बहुत...बहुत
अलग और विशिष्ट
हो जाने पर भी आदमी
अपनों के लिए
पराया हो जाता है....
बड़ा अकेला हो जाता है।
उसका हंसना, उसका रोना
नितांत निजी हो जाता है।
उसके लिए
वापिस लौट के आना
अपनों में मिल पाना
मुश्किल हो जाता है।
वह अपने स्तर से सब कुछ
टुकुर-टुकुर देख तो सकता है...
मग़र न छू सकता है,
न उसमें शामिल ही हो सकता है... ।
बस!
अपनी सफ़लता के ढ़ेर पर बैठा
अपनी बोयी विवशता के आँसू
रो सकता है
औऱ कुछ नहीं हो सकता है
...और कुछ नहीं हो सकता है।
---- सुरेन्द्र भसीन
अलग और विशिष्ट
हो जाने पर भी आदमी
अपनों के लिए
पराया हो जाता है....
बड़ा अकेला हो जाता है।
उसका हंसना, उसका रोना
नितांत निजी हो जाता है।
उसके लिए
वापिस लौट के आना
अपनों में मिल पाना
मुश्किल हो जाता है।
वह अपने स्तर से सब कुछ
टुकुर-टुकुर देख तो सकता है...
मग़र न छू सकता है,
न उसमें शामिल ही हो सकता है... ।
बस!
अपनी सफ़लता के ढ़ेर पर बैठा
अपनी बोयी विवशता के आँसू
रो सकता है
औऱ कुछ नहीं हो सकता है
...और कुछ नहीं हो सकता है।
---- सुरेन्द्र भसीन
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