Sunday, October 18, 2015

घर

छोड़ दो  
अपनी इन व्यापारिक मजबूरियों को 
और अपने घर पर भी एक कविता लिखो। 
तुम 
घर से निकलते ही 
घर के विचारों को 
कुर्ते पर पड़ी धूल की तरह झाड़ देते हो 
और अपनी कविता बनाम तलवार 
जिस-तिस पर तान देते हो। 

कभी,
इस तलवार को अपने पर भी तानों 
और इस घर की अव्यवस्था कहीं तुम्हारी भी है 
इस सत्य को जानो। 
तुम जो यह तारकोली अँधेरा अपने घर भर में भरते जा रहे हो 
यह सोच कर तुम अपने बच्चों के लिये घर भर उजाला कमा रहे हो। 

नहीं तो सोचो
कहाँ से आया है इस घर में यह अंधेरा। 
इसे बाहर से तुम्ही तो लाये थे अपने साथ। 

और अब यही तारकोली अँधेरा,
जो तुम्हारी उँगलियों के पोरों से बच्चों में उतर गया है,
मानो पहाड़ से होता हुआ समूची घाटी में पसर गया है, 
नागफ़नियों की तरह तुम्हें और  बच्चों को ग्रस रहा है, 
इससे अब तुम 
हम-सबको बचा लो 
और जीवन के लिये नया उजाला कमा लो। 












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