Monday, December 31, 2018

पिंजर का पिंजरा

पिंजर का पिंजरा

हम सभी को तो
यही सदा लगता है न कि
हम अपनी मर्जी से ही
आ जा रहे हैं, खा पी रहे हैं और
सबकुछ देख सुन भी रहे हैं...
मग़र ऐसा नहीं है
बड़े ही शातिराना तरीके से
हमसे यह सब करवाया जा रहा है
और एक बड़ा झूठ हमसे सच के रूप में
मनवाया जा रहा है -
कि हम आजाद हैं
कि हम स्वयं की मर्जी के मालिक हैं...।
मग़र कितनों?
कितनों को यह पता है कि
हम समाज के बंधक हैं चंद सुविधाओं के लिए
रहन रखी जा चुकी रिश्तों-नातों की डोर में कसी
एक चल-सी दिखती सम्पत्ति...।
जिसे विज्ञापनों,सामाजिक सीखों और
शिक्षा के दौरों द्वारा यह अहसास पचाया जाता है कि
हम पूर्णतः आज़ाद हैं!
अपनी ही मर्जी से
खा-पी, देख-सुन और
चल फिर भी रहे हैं...
    ........      सुरेन्द्र भसीन

Thursday, December 13, 2018

स्तब्ध

स्तब्ध

पत्थर
कैसे भी हों
खूबसूरत ही होते हैं
अपना एक निश्चित आकार लिए
एक कठोर कड़ा विचार लिए
निस्पंद,निसंकोच निहारते सबकुछ
तराशे हुए
दीवारों,मीनारों में चिने-चुने
अनगिनत रहस्यों को समेटते
चीखों-चीत्कारों के साक्षी
समय को,इंसानी फ़ितरत की  उलट-पलट देखते
स्तब्ध/ख़ामोश
एक दूसरे पर जमे.... जमे।
            --------      सुरेन्द्र भसीन  

साँस ही भार

साँस
साँस दर साँस
सिर्फ़ अपनी एक साँस के साथ
हम .. क्या ? क्या ?
नहीं लटकाते जाते -
धन,सम्पति,भूत,भविष्य,नाते,रिश्ते,कसमेंऔर वायदे भी।
नहीं जानते कि अगली साँस शायद आयेगी भी या नहीं?

हम जानते हैं कि
सब कुछ बदल जायेगा उसके रूकते ही

फिर भी हम
उसके साथ जीवन भर
लगातार लटकते-लटकाते जाते हैं
 कैसे-कैसे ?
भार  और  भार  और  भार.....
लगातार।
                 ----------           सुरेन्द्र भसीन  

जिंदगी से बात

ऐ,
जिंदगी मेरी !
तुम हमेशा अपनी ही करोगी
या कभी कुछ
मेरी  भी  चलने  दोगी ?

जब-जब मैं
अपनी मर्जी की करना चाहता हूँ
तुम मेरे पिछले कर्मों या भाग्य के
रोड़े अटकाते हुए ।
हर बार मुझे
नाक़ामयाबी या मज़बूरी का
अंगूठा दिखती हो।

हर बार
जो भी नया होता है तुम्हारे दम पे
मुझे तो नहीं भाता।
किया तुम्हारा कुछ भी क़सम से
मन मार के ही स्वीकार लेता हूँ मानों
गर्मियों में दान में मिला कंबल।

सच कहता हूँ
अगर क्षण भी मैं
अपने को जी लूँ क़सम से
तो आज़ाद हो जाऊँगा इस भरम से कि- 
तुम मेरी अपनी नहीं हो, 
कसम से।
          -------------        सुरेन्द्र भसीन     
 

बड़ा प्रश्न

अपने से प्रश्न करना
इंसान  को नहीं आता है
दरअसल इंसान खुद से क्या चाहता है
यह उसे भी पता /समझ नहीं आता  है...

दूसरों की सुनने,मानने और कहने में ही
उसका सारा जीवन निकल जाता  है....

लोग क्या कहेंगे ?
यह अच्छा लगेगा या नहीं ?
जैसे फालतू जुमलों में फंसा इंसान 
अपने से ही पराया का पराया ही रह जाता है  
जैसे किराए के मकान में रहता रहे कोई याकि
समाजिक साहूकार का कर्जा चुका रहा हो जीवन भर....
कुछ भी कह लो -
मगर जीवन भर
वह अपने से कभी पूछ नहीं पाता है कि
दरअसल वह अपने से
क्या  चाहता  है ?
             -------------              सुरेन्द्र भसीन   

न सपने अपने न अपने अपने

अपनों 
से ज्यादा 
सपने कलपाते हैं,
जिंदगी भर दौड़ो 
फिर भी हाथ नहीं आते हैं

दिखते तो हैं पुराना रिश्ता हो जैसे
मगर आकाश में टिमटिमाते तारे
एकटक देखते रहो...
देखते रहो...
पलक झपकते ही
ओझल हो जाते हैं...
बेगाने हो छूट जाते हैं
फिर से बनाने/देखने पड़ते हैं
फिर से शुरू करो
नाराज़ रिश्तों को गाँठना
तारों सा टांकना..
जीवन भर करते रहो वरना
न जाने कब अपने ही सपने हो जाते हैं।
------               सुरेन्द्र भसीन          

Sunday, December 2, 2018

आज इंसान/ प्रकृति

आज इंसान
प्रकृति के निर्णयों से
सहमत नहीं हो पाता है,
उनके सामने सिर नहीं झुकाता है,
नतमस्तक नहीं होना चाहता है।

तो प्रकृति भी
इंसान के कृत्यों को कहाँ
वहन-सहन कर पाती है।

दोनों में दिनों-दिन
दूरियां बढ़ती ही जाती हैं।
इसलिए इंसान अगर प्रकृति को खाता है तो 
कभी प्रकृति भी
इंसान को लील जाती है।
         ------     सुरेन्द्र भसीन