ये जो
ऊँचे ओहदों पर बैठे हैं-
ऊँचे ओहदों पर बैठे हैं-
आप क्या समझते हैं ?
ये अपनी मर्जी से
नाच-गा रहे हैं ?
अरे ! ये सब कठपुतलियाँ हैं,
व्यवस्था की मजबूरी में फंसे हैं
ये तो फंसी में
अपने हाथ-पाँव हिला रहे हैं।
अपने हाथ-पाँव हिला रहे हैं।
अंदर से विवशता की
बीमारी से तिलमिला रहे हैं
मगर ऊपर से
ख़ुश हो-हो कर दिखा रहे हैं।
ख़ुश हो-हो कर दिखा रहे हैं।
धन और ओहदे की ताकतवर
विटामिन के सहारे अपना गुजारा
चला रहे हैं।
नाक में तो नकेल पड़ी है
तो हां में सिर हिला रहे है,
न नहीं कर पा रहे हैं।
वैसे बोझ व अपमान से
उनके कंधे, सिर और आत्मा
झुके ही जा रहे हैं।
झुके ही जा रहे हैं।
गुनाह उनके कितने हैं
ये उनको भी नज़र आ रहे हैं
मगर फिर भी ,
उन्ही खूनी हाथों से
गुनाह पर गुनाह करने की
रिवायत निभाते चले जा रहे हैं।
रिवायत निभाते चले जा रहे हैं।
तुम सोचते हो
झुकना उन्हें आता नहीं
मगर वे तो
पहले से ही
जमीन में गड़े जा रहे हैं।
पहले से ही
जमीन में गड़े जा रहे हैं।
छोड़ दो उन्हें, उन्हीं के हाल पर
और रहम करो उनपर
उनसे तो अपने फ़टे भी
कहाँ सिले जा रहे हैं ?
(कि जो हम भी उनको सताने चले आ रहे हैं। )
---------- सुरेंद्र भसीन
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