Tuesday, June 19, 2018

वक़्त का बहाव

वक़्त की नदी में
बहुत बहाव है...
बहुत ज्यादा रवानी और पानी है...
पकड़े रहो, जकड़े रहो
एक दूसरे को लगातार
पूरी मजबूती से, शिद्दत से...
बह गए तो
याद चाहे कितना भी आएं
मिल न पाएँगे फिर कभी
बहते ही चले जाएंगे...
न जाने कहाँ रुकेंगे...?
रुकेंगे भी या नहीं कहीं कि
पानी में ही, वक़्त में ही
गल घुल जाएंगे
सदा सदा के लिए...
पकड़े रहो,
जकड़े रहो
एक दूसरे को
वक़्त की नदी में
गलने घुलने से पहले...
वक़्त की नदी में
बहुत बहुत बहाव है...।
     ------     सुरेन्द्र भसीन


Monday, June 18, 2018

मन

जब भी जब भी
मैं तुम्हारी-हाँ या न
आँखों से पढ़ना चाहता हूँ तो
कुछ उल्टा ही पढ़ समझ जाता हूँ।
जब भी मैं
नहाने की लिए तुम्हारी
आँखों से अथाह शीतल जल के झरने चाहता हूँ तो
न जाने क्यों
सूखे,
 रेगिस्तान में
पहुँच संशय के अंधडों में
अपने को घिरा पाता हूँ।
और यूँ ही जब भी
मैं लम्बे हरे भरे बाग में
तुम्हारे संग विचरना चाहता हूँ तो
स्वयं को
खारे पानी के समुद्र में
घिनौने प्रश्नों के जलीय जीवों से
अपने को घिरा पाता हूँ।
मैं तुम्हारी आँखों के
सही व गलत के कुतर्कों में
फँसना नहीं चाहता हूँ।
बस तुम्हारी आँखों से,
 तुम्हारे मौन से,
तुम्हारे मन में उतरना चाहता हूँ।
          ------    सुरेन्द्र भसीन

Saturday, June 16, 2018

खुशनसीब?लोग

खुशनसीब?लोग

खुश
नहीं हैं लोग कहीं से भी
मगर खुश होना चाहते हैं
रोज हंसने के नये नये बहाने ढूँढे जाते हैं
कि आज मेरा जन्मदिन है
कि शादी की सालगिरह है
कि दिवाली है
कि ईद या दशहरा है
और न जाने क्या क्या?
जैसे कि अपने को चराते, बहलाते हैं
कि आगे के आगे धकेले जाते हैं...?
जीवन जी नहीं रहे
बस गुजारते जाते हैं...
यूँ कि आधे मरे हुए लोग
मगर पूरा जीवन जीना चाहते हैं...
हंसने के बहाने
ढूँढने में जीवन बिताते हैं।
        -----      सुरेन्द भसीन

Thursday, June 14, 2018

बेटे चाहो या बेटियाँ

असल
इच्छाएँ हमारी बेटे नहीं
बेटियाँ ही होती हैं
जो बड़ी होते ही, फलीभूत होते ही
किसी और की हो जाती हैं,
हमें छोड़ जाती हैं....
और बेटे ?
ठूँठ के ठूँठ!
खड़े बाँस के बाँस
हमेशा के लिए ही
पास पड़े रह जाते हैं
बुढ़ापे की लाठी बने
तो बन गए
वरना आखिर तक
हमें जलाने के ही काम आते हैं...।
कौन है अपना?
कौन है पराया?
धरती के सारे रिश्ते
देह के साथ यहीं खत्म हो जाते हैं...।
अकेले आये थे कभी
हम अकेले ही गुजर जाते हैं...
जोड़ तोड़ के चक्कर में
हम जुड़ते तो नहीं कभी
बस टूटते ही चले जाते हैं...
बिखरते ही चले जाते हैं।
         ------      सुरेन्द्र भसीन





Wednesday, June 13, 2018

कचरा घर

कूड़ा कचरा
गन्द ही पड़ा हुआ है
भीतर बाहर सब तरफ
बुहारते, उठाते, संभालते
थक ऊब ही जाते हैं
फिर कहाँ निकालें?
कहाँ फैंके, गिराएँ?
समझ नहीं पाते हैं...।
जिधर देखो
बदबू का भरा बोरा है जा रहा...
उठता, बैठता, बोलता...
कोई अच्छी सोच नहीं
कोई अच्छी बात नहीं...
कचरा बनाने में,
कचरा फैलाने में
इतना हर कोई व्यस्त कि
अपने को साफ नहीं कर पा रहा...
बड़ा आदमी  हुआ तो मायने
बड़ा कचरा फैला रहा...
भीतर बाहर से
समाज कूड़ा-कचरा घर
हुआ जा रहा....।
      ------      सुरेन्द्र भसीन

Wednesday, June 6, 2018

निवेदन

निवेदन

मैं
तुम्हारे जीवन में
एक सूखते पौधे की तरह से ही हूँ
जिसकी अब तुम्हें
याद नहीं आती है कभी...
तुम उसे अपने प्यार का
जल नहीं चढ़ाती हो अब कभी...
तुमने अपनी दिल की बगिया में
अनेकानेक ऊँचे-बड़े पेड़ लगा लिए हैं
असंख्य तरह के फूल भी खिला लिए हैं
जिनसे तुम सदा खेल-बतिया लेती हो
अपने प्रेम-स्नेह-अपनत्व का जल उन्हें ही
चढ़ा देती हो, मगर
इधर बचपन से तुम्हारे दिल के
एक कोने में उगा-बसा मैं
उपेक्षित-रीता,
सूखता ही जाता हूँ।
निवेदन है कि मेरी भी व्यथा सुनो!
मैं हूँ, बचपन का
तुम्हारी दिल की बगिया में उगा
तुम्हारी चाहत में
एक सूखता, पौध!
       ------      सुरेन्द्र भसीन

आत्मायें और इच्छायें

इस
क्षणभंगुर संसार में
जितनी आत्माएं नहीं हैं
उनसे कई गुणा चाहतें हैं विचरतीं...
कुछ चींटी से भी महीन
कुछ दानवाकार,
सब कुछ लील जाने को आतुर..
कुछ रंग बिरंगे गुब्बारे-सी
जरूरतों की हवा से फूलती फैलतीं
एक दूजे से टकराती, संघर्ष करती
जीतती-हारती
अपनी जगह स्थापित हो जातीं या फिर
हारकर वक्त में तिरोहित हो
पुनर्जन्म लेतीं।
आत्माओं से कहीं ज्यादा अदृश्य
मगर पूरा जीवन घेरतीं।
आत्मा ही इच्छा हो जाती और कभी
इच्छा ही आत्मा बन कर देह धरती मगर
दोनों देह में आतीं।
वे अस्तित्वहीन होकर भी
हमें भर्मित करतीं
हैं, मगर
सदा अजर-अमर।
       -----      सुरेन्द्र भसीन 

Sunday, June 3, 2018

बदन की आवाज़

हर बार की तरह
इस बार भी हमारे
एक दूजे के प्रति समर्पित भाव
होठों पर ही बर्फ हो गए हैं
शब्द बनने से पहले...।
जबभी जबभी
हमारे दिल से दिल मिल जाते हैं
जिस्म से जिस्म टकराते हैं
और हम सिसकियों सिसकारियों में
अनेकानेक रातें बीताते हैं।
और हमारे होंठ सिले,
शब्द बर्फ बने रह जाते हैं
तब जिस्म ही एक दूजे को
बहुत कुछ
कह सुन जाते हैं।
        ------       सुरेन्द्र भसीन       

Friday, June 1, 2018

निरमुण्ड!

निरमुण्ड!
 दिशाहीन!
भीड़ में से ही
उठती/बनती है कोई निर्देशित आवाज
और भीड़ आश्वस्त होकर
करने लगती है अनुसरण उसका
मगर कुछ दूर जाकर ही
वह भी पुराने ढर्रे, सड़क,परिपाटी पर
उतर/बिक जाती है या
संसद की ओर मुड़ जाती है।
जनता फिर फिर ठगी जाती है जैसे
पूंछ के पीछे चलती कोई साँपिन
झाड़ियों में उलझ पुलझ जाती है और
जनता की नये की/आराम की प्यास
अधूरी ही रह जाती है।
उसे मर्गमरीचिक में और ज्यादा
कल्पाती ,दौड़ाती ...
        ------     सुरेन्द्र भसीन