्र खंगालता है तो
कभी आकाश में कुंलाचे भरता है...
हौसला है तो कोई भी 
यह सब कर पाता है वरना
वहीं का वहीं रह जाता है।
       ------       सुरेन्द्र भसीन