Thursday, June 29, 2017

भूख

भूख

ये जो
पत्थर चला रहा हूँ न मैं
मेरा शौक नहीं
मेरी चाहत भी नहीं
मेरी बड़ी मजबूरी है।
ये फैंके पत्थर ही पाट रहे
मेरी रोटी और पेट की दूरी हैं।
कोई  करता रहे सियासत
तो कोई मानता रहे हमें बाग़ी
हम क्या करें?
हमारे लिए तो यह
बस जीने की मजबूरी है।
गोली से मरे हम
या मरे भूख से तड़पकर हम
हमारे लिए दोनों में से
तो बस एक चुनना जरुरी है।
बुरा न  मानों भाइयो
ये जो पत्थर चला रहा हूँ मैं और
तुम मुझ पर गोली
ये हमारा धर्म या देशप्रेम नहीं
हमारी दोनों भूखों
की मजबूरी है।
  ------------------                     सुरेन्द्र भसीन












भविष्य

भविष्य

भविष्य
जो अनिश्चित  है के बारे में
सोच-सोच कर घबराता हूँ
और जैसे भी, कैसे भी
उसे निश्चित कर
अपने काबू में कर लेना चाहता हूँ।

भला
जो अभी हुआ ही नहीं
उसे कैसे बाँध सकता है कोई
तय करके अपनी गिरह में ?

कितनी और कैसी भी
प्रार्थनाएँ...  या... मंत्र
मैं क्यों न रचूँ..... जपूँ ?

भविष्य तो
बेकाबू ही रहेगा....
क्योंकि,
जो कुछ हुआ ही नहीं
गिरह कैसे बाँध सकता है कोई ?
                ---------------         सुरेन्द्र भसीन













Wednesday, June 28, 2017

नियति

"नियति"

सदियों से
वह पहाड़ था
तो अड़ के खड़ा था
राह रोकने की अपनी जिद लेकर...
उसमें छेद कट, बारूद भरके उड़ा दिया
उसके बारीक़ टुकडों में तारकोल मिलाकर
सड़क बना दिया...
उसको!
 रास्ता बना
राहों में बिछा दिया!
------        सुरेन्द्र भसीन

Thursday, June 22, 2017

क्षमा

क्रोध की आँधी
गुजर जाने के बाद
आत्मग्लानि के कीचड़ से भरपूर सना मैं
भीतर से लाख चाहकर भी
किसी को क्षमा
नहीं कर पाता हूँ।
मेरे भीतर की
पुरानी हीनभावनाएँ, कमजोरियाँ, नाकामयाबियां,
विवशताएं और मेरे व्यक्तित्व के काले घने सघन जाले
सभी  मेरे आड़े आते हैं,
जो मेरे क्रोध को -
दुगना,तिगुना और चौगुना
करते  चले जाते हैं।
मुझे बदला लेने के लिए उकसाते हैं और
मुझे कड़े से कड़ा करके भारी, घना  और गुनहगार बनाते हुए
मेरी समस्यायें हीं बढ़ाते है।
और अंतत मुझे चिड़चिड़ा,
रुखा-सूखा, क्षमाविहीन(जो किसी को क्षमा न कर  सके)  वटवृक्ष बनाकर
अकेला छोड़ जाते हैं।
     --------------                सुरेन्द्र भसीन

गज़ल

"गज़ल "

दिल   की   दूरी   यूँ   मिटायी  जाती  है 
तेजाब डालकर कालिख छुड़ायी जाती है
क्या गोले चलाकर यारी निभायी जाती है 
पत्थरबाजों की पलटन बनायी जाती है  
घूरते   हैं  सदा   तीखे  तेवरों  से   हमें 
क्या   ऐसे   नजरें  मिलायी  जाती  हैं 
यूँ  कारगिल और संसद पर हमला करके 
फिर  अमन  की   बसें चलायी जाती हैं 
कश्मीर में छदम युद्ध की आड़ लेकर 
नौजवानों की नस्ल भड़कायी जाती है 
कहते हैं मैच खेलो, संबंध बनाओ हमसे 
मगर खेल के बहाने नफरत फैलायी जाती है 
यूँ न सुधरेंगी ओछी हरकतें पड़ोसियों की 
जब तक मार नहीं लगायी जाती है। 
            -----------           सुरेन्द्र भसीन 

Monday, June 19, 2017

मेरी बेटी /सबकी बेटी

"मेरी बेटी /सबकी बेटी"

मैं 
जब भी 
अपनी बीवी की आँखों में देखता हूँ 
उसमें मेरी बेटी का चेहरा नजर आता है। 
जो बड़ी होकर 
अपने पति को 
जैसे बड़ी उम्मीद से याचक होकर निहार रही है 
तो मैं बिगड़ नहीं पाता हूँ 
वहीं ढीला पड़ जाता हूँ। 
क्रोध नहीं कर पाता 
उबलता दूध जैसे छाछ हो जाता है.
हाथ-पांव शरीर और दिल 
अवश होकर जकड़ में आ जाता है 
और आये दिन अख़बारों में पढ़े 
अच्छे-बुरे समाचारों की सुर्खियाँ 
याद आ-आकर मुझे दहलाने लगती हैँ। 
 और मेरी पाशविक जिदें, नीच चाहतें 
बहुत घिनौनी और बौनी होकर 
मेरा मुँह  चिढ़ाने लगती है। 
कोई भला ऐसे में कैसे 
अपने परिवार को भूल
अपनी बेटी के भावी सुखों को नजरअंदाज कर 
अपना सुख चाहता है ?
वह ऐसा बबूल कैसे बौ  सकता है 
जिसे काटने की सोचते ही 
उसका आज कलेजा मुँह  को आता है?

तभी जब मैं 
कुछ कहने को होता हूँ 
तो मेरी बीवी की आँखों में 
मुझे हरेक की 
बेटी का चेहरा नजर आता है। 
  ----------                  सुरेन्द्र भसीन 












एक अदद झूठ

"एक अदद  झूठ" 

क्या करूँ 
जब-जब मैं कोई 
झूठ बोलता हूँ 
अपने में बड़ा उखड़-सा जाता हूँ 
इसलिए कोई-सा  भी  बड़ा  या छोटा 
झूठ बोलते ही 
तुरंत पकडा जाता हूँ। 

न न उंगली टेढ़ी कर कोई 
काम निकाल पाता हूँ 
न  ही  हाथी को चूहा बताने का 
कुतर्क लोगों के गले उतार पाता हूँ 
और न  ही गधे को महान बताकर 
उसका गुणगान ही कर पाता हूँ। 
रंगा सियार नहीं हूँ मैं 
और न गिरगिट की तरह पल-पल  रंग  ही बदल पाता हूँ। 
ऐसे मौके पर अपने में 
भीतर तक बनावटी और खोखला 
हो जाता हूँ। 
लोग  कहते हैँ -
बहुत सीधा हूँ मैं 
चूंकि सब ईशारे समझता हूँ मैं 
इसलिए किसी को  तो कहता कुछ नहीं 
मगर  अपने  पीछे छुपता और सिमटता ही जाता हूँ,
सच कहने की 
चाहे हर सजा पाता हूँ 
जीवन रेखा के बाहर निराश भी बैठा मैं 
अपनों से भी लाख धोखे खाता हूँ 
मगर अभी भी 
सुधरा नहीं हूँ मैं 
और न  सुधरना ही चाहता हूँ। 
क्योंकि लाख प्रयास करके भी मैं 
एक सफल 
झूठ नहीं बोल पाता हूँ। 
  ------                  सुरेन्द्र भसीन   











Wednesday, June 14, 2017

कीमत

बहुत...बहुत
अलग और विशिष्ट
हो जाने पर भी आदमी
अपनों के लिए
पराया हो जाता है....
बड़ा अकेला हो जाता है।
उसका हंसना, उसका रोना
नितांत निजी हो जाता है।
उसके लिए
वापिस लौट के आना
अपनों में मिल पाना
मुश्किल हो जाता है।
वह अपने स्तर से सब कुछ
टुकुर-टुकुर देख तो सकता है...
मग़र न छू सकता है,
न उसमें शामिल ही हो सकता है... ।
बस!
अपनी सफ़लता के ढ़ेर पर बैठा
अपनी बोयी विवशता के आँसू
रो सकता है
औऱ कुछ नहीं हो सकता है
...और कुछ नहीं हो सकता है।
 ----  सुरेन्द्र भसीन


Saturday, June 10, 2017

चॉक

लाख चाहने पर भी
अपने आप
कोई मिट्टी का लोंदा
चॉक  से कभी उतर नहीं पाता
कुशल कुम्हार ही
पूरा होने पर उसे धरती पर पहुँचाता है
तभी वह जीवन के पार गति कर पाता है
वरना, अधूरा
टूटा-फूटा
घूरा बन कर ही
समाप्त हो जाता है।
-------------          सुरेन्द्र भसीन

Friday, June 9, 2017

हम पत्थर

चुपके से
चिपक कर पहाड़
सटे रहते हैं
एक दूसरे से अपनत्व में।
और इंसान कहलाते हम
जब मर्जी पहुंच जाते हैं,
अपनी जरुरतों के मारे
उन्हें सताने को
काट खाने को
अपनी सँस्कृति, अपनी सभ्यता बढ़ाने को।
क्या कभी
पहाड़ भी आए हैं
हमें सताने को ?
–---------------        सुरेन्द्र भसीन