चुप्पी
जब धूप
तीलियों-से अपने किनारे तोड़ रही थी
और तुम चुप्पी में भी बहुत कुछ बोल रही थी।
बांट रही थी अपनी चुप्पी
चुप रहकर भी।
चुप रहकर भी।
तब चुप्पी के इस भयंकर शोर में मैं
मैं बहुत कुछ बोल गया था
अपना सब कुछ खोल गया था
चुप रहकर भी।
याद है
वह सुनहरी सपनीली शाम
जब तुमने मेरे दिल में लिखा था अपना नाम
और मैं चुप
देखता भर रहा था तुम्हारी इन सुनहरी सपनीली आँखों में
और तुम करती ही रही थी
अपनी पहचान के घाव गहरे अपने भावों से।
उस दिन मेरी चुप्पी चीख रही थी
और खोना चाहती थी
तुम्हारे मन की अतल गहराइयों में
मगर उस दिन लाख बोलना चाहकर भी
मैं कुछ बोल नहीं पाया था
खोल नहीं पाया था गहरे टांके अपने घावों के।
मगर मैं तो तुमसे इतना ही कहना चाहता हूँ कि
तुम्हारे इन पवित्र कानों की दूरी मैं कभी पाट नहीं पाता हूँ।
अपने मुख के झूठे शब्दों से
इसलिये कि लाख बोलना चाहकर भी मैं कुछ बोल नहीं पाता हूँ।
याद है
वह सुनहरी सपनीली शाम
जब तुमने मेरे दिल में लिखा था अपना नाम
और मैं चुप
देखता भर रहा था तुम्हारी इन सुनहरी सपनीली आँखों में
और तुम करती ही रही थी
अपनी पहचान के घाव गहरे अपने भावों से।
उस दिन मेरी चुप्पी चीख रही थी
और खोना चाहती थी
तुम्हारे मन की अतल गहराइयों में
मगर उस दिन लाख बोलना चाहकर भी
मैं कुछ बोल नहीं पाया था
खोल नहीं पाया था गहरे टांके अपने घावों के।
मगर मैं तो तुमसे इतना ही कहना चाहता हूँ कि
तुम्हारे इन पवित्र कानों की दूरी मैं कभी पाट नहीं पाता हूँ।
अपने मुख के झूठे शब्दों से
इसलिये कि लाख बोलना चाहकर भी मैं कुछ बोल नहीं पाता हूँ।
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