Saturday, September 5, 2015

अधूरे हम

सब जगह 
सब कुछ पूरा क्या ?
अधिक ही है रखा हुआ,दिया हुआ 
ईश्वर और प्रकृती ने हमारे लिए
अपने हिसाब से।  

मगर चाहतों,वासनाओं की भीतरी गड़बड़ी-हड़बड़ी में 
तो ये सब हमें कम व अधूरा लगता है
पूरा नहीं जान पड़ता है। 

वरना, सूर्य की रश्मियाँ
उफनते सागर की विद्युत शक्तियाँ
ये पानी के लगातार बहते झरने
ये दिनोदिन उपजती वनस्पतियाँ 
ये पहाड़ व खनिजों के भंडार 
और पृथ्वी की अथाह लम्बाई-चौड़ाई
यानि प्रकृती के सभी अकूत-अक्षत खजाने 
चैन से,बाँट कर खाने भर से भला
कम पड़ जाने वाले हैं ?
खत्म हो जाने वाले हैं ?

अच्छा हो अपने अंदर की 
भूख को, घबराहट को, रीतेपन को 
वस्तुओं से नहीं सय्यम में समेटो। 




















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