Saturday, October 17, 2015

अहसास


ये जो
सारी की सारी वस्तुएँ हैं न 
हमारा मन, हमारी इच्छायें पढ़-पढ़ कर 
वैसे ही करतीं हैं हमसे व्यवहार 
जैसे हमारे तन-मन की अवस्था बदलती 
जाती है बार-बार। 
जहाँ क्रोध में वो कुछ ज्यादा ही अटकती हैं तो 
खुशी में उलहसकर ज्यादा ही मटकती हैं।

ये दरवाजे, ये बर्तन, ये कपड़े, ये जूते,
ये मेज-कुर्सी, स्कूटर-कार या फिर ऑफिस का सामान 
सब का सब हम पर हॅंसता है और व्यंग्य करता लगता भी है,
वक़्त आने पर अपनी पूरी जगह मांगता और न पाने पर 
हमसे लड़ता भी है। 
चोट खाने पर बुरी तरह ऐसे चिहुँकता जैसे 
किसी ने कुत्ते की दुम पर पाँव रख दिया हो याकि 
पेड़ से नारियल तोड़ कर गिराया हो जैसे।   

कैसे-कैसे
विरोध,क्रोध,विरह,प्रेम, काम, आह बेजान वस्तुओँ में उतर आता है 
नहीं !  वस्तुओँ में 
हमारे वक़्त का प्रतिबिंब ही बस जाता है। 













No comments:

Post a Comment